छापेमारी और सेंधमारी की सियासत के मायने!
आजकल छापेमारी और सेंधमारी की सियासत चरम पर है। इसके पीछे भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को मास्टरमाइंड के तौर पर देखा जा रहा है।
केन्द्र की नरेन्द्र मोदी सरकार को जनहित में कार्य करने के लिए 100 में से जितने भी नम्बर मिले पर कूटनीतिक सियासत में तो 100 में से सौ नम्बर ही मिलना चाहिए। कूटनीति को आमतौर पर इस रूप में परिभाषित किया जाता है कि काम भी हो जाए और किसी को पता भी न चले। देसी भाषा में कहें तो इसके लिए यही प्रचलित है कि सांप भी मर जाए और लाठी भी ना टूटे। कुछ इसी तर्ज पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार चल रही है, खासकर आंतरिक मोर्चे पर। मोदी के खास सिपहसालार माने जाने वाले भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की कार्यशैली अनौपचारिक रूप से यह प्रदर्शित कर रही है कि पूरे देश में विपक्ष को इस कदर कमजोर कर दिया जाए कि सत्तापक्ष से सवाल पूछने वाला कोई बचे ही नहीं।
इस बात को अधिकृत रूप से नहीं कहा जा सकता क्योंकि सबकुछ छुपे-रूस्तम हो रहा है। दिलचस्प तो यह है कि विपक्ष को कमजोर करने की दिशा में कदम उठाए जाने के बाद संबंधित पार्टी प्रमुख को पता चलता है कि उसके इतने विधायक टूटकर भाजपा में शामिल हो गए। विधायकों के अपनी मूल पार्टी से टुटने की कीमत क्या होती होगी, यह अमूमन पूरा देश जानता है। बावजूद इसके इसे यहां उद्धृत नहीं किया जा सकता, क्योंकि सियासी अपराध का कोई साक्ष्य नहीं होता। आजकल छापेमारी और सेंधमारी की सियासत चरम पर है। चारों ओर इसकी चर्चा है और इस कार्य के लिए भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह की कौशल की दाद देते वक्त उनके समर्थक फूले नहीं समा रहे हैं। भाजपा खेमे में आजकल खुशी की लहर दौड़ रही है।
कर्नाटक के ऊर्जा मंत्री डीके शिवकुमार के खिलाफ आयकर विभाग की छापेमारी से नाराज प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने पिछले दिनों संसद में जमकर हल्ला काटा। पार्टी नेताओं ने छापेमारी को राजनीतिक बदले की कार्रवाई और लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताया। यह सच है कि आयकर, सीबीआई और ईडी जैसी सरकारी जांच एजेंसियों का इतिहास बेदाग नहीं है। लिहाजा दावे के साथ कोई कह नहीं सकता कि सरकारें राजनीतिक प्रतिशोध लेने के लिएइनका इस्तेमाल नहीं करतीं होंगी। इसलिए कांग्रेस के आरोप में सच्चाई के अंश से इनकार नहीं किया जा सकता। गुजरात के विधायकों को खरीद-फरोख्त कर दूसरे पाले में जाने से रोकने के लिए रिसॉर्ट में कैद करके रखने की घटना पहले भी हुई है और भविष्य में भी होगी।
यह हमारी राजनीतिक व्यवस्था में अंतरर्निहित हो चुके दोषों को उजागर करती है। क्या वह प्रवृत्ति हमारे लोकतंत्र के लिए खतरे का इशारा नहीं करती? विधायकों को लालच या पल्रोभन देकर अपने पाले में शामिल करना लोकतंत्र के लिए कितना घातक है, इसका अंदाजा भले आज किसी को न हो, लेकिन बाद में तो पता चलेगा ही। यह किसी से छुपा नहीं है कि किसी भी व्यक्ति के लिए चुनाव जीतने की पहली शर्त उसका दबंग होना रह गया है। हां, इतना जरूर है कि छापेमारी की टाइमिंग को लेकर सवाल खड़े किए जा सकते हैं। इससे पता चलता है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ने गुजरात राज्य सभा चुनाव को अपनी-अपनी प्रतिष्ठा का सवाल बना दिया है। क्योंकि दोनों ओर से कद्दावर नेता चुनाव मैदान में हैं। भारतीय राजनीति के चेहरे को बदरंग बनाने में कमोबेश सबका योगदान है।
कांग्रेस को गुजरात में जो झटका लगा है वह केवल उसकी मुसीबत नहीं है। यह घटनाक्रम हमारे संसदीय लोकतंत्र का भी एक बेहद सोचनीय प्रसंग है। गुजरात में कांग्रेस शंकर सिंह वाघेला के अलग होने से लगे झटके से उबर भी नहीं पाई थी कि बीते दिनों उसके तीन विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। फिर, चौबीस घंटे भी नहीं बीते थे कि उसके तीन और विधायकों का पार्टी से इस्तीफा आ गया। कांग्रेस के और भी विधायकों के पार्टी से अलग होने की अटकलें सुनाई देने लगीं। घबराहट में कांग्रेस अपने बचे हुए विधायकों को कर्नाटक की राजधानी बेंगलुरू ले गई। कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है। जाहिर है, यह कदम पार्टी ने इसलिए उठाया ताकि वह अपने विधायक दल को सेंधमारी का फिर शिकार होने से बचा सके। पार्टी का आरोप है कि खरीद-फरोख्त के जरिए उसके विधायक दल में लगातार सेंध लगाई जा रही है और इसके पीछे भाजपा का हाथ है। इस आरोप की तह में न भी जाएं तो भी भाजपा का खेल जाहिर है।
