Bihar Elections: नीतीश को गुस्सा क्यों आ रहा है ? कहीं चक्रव्यूह में तो नहीं फंस गए हैं कुमार ?
पटना। नीतीश कुमार की सबसे बड़ी खासियत रही है कि उन्हें गुस्सा नहीं आता। कभी अपने विरोधियों के बारे में ज्यादा बात नहीं करते। यहां तक कि वे नाम भी नहीं लेते लेकिन इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में नीतीश बदले-बदले नजर आ रहे हैं। पिछले सप्ताह कई घटनाएं ऐसी कैमरे में दर्ज हुई जिनमें नीतीश कुमार अपने आपा खोते नजर आए जिसे लेकर सवाल उठने लगे हैं कि कहीं न कहीं नीतीश इस बार असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।
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पिछले हफ्ते सारण की वो रैली याद कीजिए जब नीतीश कुमार लालू के सहयोगी से समधी और अब विरोधी बने चंद्रिका राय के लिए जनसभा करने पहुंचे थे। नीतीश जब भाषण दे रहे थे इसी दौरान भीड़ में से कुछ लोगों ने 'लालू जिंदाबाद' के नारे लगाने शुरू कर दिए। जिस पर नीतीश बोल पड़े "वोट नहीं देना है तो मत दो लेकिन यहां से चले जाओ।"
ये तो भीड़ के बयान की प्रतिक्रिया थी लेकिन इस चुनाव में नीतीश की जुबान से ऐसी बातें निकलीं जो उनसे उम्मीद नहीं की जाती थी। वैशाली के महनार में आयोजित रैली में आरजेडी के बहाने वह लालू पर व्यक्तिगत हमलावर हो गए। नीतीश ने कह दिया कि "लोग बेटे के लिए नौ-नौ बच्चा पैदा करता है। कई बेटियां हो गईं तब बेटा पैदा हुआ। यही लोग आदर्श हैं तो बिहार का क्या हाल होगा ?" स्पष्ट रूप से नीतीश का निशाना लालू प्रसाद के बच्चों पर था लेकिन सवाल वही है कि नीतीश को आखिर ऐसे बयान देने की जरूरत क्यों पड़ रही है ?
नीतीश
को
गुस्सा
क्यों
आया
?
नीतीश
के
गुस्से
में
आने
का
राजनीतिक
मतलब
तो
यही
निकाला
जा
रहा
है
कि
तीन
बार
से
लगातार
सत्ता
की
बागडोर
में
हाथ
रखने
वाले
नीतीश
कुमार
के
नीचे
से
जमीन
अब
खिसक
रही
है।
आखिर
क्या
वजह
है
कि
जो
व्यक्ति
15
साल
से
बिहार
की
गद्दी
को
नियंत्रित
किए
हुए
है
जिसने
अपना
व्यक्तित्व
ऐसा
बनाया
कि
किसी
भी
पार्टी
से
गठबंधन
हो
जनता
ने
नीतीश
के
चेहरे
पर
वोट
किया
आज
उसे
इस
तरह
की
भाषा
का
इस्तेमाल
करना
पड़
रहा
है।
जानकार
कहते
हैं
कि
नीतीश
को
लगातार
चौथी
बार
बिहार
की
सत्ता
की
राह
मुश्किल
नजर
आ
रही
है।
यही
वजह
है
कि
उन्हें
गुस्सा
आ
रहा
है।
वैसे तो नीतीश छह बार मुख्यमंत्री पद की शपथ ले चुके हैं लेकिन बिहार विधानसभा के 5 साल के कार्यकाल को देखा जाए तो वो इस बार लगातार चौथी बार के लिए सत्ता के लिए दांव लगा रहे हैं। इस दौरान उन्होंने थोड़े समय के लिए जीतनराम मांझी को सीएम बनाया था लेकिन तब भी सत्ता की डोर नीतीश के हाथ में ही थी। वैसे राजनीति में कब समय का पहिया घूमकर आपको कहां पहुंचा दे कहा नहीं जा सकता। कभी यही नीतीश थे जिन्होंने 2009 के लोकसभा चुनाव में गुजरात के सीएम नीतीश कुमार को बिहार में प्रचार के लिए नहीं आने दिया था जबकि उस समय वह एनडीए का ही हिस्सा थे। इस बार बहुत कुछ बदला है। सासाराम की रैली में लगे पोस्टर में नीतीश की अपेक्षा पीएम मोदी का बड़ा पोस्टर लगाया गया था।
बिहार के अखबारों में भाजपा द्वारा दिए गए पिछले दिनों के विज्ञापनों से भी नीतीश गायब हैं। भाजपा के विज्ञापनों में एनडीए को वोट देने की अपील तो की जा रही है लेकिन तस्वीर केवल प्रधानमंत्री मोदी की ही लगाई जा रही है। इस पर बिहार में ये सवाल उठ रहे हैं कि क्या भाजपा बिहार में नीतीश को अपना नेता नहीं मान रही है। आखिर बिहार के सीएम पद का चेहरा बीजेपी के पोस्टरों से गायब क्यों है ?
