फूलपुर उपचुनाव: नेहरू से अतीक और मौर्य तक
फूलपुर संसदीय सीट पर न तो पहली बार कथित तौर पर अनजान और बाहरी उम्मीदवार चुनावी मैदान में हैं और न ही पहली बार यहां उपचुनाव हो रहा है.
दरअसल, आज़ादी के बाद से ही ये संसदीय सीट न सिर्फ़ प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का संसदीय क्षेत्र रहा, बल्कि यहां से तमाम दिग्गजों ने चुनाव लड़ा है. इनमें से कई दिग्गज जीते भी हैं, हारे भी हैं और कुछ की ज़मानत भी ज़ब्त हुई है.
फूलपुर संसदीय सीट पर न तो पहली बार कथित तौर पर अनजान और बाहरी उम्मीदवार चुनावी मैदान में हैं और न ही पहली बार यहां उपचुनाव हो रहा है.
दरअसल, आज़ादी के बाद से ही ये संसदीय सीट न सिर्फ़ प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का संसदीय क्षेत्र रहा, बल्कि यहां से तमाम दिग्गजों ने चुनाव लड़ा है. इनमें से कई दिग्गज जीते भी हैं, हारे भी हैं और कुछ की ज़मानत भी ज़ब्त हुई है.
फ़िलहाल ये सीट उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के इस्तीफ़े से खाली हुई है और भारतीय जनता पार्टी ने मिर्ज़ापुर के रहने वाले और वाराणसी के मेयर रहे कौशलेंद्र पटेल को मैदान में उतारा है.
कौशलेंद्र पटेल को लोग बाहरी उम्मीदवार बता रहे हैं, जबकि सपा ने नागेंद्र पटेल को टिकट दिया है. नागेंद्र पटेल हैं तो यहीं के, लेकिन एक राजनीतिक व्यक्ति के तौर पर अब तक उनकी पहचान बहुत ज़्यादा नहीं थी. वहीं कांग्रेस ने भी एक नए चेहरे मनीष मिश्र को उम्मीदवार बनाया है.
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साल 2014 में केशव प्रसाद मौर्य जब यहां से जीते थे, तो न सिर्फ़ ये उनके लिए बल्कि उनकी पार्टी के लिए भी अप्रत्याशित था. केशव मौर्य ने तीन लाख़ से भी ज़्यादा वोटों से जीत हासिल की थी और इस सीट पर भारतीय जनता पार्टी ने पहली बार जीत का स्वाद चखा था.
हालांकि विधानसभा के तौर पर फूलपुर का गठन पहली बार 2012 में ही हुआ. इससे पहले इस विधानसभा का कुछ क्षेत्र प्रतापपुर तो कुछ झूंसी विधानसभा क्षेत्र में आता था. अब झूंसी विधानसभा को ख़त्म करके और प्रतापपुर के कुछ हिस्सों को मिलाकर फूलपुर के नाम से नई विधानसभा बनाई गई है. लेकिन संसदीय सीट के तौर पर ये 1952 से ही इसी नाम से है.
देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने 1952 में पहली लोकसभा में पहुंचने के लिए इसी सीट को चुना और लगातार तीन बार 1952, 1957 और 1962 में उन्होंने यहां से जीत दर्ज कराई थी. फूलपुर क़स्बे के रहने वाले रिटायर्ड अध्यापक पीएन पांडेय बताते हैं कि नेहरू के चुनाव लड़ने के कारण ही इस सीट को 'वीआईपी सीट' का दर्जा मिला.
आम आदमी थे नेहरू
पांडेय आगे बताते हैं, "नेहरू पूरी दुनिया में भले ही वीआईपी रहे हों, यहां के लोगों के लिए आम आदमी थे. उस समय सुरक्षा का ऐसा ताम-झाम नहीं था. प्रधानमंत्री होने के बावजूद उनकी इतनी घेराबंदी नहीं रहती थी कि उनसे कोई मिल न सके. यहां तक कि कई लोगों को नेहरू जी ख़ुद नाम से जानते थे और अक़्सर कुछ लोगों के यहां रुकते भी थे."
यूं तो फूलपुर से जवाहर लाल नेहरू का कोई ख़ास विरोध नहीं होता था और वो आसानी से चुनाव जीत जाते थे लेकिन उनके विजय रथ को रोकने के लिए 1962 में प्रख्यात समाजवादी नेता डॉक्टर राममनोहर लोहिया ख़ुद फूलपुर सीट से चुनाव मैदान में उतरे, लेकिन हार गए.
इलाहाबाद के कांग्रेस नेता और विश्वविद्यालय में छात्र नेता रहे अभय अवस्थी बताते हैं, "लोहिया जी नेहरू का विरोध करने के लिए ये जानते हुए भी यहां से चुनाव लड़े कि हार जाएंगे. और हुआ भी यही. लेकिन नेहरू ने उन्हें राज्यसभा पहुंचाने में मदद की क्योंकि नेहरू का मानना था कि लोहिया जैसे आलोचक का संसद में होना बेहद ज़रूरी है."
कांग्रेस की विरासत
नेहरू के निधन के बाद इस सीट की ज़िम्मेदारी उनकी बहन विजय लक्ष्मी पंडित ने संभाली और उन्होंने 1967 के चुनाव में सोशलिस्ट पार्टी के जनेश्वर मिश्र को हराकर नेहरू और कांग्रेस की विरासत को आगे बढ़ाया.
