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नज़रिया: 'भागवत और प्रणब के भाषण में समानताएं'

डॉ. प्रणब मुखर्जी के ऐतिहासिक भाषण के बाद, राजनीतिक ओलंपियाड में 'कौन हारा और कौन जीता'? ये सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जिसका आरएसएस प्रतिनिधित्व करता है और कांग्रेस, वामपंथियों और मीडिया और शिक्षा क्षेत्र में उन्हें स्वीकार करने वालों के छद्म धर्मनिरपेक्षता के बीच खिंची बड़ी विभाजन रेखा है. आरएसएस से बहस करने के बजाय वो आरएसएस पर बहस करने लगे

By BBC News हिन्दी
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सात दिनों तक देश को बांधे रखने वाले और भारतीय परिदृश्य के दो महान व्यक्तित्वों डॉ. प्रणब मुखर्जी और डॉ. मोहन भागवत के ऐतिहासिक भाषणों के साथ ख़त्म हुए वैचारिक और राजनीतिक ओलंपियाड में 'कौन हारा और कौन जीता'?

ये प्रश्न इसलिए महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि भारत ने कभी इस तरह की असाधारण बहस और बातचीत नहीं देखी है जिसमें राजनीति के सभी वर्ग, मीडिया, बुद्धिजीवी और यहां तक कि आम लोग भी शामिल रहे हों. इसमें एक मूल सिद्धांत और सवाल शामिल था जो भारतीय राजनीति को सात दशकों से सता रहा है कि क्या धर्मनिरपेक्ष लोगों को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के साथ मंच साझा करना चाहिए कि नहीं.

similarities between mohan bhagwat and pranab mukherjees speech

ये सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जिसका आरएसएस प्रतिनिधित्व करता है और कांग्रेस, वामपंथियों और मीडिया और शिक्षा क्षेत्र में उन्हें स्वीकार करने वालों के छद्म धर्मनिरपेक्षता के बीच खिंची बड़ी विभाजन रेखा है. आरएसएस से बहस करने के बजाय वो आरएसएस पर बहस करने लगे, उसे एक अवैध चीज़ मानने लगे, फ़ासीवादी, सांप्रदायिक और अल्पसंख्यक विरोधी कहने लगे.

संघ की समझ

कोई भी व्यक्ति जिसके पास इन राजनीतिक और बौद्धिक रूप से प्रभावशाली ताक़तों के कम से कम 90 के दशक तक पैदा किए गए बहुतायत साहित्य को पढ़ने में बर्बाद करने लायक समय हो उन्हें आरएसएस की विचारधारा, संस्था और नेतृत्व के बारे में लिखे गए गंदे शब्दों को पढ़कर निराशा ही होगी. इसमें स्वघोषित बुद्धिजीवियों और स्वयं को महत्वपूर्ण समझने वाले फ़र्ज़ियों की बड़ी संख्या है जो आरएसएस के बारे में कुछ भी नहीं जानते.

लेकिन कुछ समझदार आवाज़ें भी थीं जिन्होंने इन्हें बौद्धिक धोखेबाज़ी में लिप्त न होने के प्रति चेताया लेकिन वो ज़्यादातर अनसुनी ही रहीं. पुणे से प्रकाशित होने वाले अंग्रेज़ी अख़बार माहरट्टा में लिखे एक लेख में तत्कालीन संयुक्त प्रांत (यूनाइटेड प्रोविंस) के एक मंत्री रहे बीजी खेर ने भी चेताया था. उन्होंने कहा था, "उन्हें फ़ासीवादी और सांप्रदायिक कहने और बार-बार ये आरोप दोहराने से कोई नतीजा हासिल नहीं होगा."

उन्होंने लोकतंत्र में वैचारिक और राजनीतिक छुआछूत के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई थी और आरएसएस के साथ बातचीत का सुझाव दिया था. लेकिन उपयोगितावाद की राजनीति को ये स्वीकार्य नहीं था. वार्ता की संस्कृति ने तर्क, तथ्यों और सभ्यता को भी पीछे धकेले जाते देखा है. धारणा आधारित वैचारिक और राजनीतिक बहस ने केंद्रीय स्थान हासिल कर लिया. कोई भी लोकतंत्र स्वतंत्र और निष्पक्ष बातचीत के लिए जगह बनाए बिना जीवित नहीं रह सकता. छद्म धर्मनिरपेक्ष कैंप में राजनीतिक उर्वरता और वैचारिक रचनात्कमकता के क्षरण ने उन्हें ध्रुवीकरण, पहचान की राजनीति और द्वी-पक्षीय राजनीति पर निर्भर कर दिया.

