भारत की दो बहनें पाकिस्तान तक घोल रहीं मिठास
भारत की दो बहनें। दोनों बेमिसाल। पाकिस्तान के पिछड़े लोगों को दिखा रही हैं जीने की राह। भारत –पाकिस्तान की सरहद पर बसा है बोगडांग गांव। मुस्लिम आबादी वाले इस गांव में जिंदगी बेहद मुश्किल। बर्फीली और बंजर पहाड़ी जमीन पर गुजर-बसर वैसे ही मुहाल थी। रही-सही कसर कट्टरपंथियों ने पूरी कर दी। यहां किसी लड़की के लिए बड़े सपने देखना, किसी गुनाह से कम नहीं। फिर भी दोनों बहनों ने बड़े सपने देखे। पढ़ी-लिखीं और अपनी मर्जी की मंजिल चुनी। कट्टरपंथियों ने इनकी राह में रोड़े अटकाये। बिरादरी से अलग कर दिया। जिल्लत के सिवा कुछ न दिया। लेकिन बेटियों के ख्वाब को पूरा करने के लिए पिता ने तमाम तकलीफें सहीं। कठमुल्लाओं के जोर-जुल्म से बचने के लिए गांव छोड़ा। बेटियों के पढ़ाने के लिए जमीन बेच दी। हालात से लड़ कर दोनों बहनों ने अलग-अलग क्षेत्रों में बड़ा मुकाम बनाया। आज ये दोनों बहनें भारत पाकिस्तान के हजारों पिछड़े लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
कौन हैं बाल्टी समुदाय के लोग ?
बोगडांग में बाल्टी समुदाय के लोग निवास करते हैं। बाल्टी समुदाय तिब्बत का प्राचीन जातीय समूह है। मिस्र के प्राचीन भूगोलवेत्ता क्लॉडियस टॉलमी ने सबसे पहले बाल्टी क्षेत्र का जिक्र किया था। पहले यहां बौद्ध धर्म प्रभाव था। बाद में यहां के लोग मुस्लिम धर्म को मानने लगे। ये बाल्टी भाषा बोलते हैं। बाल्टी भाषा तिब्बत की एक प्राचीन भाषा है जो अब धीरे-धीरे विलुप्त हो रही है। कश्मीर के राजा हरि सिंह ने भारत की आजादी के पहले गिलगित-बाल्टिस्तान को अपने अधीन कर कर लिया था। अंग्रेजों ने इस इलाके को कश्मीर के राजा से लीज पर ले लिया था। अंग्रेजों ने इस इलाके की देख-रेख के लिए गिलगित स्काउट्स के नाम से एक फोर्स तैनात कर रखी थी। 1947 में भारत आजाद हुआ तो कश्मीर कुछ समय के लिए एक स्वतंत्र देश बना रहा। इसी बीच नवम्बर 1947 में गिलगित स्काउट्स के स्थानीय कमांडर कर्नल मिर्जा हसन खान ने विद्रोह कर दिया। उसने गिलगित-बाल्टिस्तान को कश्मीर से अलग कर एक आजाद मुल्क घोषित कर दिया। इस अव्यवस्था का फायदा उठा कर पाकिस्तानी सेना और कबायलियों ने कुछ दिनों के बाद गिलगित-बाल्टिस्तान पर कब्जा जमा लिया।
बाल्टी लोगों की समस्याएं
बाल्टी बाषा बोलने वालों की सबसे बड़ी आबादी पाकिस्तान के बाल्टिस्तान में रहती है। लेकिन लद्दाख के भी कुछ क्षेत्रों में बाल्टी बोलने वाले लोग रहते हैं। सरहद के इस पार रहें या उस पार, बाल्टी समुदाय के लोग अपनी भाषा और संस्कृति को लेकर आपस में बहुत जुड़ाव महसूस करते हैं। अपनी भाषाई पहचान के विलुप्त होने की चिंता इन्हें एक बनाये रखती है। बोगडांग लद्दाख के उत्तर पूर्व में स्थित नुब्रा घाटी में बसा हुआ है। नुब्रा घाटी लेह से 150 किलोमीटर दूर है। यह एक त्रिभुजाकार घाटी है जो श्योक और नुब्रा नदी के संगम पर अवस्थित है। बोगडांग बिल्कुल पाकिस्तान की सीमा से सटा हुआ है इसलिए यहां स्थिरता और शांति एक बड़ी समस्या रही। 1999 में करगिल युद्ध के समय भारतीय सेना को बोगडांग गांव की परेशानियों के बारे में पता चला। अशिक्षा और गरीबी से यहां के लोगों का जीवनस्तर बहुत ही खराब था। सेना ने यहां के लोगों का भरोसा जीतने के लिए सहयोग के लिए हाथ बढ़ाया। बोगडांग में आर्मी गुडविल स्कूल की शुरुआत हुई। मुस्लिम कट्टरपंथी इस आर्मी स्कूल के खिलाफ थे। लड़कियों के पढ़ने पर तो बिल्कुल रोक थी।
