कर्नाटक की वो मस्जिदें जहां चल रहें हैं सामुदायिक सेवा केंद्र
मस्जिदें वो धार्मिक स्थल होती हैं जहां मुसलमान नमाज़ अदा करते हैं लेकिन कर्नाटक में मस्जिदें अब केवल नमाज़ पढ़ने के लिए इस्तेमाल नहीं की जा रही हैं, बल्कि उनके अंदर सामुदायिक सेवा केंद्र भी बनाए जा रहे हैं. इस तरह के सेवा केंद्र सिर्फ़ मुसलमानों की नहीं, बल्कि दूसरे धर्मों के लोगों की भी मदद कर रहे हैं. ठीक उसी तरह, जिस तरह ईसाई समुदाय करता है.
मस्जिदें वो धार्मिक स्थल होती हैं जहां मुसलमान नमाज़ अदा करते हैं लेकिन कर्नाटक में मस्जिदें अब केवल नमाज़ पढ़ने के लिए इस्तेमाल नहीं की जा रही हैं, बल्कि उनके अंदर सामुदायिक सेवा केंद्र भी बनाए जा रहे हैं.
इस तरह के सेवा केंद्र सिर्फ़ मुसलमानों की नहीं, बल्कि दूसरे धर्मों के लोगों की भी मदद कर रहे हैं. ठीक उसी तरह, जिस तरह ईसाई समुदाय करता है.
पिछले कुछ महीनों में मस्जिदों ने जो सेवा केंद्र स्थापित किए हैं उनमें धर्म का भेद-भाव किए बग़ैर सभी लोगों की मदद की जाती है.
ये सेवा केंद्र मतदाता पहचान पत्र, आधार कार्ड बनाने या स्कॉलरशिप का फ़ॉर्म भरने जैसे कामों में आस-पास के लोगों की मदद करते हैं.
कर्नाटक वक़्फ़ बोर्ड ने भी मस्जिदों की इस पहल का स्वागत किया है और राज्य भर में क़रीब 8,000 मस्जिदों के कमेटी सदस्यों से कहा है कि वो मुसलमानों को इस बात के लिए जागरूक करें कि वो वे सारे दस्तावेज़ बनवा लें, जो बतौर नागरिक उनके पास होने चाहिए.
कर्नाटक वक़्फ़ बोर्ड के प्रशासक एबी इब्राहिम ने बीबीसी हिंदी से कहा, ''अब तक मस्जिदें सिर्फ़ नमाज़ पढ़ने की जगह होती थीं. लेकिन हमलोग कोशिश कर रहे हैं कि वो सामाजिक ज़रूरतों को पूरा करने की तरफ़ भी अपना ध्यान केंद्रित करें और लोगों को सभी ज़रूरी दस्तावेज़ बनाने के लिए प्रोत्साहित करें जो भविष्य में उनके काम आएंगे.
इब्राहिम ने कहा. ''मस्जिदों को कहा गया है कि वो सभी लोगों की जानकारी जमा करें और रजिस्टर तैयार करें. हम ये भी चाहते हैं कि जब भी ज़रूरत हो उन दस्तावेज़ों को अपडेट करते रहें. हम लोगों ने एनआरसी फ़ॉर्म भरने के लिए जिन दस्तावेज़ों की ज़रूरत है, वो सभी उनको भेज दिया है.''
बेंगलुरु सिटी मार्केट के जामिया मस्जिद के इमाम मौलाना मक़सूद इमरान का कहना है, ''मुसलमान अपनी रोज़ी-रोटी कमाने में इतना मशग़ूल हैं कि वो उन दस्तावेज़ों को बनाने की तरफ़ कोई ध्यान नहीं देते हैं जो हर नागरिक के पास होना चाहिए. हम जो कर रहे हैं उसका एनआरसी या सीएबी से कोई लेना देना नहीं है. हम लोग पिछले तीन महीनों से ये काम कर रहे हैं और ये सेवा केंद्र कई मस्जिदों में काम कर रहे हैं.''
तिरुअनंतपुरम स्थित केरल यूनिवर्सिटी में इस्लामिक स्टडीज़ के प्रोफ़ेसर अशरफ़ कडाकल के मुताबिक़, ''ये पहल ईसाइयों से प्रभावित लगती है क्योंकि चर्च सिर्फ़ केवल ईसाइयों के पूजा स्थल की जगह नहीं होते. चर्च हमेशा से एक सामुदायिक सेवा केंद्र की तरह काम करते रहे हैं. वहां छुट्टियों के दौरान कई तरह के कोर्स चलाए जाते हैं. छात्रों को गाइड किया जाता है. शादियों के मामले में सलाह दी जाती है और इसके अलावा बहुत से काम होते हैं.''
वक़्फ़ बोर्ड के प्रशासक इब्राहिम मानते हैं कि लोगों में उनके अधिकार और कर्तव्यों के बारे में जागरूकता फैलाने का एक मक़सद ये है कि आज से दो साल के बाद जब जनगणना की कार्रवाई शुरू हो तो उन्हें किसी तरह की कोई परेशानी न हो.
वो कहते हैं कि ऐसी कई शिकायतें मिली हैं कि लोगों के नाम जनगणना या मतदाता सूची से ग़ायब हैं.
मई 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के दौरान ऐसी कई शिकायतें आईं थी जिसमें कहा गया था कि मतदाता सूची से बहुत सारे मुसलमानों के नाम ग़ायब थे.
