50 साल पहले रातों-रात भारत का हिस्सा बना था ये गांव, Indian Army की मदद से शुरू हुई मोटी कमाई
तुर्तुक गांव (लद्दाख), 31 दिसंबर: लद्दाख में नियंत्रण रेखा के नजदीक स्थित तुर्तुक गांव के निवासियों के जीवन में भारतीय सेना के सहयोग से बहुत बड़ा बदलाव शुरू हो गया है। यह उन्हीं गांवों में शामिल है, जहां के 350 परिवार 50 साल पहले एक रात सोए तो थे पाकिस्तान के कब्जे वाली कश्मीर में, लेकिन नींद खुली तो रातों-रात वह सारे भारतीय बन चुके थे। दरअसल, भारतीय सेना ने इस गांव के लोगों के साथ खुबानी फल के उत्पादन और वितरण में हाथ बंटाया है। यह देश के सीमावर्ती इलाकों के निवासियों तक भारतीय सेना की पहुंच बनाने की पहल का एक हिस्सा है। लद्दाख में भारतीय सेना की एक यूनिट ने तुर्तुक गांव के निवासियों को उनके खुबानी उत्पाद की पैकिंग और उन्हें बेचने में मदद पहुंचाई है, जिससे इसकी खेती से उनकी आमदनी बढ़ाने में सहायता मिल रही है और कुछ ही महीनों में इनका कारोबार लाखों में पहुंच गया है।
भारत में शामिल हुए तो बदल गई गांव वालों की जिंदगी
तुर्तुक गांव खुबानी फल की दो वेरायटी के लिए मशहूर है- हलमान और राखइकारपो। सेना के एक अधिकारी ने कहा है, 'इंडियन आर्मी ने किसानों के खुबानी उत्पादों को डिब्बों में बंद करने की सुविधाएं दी हैं और इस दूर-दराज के गांव के लोगों में पूरी तरह उनके उद्यमी होने वाली भावना को महसूस कराया है।' उन्होंने कहा कि इस पहल की सफलता को इसी बात से आंका जा सकता है कि अब खुबानी के उत्पाद जैसे कि जैम, तेल और डिब्बाबंद खुबानी लेह-तुर्तुक के रास्ते में पर्यटकों को बेचा जाता है और एलओसी पर तैनात जवानों को भी बेहतरीन कैलोरी सामग्री के तौर पर उपलब्ध कराया जाता है। इससे पहले के अपने दौरों पर आर्मी चीफ ने सेना की यूनिट से कहा था कि वह सीमावर्ती क्षेत्रों में रहने वाले नागरिकों के साथ जुड़ें और उन्हें उनकी उद्यमशीलता की क्षमता महसूस करवाएं। 16 दिसंबर, 1971 को तुर्तुक समेत पाकिस्तानी कब्जे वाले गिलगित-बाल्टिस्तान के कई और गांवों को भारतीय सेना ने मिला लिया था।
रक्षा ही नहीं करती, आत्मनिर्भर भी बनाती है भारतीय सेना
भारतीय सेना की यह पहल स्थानीय नागरिकों को आत्मनिर्भर बनाने की है। सबसे बड़ी बात है कि आर्मी की इस पहल से महिलाएं सशक्त हुई हैं और रोजगार पैदा करने वाली बन रही हैं। कैनिंग प्लांट लगने की वजह से तुर्तुक गांव की माइक्रो-इकोनॉमी की तो कायाकल्प हो ही रही है, स्थानीय निवासियों में सेना की छवि और भी मजबूत हो रही है। भारतीय सेना 2022 के सेना दिवस के दौरान इसी तरह की साझेदारी वाली पहल दूर-दराज के और भी सीमावर्ती इलाकों में स्थानीय नागरिकों के साथ मिलकर करने की योजना तैयार कर रही है। इस इलाके के लोगों की आजीविका पूरी तरह से पशुधन, खेती और खुबानी के पैदावार पर निर्भर है, जो कि इस क्षेत्र की मुख्य अर्थव्यवस्था है। इस फल के अर्क और गुठलियों का इस्तेमाल तेल और ब्यूटी प्रोडक्ट बनाने में भी होता है।
सेना ने कैसे की तुर्तुक के लोगों की मदद ?
2017 की बागवानी रिपोर्ट के मुताबिक भारत ने करीब 15,000 मीट्रिक टन खुबानी का उत्पान किया था। लेकिन, इसकी एक बहुत बड़ी मात्रा इसके जल्द खराब होने, असंगठित बाजार, पैदावार के बाद के लिए तकनीक का अभाव और असामान्य डिमांड-सप्लाई चेन के चक्कर में बर्बाद हो जाता था। एक बात और है कि यह इलाका देश के बाकी हिस्सों से इतना दूर है कि व्यापारियों का यहां तक पहुंचना पाना मुश्किल होता है। सेना ने जो प्रोजेक्ट शुरू किया है, इसमें इन सभी दिक्कतों को ध्यान में रखा गया है। भारतीय सेना ने स्थानीय गांव वालों को मार्केट सर्वे करने , तुर्तुक ब्लॉक के गावों में तालमेल बिठाने और किसानों की को-ऑपरेटिव सोसाइटी स्थापित करने,जिला प्रशासन के साथ संपर्क कराने और जम्मू-कश्मीर बैंक में एक बैंक खाता खोलने में सहायता पहुंचायी है।
कैसे बदल गई तुर्तुक गांव की अर्थव्यवस्था ?
इस प्रोजेक्ट की कुल लागत 30 लाख रुपये थी और परियोजना का 100% हिस्सा सौफ्ट लोन के जरिए फाइनेंस करवाया गया। डिब्बाबंद खुबानी के लैब टेस्ट पास करने के बाद एफएसएसएआई की भी मंजूरी ली गई। आइडिया सामने आने के महज तीन महीनों के अंदर ब्रिगेड ने विशेष रूप से त्याक्षी बटालियन ने जुलाई 2021 के अंतिम सप्ताह में चीनी के सिरप में टिन में डिब्बाबंद खुबानी का उत्पादन शुरू कर दिया। हर दिन सुबह के समय विभिन्न गांवों के किसानों से फल जमा किया जाता है और फिर उसे कैनिंग प्लांट पहुंचा दिया जाता है। यहां फलों को धोने और काटने के बाद चीनी के सिरप के साथ उसे डिब्बाबंद कर दिया जाता है। आज की तारीख तक करीब 15,000 कैन का उत्पादन हो चुका है, जिसका बाजार भाव 30 लाख रुपये से ज्यादा है। इस बेहतरीन पहल से तुर्तुक के दूर-दराज क्षेत्रों के 90 से ज्यादा किसानों और 15 बाकी नागरिकों को फायदा हुआ है। इसमें 6 महिलाओं को रोजगार मिला है, जिससे उन्हें वित्तीय तौर पर स्वतंत्र बनने का मौका मिला है।