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कोविड 19: मीडिया वाले कैसे कोरोना वायरस का ‘शिकार’ बन रहे हैं

21 दिन के लॉकडाउन को 3 मई तक बढ़ाने की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को एक बार फिर यह आग्रह किया कि 'आप अपने व्यवसाय, उद्योग में साथ काम करने वाले लोगों के प्रति संवेदना रखें और किसी को नौकरी से ना निकालें.' पर पिछले वित्तीय वर्ष में आर्थिक सुस्ती की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था की जो चिंताएं रही हैं, उन्हें कोरोना वायरस से फैली महामारी ने 

By प्रशांत चाहल
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कोविड 19: मीडिया वाले कैसे कोरोना वायरस का ‘शिकार’ बन रहे हैं

21 दिन के लॉकडाउन को 3 मई तक बढ़ाने की घोषणा करते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मंगलवार को एक बार फिर यह आग्रह किया कि 'आप अपने व्यवसाय, उद्योग में साथ काम करने वाले लोगों के प्रति संवेदना रखें और किसी को नौकरी से ना निकालें.'

पर पिछले वित्तीय वर्ष में आर्थिक सुस्ती की वजह से भारतीय अर्थव्यवस्था की जो चिंताएं रही हैं, उन्हें कोरोना वायरस से फैली महामारी ने और भी गंभीर रूप दे दिया है.

ऐसे में लोगों की नौकरियाँ बची रहें, ये कैसे सुनिश्चित किया जाएगा? यह सवाल मुख्य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने मोदी सरकार से किया है.

22 मार्च के अपने संबोधन में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि 'पुलिस और स्वास्थ्यकर्मियों की तरह मीडिया की भी इस महामारी से लड़ने में अहम भूमिका होगी.'

मगर लॉकडाउन शुरू होने के बाद समाचार पत्रों के सर्कुलेशन पर असर देखा गया जिसे लेकर प्रिंट माध्यमों ने चिंता भी ज़ाहिर की है.

लेकिन अब बात मीडिया सेक्टर में नौकरियाँ बचाने के स्तर पर हो रही है.

भारत के पूर्व सूचना एवं प्रसारण मंत्री और कांग्रेस पार्टी के सांसद मनीष तिवारी ने केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावडेकर को पत्र लिखकर मीडिया सेक्टर पर मंडरा रहे संकट का ज़िक्र किया है.

इस पत्र में तिवारी ने लिखा है कि 'एक नामी संस्थान ने पंद्रह पत्रकारों को नौकरी से निकाल दिया है. साथ ही अन्य मीडिया संस्थानों से भी ऐसी ख़बरें आ रही हैं और लोगों को वक़्त पर सैलेरी नहीं मिल पा रही. ऐसे समय में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय को प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया के लिए एक एडवाइज़री जारी करनी चाहिए ताकि मुसीबत के समय में लोगों को समय पर वेतन मिलता रहे.'

मनीष तिवारी ने ये भी कहा कि 'मीडिया संस्थान सिर्फ़ तीन हफ़्तों के लॉकडाउन के बाद महामारी को लोगों की नौकरियाँ छीनने का बहाना नहीं बना सकते.'

प्रिंट मीडिया का संकट है क्या?

प्रेस एसोसिएशन, इंडियन जर्नलिस्ट्स यूनियन और वर्किंग न्यूज़ कैमरामैन एसोसिएशन ने प्रिंट मीडिया के मौजूदा संकट पर एक प्रेस नोट जारी किया है.

इसमें बताया गया है, "लॉकडाउन के तीसरे हफ़्ते में ही इंडियन एक्सप्रेस और बिज़नेस स्टैंडर्ड अख़बार ने पत्रकारों की सैलेरी में कटौती की बात कह दी है. टाइम्स ऑफ़ इंडिया अख़बार ने संडे मैग्ज़ीन की पूरी टीम को निकाल दिया है. राष्ट्रीय स्तर एक न्यूज़ एजेंसी ने अपने यहाँ काम करने वालों को सिर्फ़ 60 फ़ीसदी सैलरी देने की घोषणा की है. हिन्दुस्तान टाइम्स मराठी 30 अप्रैल से प्रकाशन बंद करने वाला है और संपादक समेत पूरी टीम को घर बैठने के लिए कह दिया गया है. आउटलुक मैग्ज़ीन ने भी प्रकाशन बंद कर दिया है. साथ ही उर्दु का अख़बार नई दुनिया और स्टार ऑफ़ मैसूर अख़बार बंद हो रहा है."