एंटी
इनकंबेंसी
का
असर
नीतीश
कुमार
लगातार
तीन
बार
से
सत्ता
में
बने
हुए
हैं।
लोगों
का
कहना
है
कि
इस
दौरान
बिजली,
सड़क
और
पानी
के
मुद्दे
पर
काम
हुआ
लेकिन
रोजगार
का
मुद्दा
अभी
भी
बना
हुआ
है।
इस
चुनाव
में
रोजगार
ही
प्रमुख
मुद्दा
बनकर
सामने
आया।
वजह
है
कि
विपक्षी
नेता
तेजस्वी
यादव
इसे
बार-बार
हर
रैली
में
उठा
रहे
हैं।
तेजस्वी
कहते
हैं
कि
नीतीश
कुमार
15
साल
से
सत्ता
में
है
आखिर
रोजगार
कहां
हैं,
कब
तक
बिहार
के
लोग
पलायन
करते
रहेंगे
?
तेजस्वी
की
रैलियों
में
उमड़
रही
भीड़
ये
बताती
है
कि
शायद
उनकी
बात
लोगों
तक
असर
भी
कर
रही
है।
तेजस्वी
ने
10
लाख
नौकरी
देने
की
बात
करके
इस
रोजगार
के
मुद्दे
को
चुनाव
में
गरम
कर
दिया
है।
एनडीए
को
भी
जवाब
में
19
लाख
रोजगार
की
बात
करनी
पड़ी
लेकिन
कहते
हैं
कि
पहली
चाल
जो
चलता
है
वही
आगे
निकलता
है।
एलजेपी
फैक्टर
कर
रहा
परेशान
लंबे
समय
बाद
रामविलास
पासवान
और
नीतीश
कुमार2019
के
लोकसभा
चुनाव
में
साथ
आए
थे
लेकिन
अब
राम
विलास
पासवान
नहीं
है।
पार्टी
की
कमान
उनके
बेटे
चिराग
पासवान
के
हाथ
में
है
और
इस
बार
चिराग
राष्ट्रीय
स्तर
पर
एनडीए
में
रहते
हुए
भी
बिहार
में
अलग
होकर
चुनाव
लड़
रहे
हैं।
यहां
भी
चिराग
के
निशाने
पर
नीतीश
कुमार
ही
हैं
न
कि
बीजेपी।
वे
पीएम
मोदी
की
तारीफ
कर
रहे
हैं।
खुद
को
पीएम
का
हनुमान
बताते
हैं।
नीतीश
को
जेल
भेजने
की
बात
करते
हैं।
चिराग
ने
अधिकांश
उन्हीं
सीटों
पर
उम्मीदवार
उतारे
हैं
जो
एनडीए
में
जेडीयू
के
हिस्से
आई
हैं।
इन
सीटों
पर
कई
एलजेपी
उम्मीदवार
तो
ऐसे
हैं
जो
बीजेपी
के
दिग्गज
नेता
रहे
और
बंटवारे
में
सीट
जेडीयू
के
हिस्से
में
जाने
पर
पार्टी
छोड़कर
एलजेपी
में
शामिल
हो
गए
और
अब
मैदान
में
हैं।
ये
मैदान
न
केवल
टक्कर
दे
रहे
हैं
बल्कि
क्षेत्र
के
बीजेपी
कैडर
का
समर्थन
भी
इन्हें
मिल
रहा
है
जो
कि
जेडीयू
के
लिए
चिंता
का
विषय
है।
प्रवासियों
में
चुनाव
को
लेकर
जोश
नहीं
बिहार
औद्योगीकरण
की
रेस
में
सबसे
पिछड़ा
हुआ
है।
विपक्ष
इस
पर
भी
निशाना
लगा
रहा
है
और
सवाल
पूछ
रहा
है
कि
पिछले
15
साल
में
बिहार
में
कोई
बड़ी
कंपनी
नहीं
आई।
नीतीश
कुमार
के
लिए
भी
इन
सवालों
का
जवाब
आसान
नहीं
है।
2016-17
के
मुताबिक
बिहार
की
3531
छोटी-बड़ी
फैक्ट्रियों
में
से
2900
फैक्ट्रियां
ही
काम
कर
रही
थीं
जिनमें
हर
फैक्ट्री
में
40
मजदूर
काम
कर
रहे
थे
जो
कि
राष्ट्रीय
औसत
77
से
काफी
कम
है।