इस मामले ने इतना तूल पकड़ा था कि चुनाव आयोग को इस बारे में आधिकारिक तौर पर बयान जारी करना पड़ा था लेकिन कुछ मुसलमान राजनेताओं ने इसका अलग कारण बताया.
उनके मुताबिक़, मध्यम या निम्न-मध्यम वर्ग के मुसलमान आम तौर पर घर को किराए की जगह लीज़ पर लेते हैं. तीन-चार साल के बाद जब लीज़ पीरियड ख़त्म हो जाता है तो वो दूसरे इलाक़े में शिफ़्ट हो जाते हैं लेकिन वो राशन कार्ड यो वोटर आईडी कार्ड में अपना पता नहीं बदलवाते हैं.
जो चतुर और राजनीतिक तौर पर समझदार नेता होते हैं जैसे कि एमएलए वो इस बात के लिए सुनिश्चित करते हैं कि अगर उनके मतदाता ने उनके विधान सभा क्षेत्र के अंदर घर बदला है तो वो मतदाता सूची में अपने पते को सही करा लें. लेकिन दिक्क़त तब होती है जब लोग उसके निर्वाचन क्षेत्र के बाहर शिफ़्ट हो जाते हैं.
ज़ाहिर है तब नेता को भी उन लोगों में कोई रूचि नहीं होती क्योंकि वो अब उनके मतदाता नहीं होते हैं.
मौलाना मक़सूद इमरान कहते हैं, ''एक अजीब बात ये होती है कि मुसलमानों के कई अलग-अलग दस्तावेज़ों में नाम की स्पेलिंग बदल जाती है. मिसाल के तौर पर मोहम्मद को ही अलग-अलग तरीक़े से लिखा जाता है. कोई एमडी लिखता है, कहीं एमओएचडी लिख दिया जाता है, कोई पूरा मोहम्मद लिखता है. हमलोग लोगों को सलाह देते हैं कि अगर मस्जिद के अंदर बने सेवा केंद्र से उनके नाम ठीक नहीं होते हैं तो उन्हें बेंगलुरु वन सिटीज़न सेवा केंद्र जाना चाहिए.''
जामिया मस्जिद में सामुदायिक सेवा केंद्र चलाने वाले सैय्यद वसीम अकरम कहते हैं, ''पिछले महीने मुख्य चुनाव अधिकारी के दफ़्तर फ़ोन कर ये जानना चाहा था कि क्या हम अब भी एनवीएसपी वेबसाइट पर जाकर मतदाताओं की वेरीफ़िकेशन कर सकते हैं. क्योंकि मुझे बहुत से लोग कहते थे कि उन्हें ऑनलाइन वेरीफ़िकेशन करने नहीं आता है. चुनाव अधिकारियों ने हमें बताया कि आप ये काम जारी रख सकते हैं.''
हर दिन लगभग 20 लोग कोई न कोई समस्या लेकर सेवा केंद्र आते हैं और आने वाले सिर्फ़ मुसलमान नहीं होते हैं. अकरम के अनुसार उनमें दलित, हिंदू और इसाई भी होते हैं.
ऐश्वर्या नाम की एक छात्रा उस सेवा केंद्र पर स्कॉलरशिप का फ़ॉर्म भर रही थीं. उन्होंने बीबीसी से कहा, ''मैं डिग्री कोर्स के लिए स्कॉलरशिप का फ़ॉर्म भरने आई थी. मुझे इसके बारे में जानकारी नहीं थी. मैं अब्बास ख़ान जूनियर कॉलेज में पढ़ती हूं.''
जब उनसे ये पूछा गया कि क्या मस्जिद के अंदर चल रहे सेवा केंद्र में आने में उन्हें कोई हिचकिचाहट हुई तो उनका जवाब था, ''इसका धर्म से कोई लेना-देना नहीं है. मुझे यहां कोई परेशानी नहीं हुई.''
उत्तर प्रदेश के सहारनपुर स्थित ग्लोकल यूनिवर्सिटी में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर ख़ालिद अनीस अंसारी ये जानकर बहुत ख़ुश हुए कि मस्जिद के अंदर चल रहा सामुदायिक सेवा केंद्र सिर्फ़ मुसलमानों के लिए नहीं बल्कि सभी धर्म के लोगों के लिए काम कर रहा है.
प्रोफ़ेसर अंसारी का कहना था, ''धार्मिक संस्थाओं में भी धीरे-धीरे बदलाव आएगा. ये मुसलमानों और दूसरे धर्म के लोगों के लिए एक बहुत ही सकारात्मक क़दम है. जब दूसरे धर्म के लोग मस्जिद में आते हैं तो मुसलमानों के बारे में उनकी सोच भी बदलेगी. और दूसरे धर्मों के बारे में मुसलमानों की सोच भी बदलेगी.''
लेकिन क्या इसका एनआरसी पर कोई प्रभाव पड़ेगा?
इसके जवाब में प्रोफ़ेसर अंसारी कहते हैं, ''एनआरसी को हिंदू-मुस्लिम मुद्दे की नज़र से नहीं देखा जाना चाहिए. इसे हिंदू-मुस्लिम प्रिज़्म से देखा जाना चाहिए. इससे मुसलमानों के अंदर की संकीर्णता में भी बदलाव आएगा.''