कोरोना वायरस
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15 से अधिक भारतीय भाषाओं में छपने वाले अख़बारों के संगठन - 'इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी' ने कहा है कि 'स्थिति वाक़ई गंभीर है, प्रिंट मीडिया पर तीहरी मार पड़ रही है, महामारी की वजह से सर्कुलेशन घटा है, विज्ञापनों की संख्या घटी है और न्यूज़ प्रिंट पर लगने वाली कस्टम ड्यूटी में कोई राहत नहीं है.'

सरकार से मदद की दरकार

इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी (INS) ने ये सभी कारण गिनवाते हुए केंद्र सरकार को एक पत्र लिखा है जिसमें अपील की गई है कि 'प्रिंट इंडस्ट्री को बचाने के लिए सरकार को दो वर्ष की टैक्स छूट देनी चाहिए और अख़बार के काग़ज़ पर लगने वाली इंपोर्ट ड्यूटी को हटाना चाहिए.'

आईएनएस के अनुसार 'जब कोई ग्राहक खाने-पीने का सामान या दूध ख़रीदता है तो उसकी क़ीमत अदा करते समय वो उसपर लगने वाले टैक्स और लागत, दोनों अदा करता है. लेकिन अख़बार तैयार करने में जो लागत आती है, उसका एक बेहद मामूली हिस्सा उपभोक्ताओं से मिलता है.

बाक़ी ख़र्च विज्ञापनों के ज़रिये हुई आमदनी से पूरे किये जाते हैं और इसी से मुनाफ़ा भी निकलता है. पर महामारी की वजह से विज्ञापनों की संख्या में भारी गिरावट दर्ज हुई है.

यही स्थिति रही तो प्रिंट इंडस्ट्री में काम करने वाले लोगों की नौकरियाँ कितने दिन तक सुरक्षित रह पाएंगी, नहीं कहा जा सकता.'

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अख़बारों को भारी नुकसान

दिल्ली से प्रकाशित होने वाले एक बड़े अख़बार समूह के अधिकारियों ने नाम ना देने की शर्त पर बीबीसी को बताया कि 'अख़बार में विज्ञापनों का घनत्व तेज़ी से कम हुआ है, अख़बार की मोटाई कम हुई है, यह अख़बार को देखकर ही पता चलता है. दरअसल बहुत से विज्ञापनदाताओं ने अपने विज्ञापन रुकवा दिये हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि हमें अख़बार के पन्ने कम करने पड़े हैं.'

अख़बारों के साथ आने वाली छोटी पत्रिकाओं या फ़ीचर सप्लीमेंट्स का प्रकाशन रोके जाने या उनका सर्कुलेशन बंद होने की ख़बर पर उन्होंने कहा, "इसकी दो वजहें हैं. पहली वजह तो ये है कि ये फ़ीचर सप्लीमेंट एंटरनेटमेंट इंडस्ट्री और विज्ञापनों के दम पर चलते हैं. दोनों ही एक तरह से फ़िलहाल बंद हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि इनके प्रकाशन पर ख़र्चा क्यों किया जाए."

"दूसरी वजह है कोरोना वायरस का संक्रमण जिसे देखते हुए अधिकांश अख़बारों ने मानवीय दख़ल को न्यूनतम करने का फ़ैसला किया है. जितने भी सप्लीमेंट या छोटी पत्रिकाएं होती हैं, उन्हें हाथ से अख़बारों के बीच रखा जाता है जिससे संक्रमण का ख़तरा पैदा हो सकता है. इसे देखते हुए या तो अख़बारों ने फ़ीचर के पन्ने मुख्य अख़बार में शामिल कर लिये हैं या फिर इनका प्रकाशन फ़िलहाल बंद कर दिया है."

वे कहते हैं कि 'इसका असर संभवत: ना सिर्फ़ पत्रकारों पर, बल्कि विज्ञापन टीम और सर्कुलेशन में लगे लोगों की नौकरियों पर हो सकता है.'

लेकिन अख़बार मालिकों और प्रबंधन की ऐसी दलीलों को प्रेस एसोसिएशन के अध्यक्ष जयशंकर गुप्ता बहुत एकतरफ़ा मानते हैं.

