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पाकिस्तान के इतिहास में नहीं है जलियाँवाला बाग़ का हवाला

यह नहीं माना जा सकता कि जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड स्वतंत्रता आंदोलन में एक मोड़ नहीं है और ना ही पाकिस्तान बनने के आंदोलन का हिस्सा. यह मान्यता बिल्कुल बेतुकी है कि जलियांवाला बाग कांड का उल्लेख पश्चिम पंजाब (पाकिस्तान) में किसी नज़रिये या सोच में बदलाव का कारण हो सकता है.

हक़ीक़त यह है कि आज़ादी की लड़ाई में जिन लोगों ने शिरकत की और वो सभी जो इस संघर्ष में 

By BBC News हिन्दी
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यह नहीं माना जा सकता कि जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड स्वतंत्रता आंदोलन में एक मोड़ नहीं है और ना ही पाकिस्तान बनने के आंदोलन का हिस्सा. यह मान्यता बिल्कुल बेतुकी है कि जलियांवाला बाग कांड का उल्लेख पश्चिम पंजाब (पाकिस्तान) में किसी नज़रिये या सोच में बदलाव का कारण हो सकता है.

हक़ीक़त यह है कि आज़ादी की लड़ाई में जिन लोगों ने शिरकत की और वो सभी जो इस संघर्ष में शहीद हुए, ना तो पाकिस्तान बनने के आंदोलन के विरोधी थे और न ही 'टू नेशन थ्योरी' के नज़रिये को कोई नुकसान पहुंचा सकते थे.

यह कहना ग़लत नहीं होगा कि पाकिस्तान बनने के आंदोलन के पनपने में जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड का भी हिस्सा है और इस देश की नींव में उन शहीदों का भी ख़ून है.

बिना किसी चेतावनी के गोलियां चलवाईं थीं डायर ने

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'अमृतसर का कसाई'

बैसाखी के दिन 13 अप्रैल 1919 को जलियाँवाला बाग़ में रॉलेट एक्ट के विरोध प्रदर्शन की सभा में आए हज़ारों निहत्थे लोगों पर गोली चलाने का आदेश जनरल डायर ने दिया था.

इस नृशंस हत्याकांड में बड़ी संख्या में सिख, हिंदू और मुसलमान मारे गए और उन्हें पंजाब की धरती को आज़ाद करवाने के लिए चल रहे आंदोलन का शहीद माना गया.

जनरल डायर को इतिहास का सबसे बड़ा जालिम और कातिल बताते हुए उन्हें 'अमृतसर के कसाई' का नाम दिया गया.

ब्रिटिश राज से आज़ादी के लिए पंजाब के हर मजहब के लोगों ने साथ मिलकर संघर्ष किया जो 1857 से जारी था. पहले विश्व युद्ध के खत्म होने के बाद आज़ादी के लिए हो रहे सघर्ष तेज़ हो गए. अंग्रेज़ हुकूमत के ख़िलाफ़ स्थानीय स्तर पर और खास कर अमृतसर, लाहौर, कसूर, और गुजरांवाले में लोगों ने आज़ादी के समर्थन में आवाज़ें बुलंद कीं.

ब्रिटिश नीतियों और क़ानून के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शनों में तेज़ी आने लगी. इसी गंभीर सूरतेहाल को सामने रखते हुए रॉलेट एक्ट लाया गया जिसके तहत हुकूमत के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करने और बागियों को तुरंत गिरफ़्तार कर जेल में बंद करने का आदेश दिया गया.

जलियाँवाला बाग़ कांड: कब क्या हुआ?

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डायर की गोलियों ने ख़ून का रंग नहीं पूछा

इस काले क़ानून के ख़िलाफ़ हिंदू, सिख और मुसलमान इकट्ठे होकर विरोध के मंसूबे बना रहे थे. ब्रिटिश सरकार की खुफिया जानकारी और विश्वस्त सूत्रों की मुखबिरी के चलते उस सभा के नेताओं सैफुद्दीन किचलू और सत्यपाल को 10 अप्रैल 1919 को गिरफ़्तार कर लिया गया.

13 अप्रैल 1919 की सभा का दूसरा मुद्दा इन नेताओं की रिहाई की मांग होने वाला था. इस सभा के इंतजाम की जिम्मेवारी डॉक्टर मोहम्मद बशीर की थी. इस सभा ने मुसलमानों, हिंदुओं और सिखों को एक मंच पर इकट्ठा करके साबित कर दिया कि आज़ादी की लड़ाई में सबका साथ है.