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'प्रणब और भागवत के भाषण में समानताएं'

यही वजह है कि सूडो सेक्युलर परिवार (पीएसपी) यानी छद्म-धर्मनिरपेक्ष परिवार को जब पता चला कि आरएसएस के नागपुर कैंप में भाषण देने के न्यौते को प्रणब मुखर्जी ने स्वीकर कर लिया है तो उन्होंने एक अभूतपूर्व अभियान चला दिया. मुखर्जी को आलोचना का सामना करना पड़ा, उन्हें नागपुर न जाने की बिन मांगी सलाहें दी गईं. जब उनकी प्रतिबद्धता दृढ़ रही तो पीएसपी ने अपना रास्ता बदल लिया. फ़ासीवाद केंद्रीय नियंत्रण वाले सार्वजनिक एक्टिविज़्म पर आधारित होता है, वो अपने बुद्धिजीवियों और अनुयायियों को ये बताता है कि क्या बोलना है, कहां बोलना है और कैसे बोलना है.

दुनिया ने दो विश्वयुद्दों में जर्मनी और इटली में ये अशुभ दौर देखा है. मुखर्जी ने वैचारिक और राजनीतिक फासीवाद का सामना किया. उनका भाषण इतिहास के प्रति सम्मान, वर्तमान के प्रति नैतिक कर्तव्य और भावी पीढ़ी के प्रति ज़िम्मेदारियों से भरा था. उनके भाषण से पहले डॉक्टर मोहन भागवत ने अपने ख़ूबसूरत विचार पेश किए और 'आइडिया ऑफ़ इंडिया' जिसका हज़ारों साल का इतिहास और महान भविष्य है पर रोशनी डाली.

आरएसएस और प्रणब मुखर्जी: किससे किसको फायदा

दोनों भाषणों में प्राकृतिक समानताएं थीं और उनमें भारत के वैचारिक और राजनीतिक परिदृश्य के परिवर्तन का मेनिफेस्टो था. दोनों ही भाषणों में ऐसा कोई सूक्ष्म विचार भी नहीं था जो एक दूसरे के विपरीत हो न ही कोई ऐसा शब्द जिस पर विवाद हो सके.

दोनों ही भाषणों में विविधताओं को भारत की आंतरिक सुंदरता और संवाद को लोकतंत्र की आत्मा बताया गया. दोनों ने ही स्वामी विवेकानंद, महर्षि ओरविंदो, लोकमान्य तिलक, बीसी पॉल की विचारों की पुष्टि की और कहा कि भारत का मूल आधार संस्कृति है और उन्होंने तर्क दिया कि संस्कृति विस्तार में यक़ीन रखती है न कि एक जगह जड़ हो जाने में.

सोनिया के दौर की कांग्रेस

आरएसएस में अपने वैचारिक और संगठनात्मक तबके से लोगों को आमंत्रित करने की परंपरा रही है. इससे पहले भारत के पांच राष्ट्रपति या तो अपने कार्यकाल में या कार्यकाल समाप्त होने के बाद आरएसएस के कार्यक्रमों में शामिल हुए हैं. इनमें डॉ. राजेंद्र प्रसाद, सर्वपल्ली राधाकृष्णन डॉ. ज़ाकिर हुसैन, नीलम संजीव रेड्डी और एपीजे अब्दुल कलाम शामिल हैं.

लेकिन जब मुखर्जी ने कार्यक्रम में शामिल होने पर सहमति जता दी तो उसके राजनीतिक सनसनी पैदा करने के कारण हैं. व्यवस्थित तरीके से एक धारणा पैदा की गई है जिसमें सामान्य तौर पर हिंदुत्व और ख़ासतौर पर नरेंद्र मोदी और आरएसएस को नीचा दिखाया जाता रहा है और कहा जाता रहा है कि वो कठोर बहुसंख्यकवाद का प्रतिनिधित्व करते हैं और भारत धर्म-निरपेक्षता को पीछे छोड़ चुका है.