जुलेखा और शेरिन की कहानी
बोगडांग के नम्बरदार अहमद शाह बाल्टी अपनी दो लड़कियों जुलेखा, शेरिन और बेटे शब्बीर के भविष्य को लेकर फिक्रमंद थे। उन्होंने कट्टरपंथियों की परवाह नहीं की और अपने तीनो बच्चों को आर्मी गुडविल स्कूल में पढ़ने के लिए भेज दिया। स्कूल के कार्यक्रम में जब जुलेखा ने डांस किया और शेरिन ने गाना गया तो कट्टरपंथी आगबबूला हो गये। मौलवी ने अहमद शाह बाल्टी पर मजहब से भटकने का तोहमत लगा दिया। उनको फरमान जारी किया गया कि वे अपने बच्चों को स्कूल से हटा लें। अहमद शाह बच्चों को पढ़ाने की जिद पर अड़े रहे। नतीजे के तौर पर अहमद शाह के परिवार को बिरादरी से छांट दिया गया। उनके मस्जिद में जाने पर पाबंदी लगा दी गयी। यह ऐलान भी कर दिया गया कि अगर अहमद शाह के परिवार से कोई मिला-जुला तो उसे जुर्मान भरना पड़ेगा। हालात को देख कर अहमद शाह ने गांव छोड़ दिया।
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कामयाबी के लिए संघर्ष
अहमद शाह बाल्टी अपने पत्नी और बच्चों को लेकर लेह आ गये। उन्होंने दोनों बेटियों और बेटे को आगे पढ़ने के लिए देहरादून भेज दिया। अहमद शाह को पढ़ाई का खर्चा उठाने के लिए अपनी जमीन बेचनी पड़ी। जुलेखा बानो बाल्टी सबसे बड़ी थीं इसलिए उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ अपने भाई बहनों की देख भाल भी शुरू कर दी। लद्दाख के बहुत से विद्यार्थी देहरादून में पढ़ते थे। इसके बाद जुलेखा के माता पिता को रोजगार के ख्याल से देहरादून में लद्दाखी विद्यार्थियों के लिए होस्टल और मेस चलाने की सूझी। वे देहरादून आ गये। अहमद शाह बाल्टी और उनकी पत्नी शकीना ने 35 छात्रों के साथ एक होस्टल शुरू किया। जुलेखा और शेरिन भी यहीं रहने लगीं। दोनों बहने पढ़ाई भी करतीं और मेस चलाने में मां की मदद भी करती। मां खाना बनाती। जुलेखा औऱ शेरिन बर्तन साफ करतीं। जिंदगी की गाड़ी सरपट भागने लगी।
तालीम से बदल गयी तकदीर
जुलेखा बानो बाल्टी ने पढ़ लिख कर एलएलबी की डिग्री हासिल की। वह बाल्टी समुदाय की पहली महिला वकील बनीं। शेरिन फातिमा बाल्टी ने 12वीं के बाद गायिकी में किस्मत आजमायी। आज शेरिन बाल्टी भाषा की एक मशहूर गायिका बन चुकी हैं। शेरिन अपनी गाने की रिकॉर्डिंग के लिए दिल्ली तक जाती हैं। अहमद शाह बाल्टी ही अपनी बेटी के लिए गीत लिखते हैं। शेरिन की सुरीली आवाज सोशल मीडिया के जरिये जब सरहद पार पाकिस्तान तक पहुंचती है तो वहां के लोग फूले नहीं समाते। बाल्टिस्तान के लोग अपनी भाषा के गीत सुन कर गदगद हो जाते हैं। वे कहते हैं, सरहद पार भारत से एक मीठी आवाज आयी है जो कानों में रस घोल रही। जुलेखा का भाई शब्बीर अब इंजीनियर बन चुका है। अहमद शाह अगर कट्टरपंथियों से डर गये होते तो इतना कुछ हासिल नहीं कर पाते। अब तो बोगडांग के लोगों का नजरिया भी बदल गया है। कामयाबी हासिल करने के बाद जब अहमद शाह बाल्टी अपने गांव बोगडांग लौटे तो वहां के लोगों ने दिल खोल कर उनका स्वागत किया। जो कभी ताना मारते थे वे गले मिलने लगे। ये सच है कि तालीम, तकदीर बदल देती है।