राज्यसभा चुनाव में उसके पास दो उम्मीदवार जिताने भर के वोट थे, पर उसने तीन उम्मीदवार खड़े कर दिए। पार्टी के अध्यक्ष अमित शाह और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी के अलावा उसने कांग्रेस के बागी विधायक बलवंत सिंह राजपूत को भी उम्मीदवार बना दिया। भाजपा की रणनीति दोहरी है। तीनों सीटों उसकी झोली में आ जाएं और दूसरी तरफ, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल के राज्यसभा में पहुंचने की संभावना खत्म हो जाए। गुजरात में कांग्रेस के पास 51 विधायक थे, जो एक उम्मीदवार को आराम से जिताने के लिए पर्याप्त थे। सवाल है कि आखिर राज्यसभा चुनाव के ऐन पहले कांग्रेस के कुछ विधायकों को पार्टी से इस्तीफा देने की जरूरत क्यों महसूस हुई? इस सवाल का जवाब परदे के पीछे की सौदेबाजी की तरफ ही संकेत करता है। गुजरात में यह सब चल ही रहा था कि उत्तर प्रदेश से भी कुछ ऐसी ही खबर आई कि सपा के दो एमएलसी ने पार्टी से इस्तीफा देकर भाजपा में जाने के संकेत दिए।
पिछले तीन साल में यह पहला मौका नहीं है जब सेंधमारी के जरिए सत्ता की गोटी बिठाने के आरोप भाजपा पर लगे हैं। अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में चुनी हुई सरकार को गिराने और फिर गोवा में सबसे बड़ी पार्टी न होते हुए भी फिर से सरकार बनाने का खेल सेंधमारी के जरिए ही उसने साधा। इस तरह विपक्ष को खत्म करने से संसदीय लोकतंत्र का दम तो घुटेगा ही, खुद भाजपा अपने समर्पित कार्यकर्ताओं के बजाय दलबदलुओं व सत्ता के भूखे लोगों का जमावड़ा होकर रह जाएगी। क्या यही भ्रष्टाचार-विरोध है, जिसका भाजपा और मोदी दम भरते हैं? गुजरात में कांग्रेस को लगा झटका उसके लिए एक सबक भी है। उसे अपने आप से यह पूछना होगा कि वह ऐसे लोगों को टिकट क्यों देती है जिनकी पार्टी के प्रति निष्ठा इतनी कमजोर है कि उन पर पहरा बिठाना पड़े?
गुजरात के इस सियासी खेल से दलबदल कानून की विसंगतियां भी एक बार फिर उजागर हुई हैं। भाजपा नेताओं की कुत्सित मानसिकता की है देन है कि गुजरात के बाद अब बिहार से भी कांग्रेसी खेमे के लिए निराशा की खबर आ रही है। गुजरात में जहां अपने विधायकों को एकजुट करने के लिए कांग्रेस आलाकमान खासी मशक्कत कर रहा है, वहीं बिहार में भी पार्टी के कुछ विधायकों के टूटने की सुगबुगाहट शुरू हो गई है। बिहार में इस वक्त कांग्रेस के 27 एमएलए हैं। सूत्रों के मुताबिक, इस वक्त 9 विधायक जेडीयू-बीजेपी गठबंधन के संपर्क में हैं। कहा जा रहा है कि कुछ नेता बिहार में बीजेपी के बड़े नेताओं के संपर्क में हैं। कुछ ऐसे भी विधायक हैं जो नई सरकार के गठन के बाद से ही नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू के संपर्क में हैं। 2015 के विधानसभा चुनावों में जेडीयू-आरजेडी और कांग्रेस ने महागठबंधन बनाकर एक साथ चुनाव लड़ा था।
कहा जा रहा है कि कांग्रेस के विधायक इस वक्त दयनीय स्थिति में हैं। राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस का कद घट रहा है। इस वजह से बिहार के कांग्रेसी विधायक असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। नीतीश ने कांग्रेस के विधायकों के साथ अच्छे संबंध बनाए हैं। बिहार में कांग्रेस के अध्यक्ष अशोक चौधरी से भी उनके अच्छे संबंध हैं। इस वजह से कुछ विधायक जेडीयू के संपर्क में हैं। ऐसी अटकलें लग रही हैं कि जेडीयू में शरद यादव के करीबी विधायकों में से कुछ आरजेडी में जा सकते हैं। हालांकि, जेडीयू ने इस तरह की आशंका को खारिज किया है। पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि कुछ विधायक शरद जी के करीबी हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि वे नीतीश जी और पार्टी को छोड़ देंगे। इनमें से कई नए मंत्रिमंडल में मंत्री हैं। इस वजह से उनके जेडीयू से टूटने का प्रश्न नहीं है। बहरहाल, कह सकते हैं कि अभी जो सियासत का चेहरा दिख रहा है वह बेहद कुरूप है। आगे क्या-क्या होता है, यह देखना बाकी है।