फिर जलियाँवाला बाग़ के अंदर जो हज़ारों लोगों का ख़ून बहा उसका रंग एक ही था— वह ख़ून हिंदू, सिख या मुसलमान नहीं था— ना ही जनरल डायर ने गोली चलाने से पहले पूछा कि कौन हिंदू है, कौन मुसलमान और कौन सिख है?

इस हत्याकांड में शहीदों के ख़ून का रंग ऐसा चढ़ा कि पूरे देश में आज़ादी की आवाज़ें और तेज़ हो गईं. गुजरांवाला, कसूर और लाहौर में इस हत्याकांड के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन होने लगे, जिन्हें रोकने के लिए हवाई जहाज से बम फेंके गए, तोपों का इस्तेमाल किया गया और फांसियां दी गईं.

फिर भी आज़ादी के लिए निडर स्वतंत्रता सेनानी लड़ते रहे. अलग-अलग आंदोलन चलते रहे. धार्मिक और राजनीतिक दल अपने-अपने तरीके से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहे, लेकिन जलियाँवाला बाग़ के शहीदों के ख्वाब पूरे करने के लिए सभी एकजुट थे.

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जालियांवाला को कभी याद नहीं किया गया

जलियाँवाला बाग़ की इस घटना ने हिंन्दुस्तान की आज़ादी की नींव मजबूत कर दी और 1947 में, हिंदुस्तान और पाकिस्तान के रूप में, आज़ादी मिल गई.

इस घटना के 42 साल और ब्रिटिश शासन से स्वतंत्रता के 14 साल बाद, 1961 में जलियाँवाला बाग़ में शहीदों के लिए एक स्मारक का निर्माण किया गया.

लेकिन आज तक पश्चिम पंजाब या पूरे पाकिस्तान में सरकार की तरफ से जलियाँवाला बाग़ के शहीदों और आज़ादी के संघर्ष में शामिल स्वतंत्रतता सेनानियों को कभी याद नहीं किया गया, ना ही कोई कार्यक्रम या योजना बनाई गई और ना ही सेमिनार ही आयोजित किया गया.

बस एक आम सा विचार सामने आता है कि अमृतसर तो भारत में है और बैसाखी सिखों का धार्मिक त्योहार है. बड़े-बड़े मुसलमान नेता इस वाकये पर खामोश रहे. मुस्लिम लीग ने राजनीतिक दल के तौर पर ना तो इसकी कोई हिमायत की और ना ही उन्होंने इस हत्याकांड के बाद कोई विरोध प्रदर्शन किया. पाकिस्तान के लिए दो 'टू नेशन थ्योरी का नज़रिया' ही सब कुछ हो गया जिसका इस हत्याकांड की इस नज़रिये के साथ कोई मेल नहीं है.

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जालियांवाला स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा नहीं

पाकिस्तान का इतिहास, इस हत्याकांड के कहीं बाद में शुरू हुआ पर इससे पहले ब्रिटिश राज की गुलामी से आज़ादी हासिल करने के लिए आंदोलन चल रहे थे जिनका प्रेरणास्रोत जलियाँवाला बाग़ ही था.

मुसलमान नेताओं के अली बंधु (मौलाना मोहम्मद अली जौहर, मौलाना शौकत) और अन्य प्रमुख नेताओं की कोशिशों से पाकिस्तान बना पर ये सभी जलियाँवाला बाग़ के शहीदों के पक्ष में भी खड़े हुए थे. इन्होंने ब्रिटिश हुकूमत के अत्याचारों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन किए थे और इनके नाम पाकिस्तान बनाने वालों की सूची में भी शामिल हैं.

जो लोग अपनी धरती को आज़ाद करवाने के लिए अपने प्राणों की आहूति दे गए उनको याद भी नहीं किया जाता है. उनकी कुर्बानियों को धार्मिक, वैचारिक और राजनीतिक सवालिया निशान लगाकर इतिहास से बाहर कर दिया जाता है.

जलियाँवाला बाग़ का हवाला पाकिस्तान के इतिहास में नहीं मिलता और ना ही इस हत्याकांड के बारे में स्कूलों और कॉलेजों में पढ़ाया जाता है. पाकिस्तान में कुछ हद तक सांस्कृतिक क्षेत्र में लेखकों के संगठनों में और बुद्धिजीवियों के विमर्श में जलियाँवाला बाग़ का हवाला ज़रूर आता है.