बिहार में एक बात लोगों के मन में है कि लॉकडाउन के दौरान दूसरे प्रदेशों में फंसे प्रवासियों को वापस लाने के लिए नीतीश सरकार ने बहुत कम काम किया। यहां तक कि वापस लौटने के बाद उन्हें रोकने के लिए खास इंतजाम नहीं किए गए। बिहार में लॉकडाउन के दौरान लौटे काफी लोग वापस फिर से काम के लिए बाहर चले गए हैं। इसने भी सरकार के कामकाज पर सवाल खड़े किए हैं। ये दिखाता है कि इस बार प्रवासियों की चुनाव में रुचि नहीं है वरना ये लोग कम से कम ऐसी परिस्थिति में तो वोट डालने के लिए जरूर रुकते। इस बार प्रवासियों में चुनाव को लेकर कोई खास उत्साह नहीं है।
लॉकडाउन
के
दौरान
बनी
गलत
छवि
कोविड
महामारी
जब
शुरू
हुई
थी
तो
कोविड
प्रोटोकॉल
के
तहत
सीएम
नीतीश
कुमार
ने
प्रदेश
के
बाहर
काम
कर
रहे
लोगों
को
वहीं
रुकने
की
अपील
की
थी।
जबकि
इसी
दौरान
यूपी
की
योगी
आदित्यनाथ
सरकार
ने
दूसरे
प्रदेश
में
रह
रहे
लोगों
को
लाने
के
लिए
स्पेशल
बसें
चलवाईं
थी।
इस
बात
ने
प्रवासियों
के
मन
में
ये
ख्याल
ला
दिया
कि
उनकी
खुद
की
सरकार
उन्हें
वापस
नहीं
बुलाना
चाहती
और
उन्हें
उनके
हाल
पर
छोड़
दिया
है।
क्या
इस
बार
भी
महिलाएं
देंगी
साथ
?
2015
के
चुनाव
के
पहले
शराबबंदी
के
वादे
ने
बड़ी
संख्या
में
महिलाओं
का
समर्थन
नीतीश
को
दिलाया
था।
इस
बार
यही
सवाल
है
कि
क्या
फिर
महिलाएं
नीतीश
को
वोट
देंगी।
खासतौर
पर
जब
शराबबंदी
लागू
होने
के
बाद
शराब
की
अवैध
तस्करी
खूब
हो
रही
है।
सरकार
की
तमाम
सख्ती
के
बावजूद
लोगों
तक
अवैध
शराब
उपलब्ध
है।
यही
वजह
है
कि
अब
विपक्ष
नीतीश
की
शासन
क्षमता
पर
भी
सवाल
उठाने
लगा
है।
तेजस्वी
यादव
ने
तो
यहां
तक
कह
दिया
कि
नीतीश
कुमार
अब
थक
गए
हैं।
सोशल
इंजीनियरिंग
से
है
उम्मीद
जहां
नीतीश
को
फिर
से
वापसी
के
लिए
कई
सारी
मुश्किलों
को
पार
करना
होगा
वहीं
कुछ
समीकरण
ऐसे
हैं
जो
उनके
पक्ष
में
जाते
हैं।
इस
मामले
में
नीतीश
भाग्यशाली
कहें
जाएंगे
कि
बिहार
का
सबसे
महत्वपूर्ण
सोशल
इंजीनियिरिंग
फॉर्मूला
अभी
भी
नीतीश
के
पक्ष
में
है।
जेडीयू
की
प्रमुख
सहयोगी
बीजेपी
के
पास
यहां
ब्राह्मण,
भूमिहार,
राजपूत
और
व्यापारी
वर्ग
का
समर्थन
अभी
भी
बना
हुआ
हैं
वहीं
यादव
को
छोड़कर
अन्य
ओबीसी
और
महादलितों
का
झुकाव
नीतीश
की
तरफ
है।
हालांकि
ये
फैक्टर
चुनाव
में
कितना
वोट
में
तब्दील
होता
है
ये
देखना
बाकी
है।
वैसे
2005
के
बाद
से
ये
देखा
गया
है
कि
जेडीयू,
बीजेपी
और
आरजेडी
बिहार
की
राजनीति
की
तीन
धुरी
बनी
हुई
हैं
इनमें
से
जो
भी
दो
साथ
आया
है
वो
तीसरे
पर
भारी
पड़ा
है।
ऐसे
में
इस
समीकरण
में
नीतीश
का
पलड़ा
भारी
नजर
आ
रहा
है।
तेजस्वी ने नीतीश की उम्र पर कसा तंज, '70 साल के हो गए लेकिन सत्ता छोड़ नहीं पा रहे'