जयशंकर गुप्ता का कहना है, "घाटे को लेकर अख़बार मालिकों का आकलन बहुत विवादित है क्योंकि जब वे 40 पेज छाप रहे थे, जिसमें 15 से अधिक पन्नों पर सिर्फ़ विज्ञापन था, तो उन्होंने मुनाफ़ा तो किसी पत्रकार से शेयर नहीं किया था. लेकिन मुसीबत के समय में कटौती कर रहे हैं. अब वे 12-15 पेज का अख़बार छाप रहे हैं, तो कुछ लागत भी घटी होगी. ऐसे समय में अख़बार मालिक तीन सप्ताह में ही कैसे साथ छोड़ सकते हैं. क्यों नहीं वे अपने मुनाफ़े से कुछ हिस्सा लोगों की नौकरियाँ बचाने के लिए ख़र्च कर सकते."

संकट सिर्फ़ प्रिंट मीडिया पर नहीं

ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ प्रिंट इंडस्ट्री ही इस संकट को महसूस कर रही है. डिजिटल मीडिया क्षेत्र की कंपनियाँ भी कड़े निर्णय लेने को मजबूर हैं.

दिल्ली-एनसीआर से चलने वाले न्यूज़ चैनल 'न्यूज़ नेशन' ने 16 लोगों की पूरी डिजिटल टीम को नौकरी से निकाल दिया है.

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इस टीम में काम करने वाले सिद्धार्थ विश्वनाथन ने बीबीसी को बताया कि '10 अप्रैल की शाम, 6 बजे हमारी पूरी टीम को नौकरी से निकालने का नोटिस दे दिया गया था. इससे पहले मालिकों ने या प्रबंधन ने इस बारे में किसी से कोई चर्चा नहीं की. हमारे संपादक को भी इस बारे में कुछ मिनट पहले बताया गया था.'

सिद्धार्थ 12 वर्ष से पत्रकारिता के पेशे में हैं. दिल्ली में पत्नी और बेटी के साथ रहते हैं. न्यूज़ नेशन में वे डिजिटल स्पोर्ट्स एडिटर के तौर पर काम करते थे.

उन्होंने बताया, "कंपनी ने हमसे कहा है कि अप्रैल में 10 तारीख़ तक वेतन के अलावा वे हमें सिर्फ़ एक महीने का बेसिक वेतन देंगे और मौजूदा स्थिति में हमें कोई नौकरी मिलेगी, ऐसे आसार दिखाई नहीं देते."

न्यूज़ नेशन प्रबंधन ने लोगों को नौकरी से निकाले जाने की ख़बर की पुष्टि तो की लेकिन उससे ज़्यादा कुछ भी बात करने से मना कर दिया.

इसी तरह 'द क्विंट' नाम की वेबसाइट ने अपने 200 मुलाज़िमों की टीम में से क़रीब 45 को 'फ़र्लो' यानी बिना वेतन की छुट्टियों पर जाने को कह दिया है.

'द क्विंट' वेबसाइट के लिए काम करने वाले एक पत्रकार ने नाम ना देने की शर्त पर बीबीसी को बताया कि 'वेबसाइट मालिकों ने आर्थिक संकट को देखते हुए कुछ फ़ैसले लिये हैं जिन्हें कूटनीतिक निर्णय बताया गया है. पिछले सप्ताह पीटीआई और एएनआई जैसी समाचार एजेंसियों की सेवाएं बंद कर दी गई थीं. एएनआई से वीडियो मिलना बंद हुए तो वेबसाइट ने वीडियो टीम के अधिकांश लोगों को छुट्टी पर भेज दिया. इनके अलावा टेक्नीकल टीम के लोगों को, कुछ रिपोर्टरों और डेस्क के लोगों को भी छुट्टी पर भेजा गया है.'

'द क्विंट' वेबसाइट ने मालिकों की ओर से टीम के जिन चुनिंदा लोगों को बिना वेतन की छुट्टी पर भेजा है, उन्हें दिये गए पत्र में लिखा है, "संस्थान ने दो वर्ष तक आर्थिक सुस्ती की वजह से बने हालात से लड़ने का प्रयास किया, लेकिन कोरोना वायरस महामारी ने परिस्थितियों को बहुत मुश्किल बना दिया है. अगले कम से कम 3-4 महीने तक वेबसाइट को आर्थिक मोर्चे पर बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है. इसी को देखते हुए संस्थान को कड़े निर्णय लेने पड़े हैं."