लेकिन 1969 में विजय लक्ष्मी पंडित ने संयुक्त राष्ट्र में प्रतिनिधि बनने के बाद इस्तीफ़ा दे दिया. यहां हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने नेहरू के सहयोगी केशवदेव मालवीय को उतारा, लेकिन संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर जनेश्वर मिश्र ने उन्हें पराजित कर दिया. इसके बाद 1971 में यहां से पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस के टिकट पर निर्वाचित हुए.
आपातकाल
आपातकाल के दौर में 1977 में हुए आम चुनाव में कांग्रेस ने यहां से रामपूजन पटेल को टिकट दिया लेकिन जनता पार्टी की उम्मीदवार कमला बहुगुणा ने यहां से जीत हासिल की.
ये अलग बात है कि बाद में कमला बहुगुणा ख़ुद कांग्रेस में शामिल हो गईं. कमला बहुगुणा पूर्व मुख्यमंत्री हेमवती नंदन बहुगुणा की पत्नी और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और वर्तमान में उत्तर प्रदेश की पर्यटन मंत्री रीता बहुगुणा जोशी की माँ थीं.
आपातकाल के बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी जनता पार्टी की सरकार पांच साल नहीं चली और 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए तो इस सीट से लोकदल के उम्मीदवार प्रोफ़ेसर बीडी सिंह ने जीत दर्ज की. 1984 में हुए चुनाव कांग्रेस के रामपूजन पटेल ने जीत दर्ज कर एक बार फिर इस सीट को कांग्रेस के हवाले किया.
अतीक़ अहमद का दबदबा
लेकिन कांग्रेस से जीतने के बाद रामपूजन पटेल जनता दल में शामिल हो गए. 1989 और 1991 का चुनाव रामपूजन पटेल ने जनता दल के टिकट पर ही जीता. पंडित नेहरू के बाद इस सीट पर लगातार तीन बार यानी हैट्रिक लगाने का रिकॉर्ड रामपूजन पटेल ने ही बनाया.
1996 से 2004 के बीच हुए चार लोकसभा चुनावों में यहां से समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार जीतते रहे. 2004 में कथित तौर पर बाहुबली की छवि वाले अतीक अहमद यहां से सांसद चुने गए.
वरिष्ठ पत्रकार योगेश मिश्र कहते हैं, "1989 के बाद देश भर में चली जनता दल की लहर का असर इस सीट पर भी पड़ा. चूंकि कांग्रेस के ख़िलाफ़ माहौल बनाने वाले वीपी सिंह न सिर्फ़ इलाहाबाद के ही रहने वाले थे बल्कि फूलपुर से ही वो सांसद भी रह चुके थे, इसलिए यहां उनका ख़ास असर रहा और कांग्रेस की पराजय हुई."
पहले इस क्षेत्र में ज़्यादातर इलाहाबाद का ग्रामीण इलाक़ा ही आता था लेकिन परिसीमन के बाद इलाहाबाद शहर की दो विधानसभाएं भी इसमें शामिल कर ली गईं. अतीक अहमद के बाद 2009 में पहली बार इस सीट पर बहुजन समाज पार्टी ने भी जीत हासिल की. जबकि बीएसपी के संस्थापक कांशीराम यहां से ख़ुद चुनाव हार चुके थे.
रामलहर भी नहीं चली थी
यही नहीं, कुर्मी बहुल इस सीट पर अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल भी दो बार क़िस्मत आज़मा चुके हैं. 1996 के लोकसभा चुनाव में उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई जबकि 1998 में वो ज़मानत तो बचाने में क़ामयाब रहे लेकिन जीत से कोसों दूर रहे.
लेकिन दिलचस्प बात ये है कि 2009 तक तमाम कोशिशों और समीकरणों के बावजूद भारतीय जनता पार्टी इस सीट पर जीत हासिल करने में नाकाम रही. योगेश मिश्र बताते हैं, "इस सीट पर मंडल का असर तो पड़ा लेकिन कमंडल का असर नहीं हुआ था. राम लहर में भी यहां से बीजेपी जीत हासिल नहीं कर सकी. जीत तो छोड़िए कई बार तो उसे तीसरे या चौथे नंबर पर ही संतोष करना पड़ा."
लेकिन आख़िरकार 2014 में यहां की जनता ने जैसे बीजेपी के भी अरमान पूरे कर दिए. यहां से केशव प्रसाद मौर्य ने बीएसपी के मौजूदा सांसद कपिलमुनि करवरिया को तीन लाख से भी ज़्यादा वोटों से हराया. बीजेपी के लिए ये जीत इतनी अहम थी कि पार्टी ने केशव प्रसाद मौर्य को इनाम स्वरूप प्रदेश अध्यक्ष भी बना दिया.
इतने बड़े नेताओं की कर्मस्थली रहने के बावजूद यदि देखा जाए तो फूलपुर में विकास के नाम पर सिर्फ़ इफ़को की यूरिया फ़ैक्ट्री भर है. हालांकि शिक्षा के नाम पर यहां के कुछेक इंटर कॉलेज गुणवत्ता के लिए राज्य भर में काफी मशहूर रहे लेकिन उनकी भी स्थिति दिनोंदिन बिगड़ती गई.
इन सबके बावजूद यहां के निवासियों को इस संसदीय क्षेत्र के गौरवशाली इतिहास पर गर्व है.
बाबूगंज गांव के एक युवा दिनेश कुमार कहते हैं, "फूलपुर सीट न सिर्फ़ बड़े नेताओं को जिताने के लिए बल्कि कई दिग्गजों को धूल चटाने के लिए भी मशहूर है. चाहे वो लोहिया हों, छोटे लोहिया (जनेश्वर मिश्र) हों या फिर कई और."
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