प्रियंका गांधी भी देंगी इस्तीफा? ज्योतिरादित्य सिंधिया के फैसले से बढ़ा दबाव
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नई दिल्ली- राहुल गांधी के बाद कांग्रेस में उनका उत्तराधिकारी कौन होगा, इस संकट का हल निकल भी नहीं पाया है कि अब प्रियंका गांधी वाड्रा के महासचिव पद पर बने रहने को लेकर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी देने के बाद भी कांग्रेस का प्रदर्शन वहां 2014 से भी खराब रहा। इसलिए सवाल उठाए जा रहे हैं कि जब कांग्रेस की करारी हार की जिम्मेदारी लेकर ज्योतिरादित्य सिंधिया महासचिव का पद छोड़ सकते हैं, तो प्रियंका कैसे बच सकती हैं। खास बात ये है कि जब राहुल गांधी ने यही संकेत देकर अध्यक्ष पद छोड़ा है कि अब संगठन पर उनके परिवार का कोई दबदबा नहीं रहेगा, तो फिर क्या प्रियंका के लिए अब अपना पद बचाए रखना आसान होगा? सबसे बड़ी बात ये है कि खुद उन्होंने ही राहुल गांधी के फैसले को बहुत ही साहसी कदम बताया था, तब वो खुद ऐसा करने से अपने आपको कैसे बचा सकती हैं?
दोनों को मिली थी एक तरह की जिम्मेदारी
लोकसभा चुनाव से पहले राहुल गांधी ने अपनी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा और ज्योतिरादित्य सिंधिया को एकसाथ उत्तर प्रदेश की जिम्मेदारी सौंपी थी। उन्हें उम्मीद थी कि दोनों युवा चेहरे वहां पार्टी के संगठन को जगाएंगे और उनके कारण कार्यकर्ताओं में नया जोश पैदा होगा। प्रियंका गांधी वाड्रा के कंधों पर पूर्वी उत्तर प्रदेश और सिंधिया पर पश्चिमी यूपी की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। इस तरह से प्रियंका के पास यूपी की 80 में से 42 सीटों की जिम्मेदारी थी और सिंधिया के पास 38 सीटों की जिम्मेदारी थी। लेकिन, सिंधिया की देखरेख में कांग्रेस सिर्फ सहारनपुर में विवादित नेता इमरान मसूद की लोकसभा सीट में ही जमानत बचा सकी। इसलिए चुनाव नतीजे आने के लगभग डेढ़ महीने बाद ही सही सिंधिया ने पार्टी की हार की जिम्मेदारी लेते हुए महासचिव पद छोड़ दिया है। ऐसे में प्रियंका पर भी इस्तीफे का नैतिक दबाव बढ़ना स्वाभिवक है।
फिसड्डी रहा प्रियंका का परफॉर्मेंस
वैसे तो प्रियंका गांधी का दबदबा पूरे देश में कांग्रेस संगठन पर था, लेकिन पार्टी ने उन्हें मूल रूप से पूर्वी यूपी में बेहतर प्रदर्शन का जिम्मा सौंपा था। जाहिर है कि उम्मीदवार तय करने से लेकर हर छोटे-बड़े फैसलों में उनका सीधा दखल रहा। चुनाव के दौरान उन्होंने उम्मीदवारों को उतारने की एक रणनीति (वोट कटवा) का भी जिक्र किया था, जिसके चलते उनकी बड़ी फजीहत भी हुई थी। तथ्य ये है कि इसबार उस इलाके में कांग्रेस का परफॉर्मेंस लगभग उतना ही बुरा रहा, जैसा कि इमरजेंसी के बाद वाले चुनाव में हुआ था। कांग्रेस को सिर्फ रायबरेली में जीत मिली और पार्टी किसी तरह से महज अमेठी और कानपुर में श्रीप्रकाश जायसवाल वाली सीट पर अपनी जमानत बचा पायी। सबसे शर्मनाक हार तो कांग्रेस की दुर्ग कही जाने वाली अमेठी सीट पर हुई, जहां वो अपने भाई और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की सीट भी बचा न सकीं। जबकि, यहां तो उनकी जिम्मेदारी और ज्यादा बनती थी, क्योंकि जब वो पार्टी में औपचारिक रूप से सक्रिय नहीं थीं और न ही उनके पास कोई पद था, तब भी अमेठी और रायबरेली में वो सीधा दखल देती थीं। इस चुनाव क्षेत्र को वो एक तरह से 2004 से ही संभाल रही थीं, जब राहुल पहलीबार वहां चुनाव लड़ने पहुंचे थे। कांग्रेस ने ये सीट इससे पहले सिर्फ 1977 में गंवाई थी, जब भारतीय लोकदल के रवींद्र प्रताप सिंह ने राहुल के चाचा संजय गांधी को शिकस्त दी थी।
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प्रियंका को जवाब देना होगा मुश्किल
सिंधिया के इस्तीफे के चलते प्रियंका पर दबाव बढ़ना इसलिए भी लाजिमी है कि दोनों पार्टी दफ्तर में एक ही कमरे में एकसाथ ही रणनीतियां बनाते रहे हैं। सिंधिया को संसद में राहुल की मदद करते देखा जाता था, तो प्रियंका के लिए भी फैसलों में उनकी राय की अहमियत होती थी। यूपी में चुनाव अभियान की शुरुआत भी दोनों नेताओं ने एक साथ ही की थी। इसलिए अगर सिंधिया ने पश्चिमी यूपी के प्रभारी के तौर पर अपनी जिम्मीदारी समझते हुए अपना पद छोड़ने का फैसला किया है, तो पूर्वी यूपी की प्रभारी प्रियंका को किस दलील से बचाया जा सकता है? वैसे, प्रियंका महासचिव पद को टाटा कहेंगी कि नहीं ये उनपर निर्भर है, लेकिन वह अब कांग्रेस सर्किल से बाहर कहीं भी जाएंगी, तो उनसे इस सवाल पर जवाब मांगा जाना तो तय ही लग रहा है। एक बात ये भी है कि हो सकता है कि सिंधिया ने इस्तीफा देने से पहले इस बात पर विचार नहीं किया कि उनके बाद प्रियंका की ही उलझन बढ़ने वाली है। क्योंकि, अगर उन्होंने ऐसा सोचा होता, तो शायद इसपर गौर फरमाना भी नहीं भूलते।
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