हालांकि वेबसाइट ने जिन लोगों को छुट्टी पर भेजा है, वे अपना प्रॉविडेंड फ़ंड निकाल सकते हैं, बीमार होने पर कंपनी से मिलने वाले मेडिकल इंश्योरेंस की सुविधा ले सकते हैं, साथ ही उन्हें किसी भी संस्थान के लिए फ़्रीलांस काम करने की आज़ादी दी गई है.

सोशल मीडिया पर कंपनी के इस फ़ैसले की चर्चा हो रही है. कुछ लोगों का मानना है कि कंपनी ने बीच का रास्ता चुना, जबकि कई लोग इसे मुश्किल समय में छटनी जैसा ही बता रहे हैं.

'द क्विंट' के प्रबंधन ने अपने मुलाज़िमों को बिना वेतन छुट्टी पर भेजे जाने की बात स्वीकार की है लेकिन उन्होंने इस बारे में कुछ और बोलने से इनकार कर दिया.

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क्या पत्रकारों की सुनवाई हो सकती है?

पर सवाल उठता है कि क्या सरकार इस संबंध में कोई एडवाइज़री जारी कर सकती है या ऐसे मामलों की सुनवाई की जा सकती है?

इसे समझने के लिए हमने प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया के चेयरमैन जस्टिस सीके प्रसाद से बात की.

प्रेस काउंसिल एक्ट 1978 के तहत प्रेस काउंसिल ऑफ़ इंडिया का गठन हुआ था जिसे प्रेस की स्वतंत्रता और पत्रकारों के अधिकारों से जुड़े मामलों में दख़ल देने की शक्ति प्राप्त है.

पीसीआई के चेयरमैन जस्टिस सीके प्रसाद ने बताया कि बीते दिनों कुछ शिकायतें उनकी टीम को मिली ज़रूर हैं, लेकिन लॉकडाउन की वजह से उन्हें देखा नहीं जा सका है.

उन्होंने कहा, "एक्ट के अनुसार पीसीआई सिर्फ़ अख़बारों से जुड़े पत्रकारों के मामले देखता है. जिस वक़्त प्रेस एक्ट बना था, तब टीवी और इंटरनेट मीडिया थे ही नहीं. इसलिए ये हमारे दायरे से बाहर हैं."

वर्ष 1978 में ही बनी 'एडिटर्स गिल्ड ऑफ़ इंडिया' भी मीडिया और पत्रकारों से जुड़ें मामलों पर मुखर रही है. हालांकि मौजूदा संकट पर एडिटर्स गिल्ड ने अभी तक कोई टिप्पणी नहीं की है.

कुछ वक़्त पहले कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी ने पीएम मोदी को सुझाव दिया था कि 'कोविड-19 से लड़ने के लिए फंड जुटाना है, तो वे सरकारी विज्ञापनों पर दो वर्ष के लिए रोक लगा दें.' हालांकि इंडियन न्यूज़पेपर सोसायटी ने सोनिया गांधी के इस सुझाव की कड़ी आलोचना की थी.

पर क्या केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारतीय मीडिया इंडस्ट्री के बारे में कुछ सोच रहा है? यह जानने के लिए हमने केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावड़ेकर के दफ़्तर से संपर्क किया, लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.

हालांकि प्रकाश जावडेकर ने भी ट्विटर पर पीएम मोदी के आग्रह को ट्वीट किया है कि 'अपने व्यवसाय, उद्योग में साथ काम करने वाले लोगों के प्रति संवेदना रखें और किसी को नौकरी से ना निकालें.'

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सरकार से मदद मिली तो?

'ग्लोबल वेब इंडेक्स' नाम की मार्केट रिसर्च कंपनी ने इसी महीने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि दुनिया भर में ऑनलाइन न्यूज़ की खपत में तेज़ वृद्धि देखी गई है.

रिपोर्ट में कहा गया कि कोरोना वायरस से फैली महामारी के बारे में ताज़ा जानकारियाँ जुटाने के लिए लोग डिजिटल माध्यमों का सबसे अधिक उपयोग कर रहे हैं.