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इक़बाल भी जलियाँवाला बाग़ कांड पर चुप रहे

कहानीकार सआदत हसन मंटो ने कुछ अफसाने जालियांवाले बाग के हत्याकांड के बारे में लिखे, जिसके जरिए उन स्वतंत्रता सेनानियों को लगातार याद किया गया.

पाकिस्तान टेलीविजन के मशहूर प्रेजेंटर हुसैन तारड़ ने 13 अप्रैल 2016 को नई बात जर्नल में 'मेरा नाटक जलियाँवाला बाग़ जो पाकिस्तान का इतिहास भी है' के विषय पर उस हत्याकांड का जिक्र किया, 'जलियाँवाला बाग़ के अंदर पंजाब के निहत्थे लोगों पर गोलियां बरसाई गईं और आज़ादी के मतवालों ने पंजाब की धरती के लिए अपनी कुर्बानियां दीं पर उनकी कुर्बानियों को पाकिस्तान के इतिहास में कोई जगह नहीं दी गई. किसी भी सरकारी विभाग ने उनकी कुर्बानियों के बारे में कोई काम नहीं करने दिया.'

उन्होंने पाकिस्तान टेलीविजन की नीतियों के बारे में साफ़-साफ़ लिखा है कि जलियाँवाला बाग़ का पाकिस्तान के इतिहास से कोई संबंध नहीं है, इसी कारण 'जलियाँवाला बाग़ नाटक' पीटीवी पर नहीं चल सकता.

एजाज मीर ने 19 मार्च 2014 को अपने एक लेख 'इक़बाल का आफाकी पैगाम और तक्सीम-ए-हिंद' में जलियाँवाला बाग़ के हत्याकांड का जिक्र किया और यह भी लिखा कि पाकिस्तान के राष्ट्रीय शायर अल्लामा इक़बाल भी इस घटना पर चुप रहे.

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शताब्दी वर्ष में पाकिस्तान से उम्मीद है...

अख़बार जंग में 12 अगस्त 2013 को 'आइये तहरीके आज़ादी के एक हीरो को याद करते हैं' के विषय पर शाहिद जतोई ने ऊधम सिंह और जालियावाला बाग के शहीदों को पाकिस्तान में क्वेटा के सिविल अस्पताल पर हुए आतंकवादी हमले में मरने वाले बेगुनाह लोगों के साथ जोड़ा.

13 अप्रैल 2017 को इस हत्याकांड पर तनवीर जहां ने 'जलियाँवाला बाग़ पर क्या गुजरी' नाम से लेख 'हम सब' में लिखा. शीन शौकत ने 23 मार्च 2018 को जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड पर जानकारी से लबरेज एक लेख 'मशरीक़' में लिखा.

इसके अलावा पाकिस्तान के अन्य अख़बारों और पत्रिकाओं में जलियाँवाला बाग़ के बारे में लेख छप चुके हैं जिसमें ना सिर्फ उस हत्याकांड को याद किया गया बल्कि उसे जालिम और ताक़तवर हुक्मरानों के ख़िलाफ़ जी जान से लड़ने वालों की मिसाल के तौर पर भी पेश किया जाता है.

मार्च 2018 में कराची में 'हवा कुछ यूं' के नाम से एक नाटक प्रस्तुत किया गया. जिसके लेखक प्रसिद्ध अभिनेता साजिद हसन हैं. इस नाटक में जलियाँवाला बाग़ का मंजर पेश किया गया है. इस नाटक की खूब चर्चा है और आने वाले दिनों में यह पाकिस्तान के अन्य शहरों में भी प्रस्तुत किया जाएगा.

आज के दौर में सोशल मीडिया एक अहम माध्यम है जिसके जरिए पाकिस्तान के लोगों तक जलियाँवाला बाग़ की ऐतिहासिक सच्चाई पहुंच सकती है और इसे मानने के लिए सरकार को भी मजबूर किया जा सकता है.

अगले साल यानी 2019 में जलियाँवाला बाग़ का शताब्दी वर्ष है और पाकिस्तान की सरकार (खास तौर पर पंजाब की राज्य सरकार) से यह उम्मीद है कि जलियाँवाला बाग़ के शहीदों को सरकारी तौर पर याद किया जाएगा.

BBC Hindi
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English summary
Pakistans history is not mentioned in Jallianwala Bagh
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