आरएसएस के ख़िलाफ़ भूतकाल और वर्तमान की धारणाओं में फर्क है. नेहरू और इंदिरा गांधी ने आरएसएस का सामना किया और इसे दबाया लेकिन इसे घरेलू राजनीतिक के हिस्से के रूप में सीमित भी किया. लेकिन आज के दौर के वामपंथी उदारवादियों और कांग्रेसियों की पीढ़ी शर्मनाक रूप से अंतरराष्ट्रीय ताक़तों के साथ मिल जाती है, बिना उसके परिणामों को समझे हुए.

कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी के हाथों में आने के बाद से कांग्रेस की प्रकृति में मूल बदलाव आए हैं. उसने अपनी ही परंपराओं और विरासत को नकारा है. कांग्रेस सत्ता के भूखे परिवार की पार्टी बनकर रह गई है और तथाकथित उदारवादी बुद्धिजीवियों ने नस्लवाद और उदारवाद विरोधी उनकी राजनीति पर मुहर लगा दी है.

'छद्म धर्मनिरपेक्षों की वाटरलू जैसी हार'

हालांकि अब वामपंथियों का उतना असर नहीं रह गया है लेकिन उनकी संस्कृति और शिक्षा ने बुद्धिजीवियों का एक ऐसा वर्ग पैदा किया है जो भारत के हिंदू समाज को आपस में लड़ने वाले समूहों में बांटे हुए देखना चाहते हैं और भारत के राष्ट्रीयता को ऐसी उप-राष्ट्रीयताओं में बांटना चाहते हैं जो एक दूसरे को चुनौती दें और प्रतिस्पर्धा करें. उनके राष्ट्रवादी मूल्यों की कमी है और भारत को अल्पसंख्यक-बहुसंख्यक में बांटने की उपनिवेशवाद की विरासत के अपराधी हैं.

पश्चिमी मीडिया और बुद्धिजीवी उनके प्रिय दोस्त हैं जो हिंदुत्व के ख़िलाफ़ एक ख़तरनाक़ गुप्त अभियान चलाए हुए हैं. उनके पास कोई ठोस तर्क नहीं है और वो झूठ, कल्पनाओं, षड्यंत्रों का सहारा लेकर आरएसएस की आलोचना करते हैं.

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के उदय के साथ-साथ पहले से प्रचलित छद्म-धर्मनिरपेक्षता में सुधार और ताक़तवर राष्ट्रवादी सरकार को यूरोप और भारत में उनके नकलची स्वीकार नहीं करेंगे. हाल ही में भारत में वेटिकन शासक और कैथोलिक पोप के दो प्रतिनिधियों (दिल्ली और गोवा के आर्कबिशप) के लिखे दो पत्र पश्चिमी कैंप में जो डर पैदा हुआ है उसकी पुष्टि करते हैं.

इस मोड़ पर विनम्र और निर्भीक प्रणब मुखर्जी ने संवाद की संस्कृति को पुनर्जीवित करने के महत्व को स्वीकारा है और उनका फैसला छद्म धर्मनिरपेक्ष कैंप के अभियान में छेद साबित हुआ है.

भागवत और मुखर्जी की आरएसएस मुख्यालय में मुलाक़ात और उनकी आपसी बातचीत ने वैचारिक छुआछूत, चापालूसी और धारणाओं पर आधारित षड्यंत्रवादी राजनीति में पंचर कर दिया है.

अंत में लोकतंत्र जीत गया और छद्म धर्मनिरपेक्षों की वाटरलू जैसी हार हुई. आरएसएस की अजेयता और उसक वैचारिक मिशन को राजनीतिक चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए भारत का सभ्यतावादी और सांस्कृतिक महत्वाकांक्षाओं, वर्तमान की चुनौतियों और इतिहास की विरासत के नज़रिए से देखा जाना चाहिए. वैचारिक लड़ाई अब वाद-विवाद को पीछे छोड़कतर मूल मुद्दों पर आएगी और छद्म धर्मनिरपेक्ष परिवार टूटेगा और पीछे हटेगा.

(ये लेखक के निजी विचार हैं )

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English summary
similarities between mohan bhagwat and pranab mukherjee's speech
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