कई भारतीय मीडिया संस्थानों ने भी मार्च के तीसरे सप्ताह से ऑनलाइन ट्रैफ़िक (उपभोक्ताओं) में उछाल दर्ज किया.

बावजूद इसके, मीडिया इंडस्ट्री में सभी जगह जो थरथराहट देखी जा रही है, उसे कैसे समझा जाए? और इससे कौन-कौन ख़तरे में है? इस बारे में हमने भारतीय जन संचार संस्थान के एसोसिएट प्रोफ़ेसर डॉक्टर आनंद प्रधान से बात की.

डॉक्टर प्रधान ने बताया, "भारतीय मीडिया मूल रूप से कमर्शियल मीडिया है जो कि इंडस्ट्री का ही पार्टी है. आर्थिक सुस्ती की वजह से उद्योग और अर्थव्यवस्था पहले ही चुनौतियों का सामना कर रहे थे, लेकिन महामारी ने इसे और ख़राब कर दिया है."

"व्यापारिक वर्ग में यह एक स्वभाविक प्रवृत्ति होती है कि जब मुसीबत आती है तो वे सबसे पहले ख़र्चों का मूल्यांकन कर उनमें कटौती करते हैं ताकि मुनाफ़ा बचाया जा सके. इंडस्ट्री में जब इसकी शुरुआत होती है, तो इसका 'कैस्केडिंग इफ़ेक्ट' यानी एक से दूसरे पर बहुत तेज़ असर होता है और चीज़ें गिरने लगती हैं."

"मीडिया के संदर्भ में इसे विज्ञापनों में कटौती के तौर पर देखा जा सकता है. यानी अनिश्चितता भरे इस समय में व्यापारी अपने ख़र्च को कम करने के लिए विज्ञापनों पर रोक लगा रहे हैं और बाक़ी चीज़ों पर इसका असर दिख रहा है, चाहे प्रिंट मीडिया हो या टीवी और डिजिटल मीडिया."

वे कहते हैं कि 'इस परिस्थिति में डर सभी को है. वे लोग चिंतित हैं जो नौकरीपेशा हैं और चिंतित वे भी हैं जिन्हें पढ़ाई पूरी करने के बाद अगले कुछ महीनों में मीडिया की नई नौकरियों की तलाश में बाज़ार में उतरना है.'

डॉक्टर प्रधान मानते हैं कि 'पत्रकारिता के लिए भी ये बड़ा मुश्किल समय है क्योंकि अगर मीडिया को सरकार से कोई बड़ी रियायत मिलती है तो सरकार की आलोचना कम होगी. उद्योगपतियों से राहत नहीं मिली, तो सरकार से मदद लेने के अलावा मीडिया के पास विकल्प नहीं होगा. तो ये बने रहने की जंग के साथ-साथ साख बनाए हुए काम करते रहने की भी लड़ाई होने वाली है.'

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'दस हज़ार पत्रकारों की नौकरी पर ख़तरा'

पर क्या सिर्फ़ भारत में ही मीडिया को इस तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है या फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हालात चुनौतीपूर्ण हैं? इसे समझने के लिए बीबीसी ने 'रॉयटर्स इंस्टीट्यूट फ़ॉर द स्टडी ऑफ़ जर्नलिज़्म' के डायरेक्टर रेसमस नेल्सन से चर्चा की.

रेसमस 'ऑक्सफ़र्ड यूनिवर्सिटी' में पॉलिटिकल कम्युनिकेशन के प्रोफ़ेसर भी हैं और वे बताते हैं कि पूरी दुनिया से मीडिया इंडस्ट्री में हो रही छटनी की ख़बरें आ रही हैं.

उन्होंने कहा, "अमरीका, ब्रिटेन, फ़्रांस, इटली और यूरोप के अन्य सभी बड़े देशों में मीडिया संस्थान ख़र्चों में कटौती कर रहे हैं और छटनी भी, ताकि तेज़ी से गिरती आमदनी और अपने मुनाफ़े को संभाल सकें. इसमें कोई शक नहीं कि इन सभी देशों में प्रिंट इंडस्ट्री को सबसे बड़ा धक्का लगा है क्योंकि विज्ञापनदाता ख़र्चे रोक रहे हैं और जिन देशों में लॉकडाउन है, वहाँ अख़बारों के सर्कुलेशन में बड़ी गिरावट देखी गई है."

वेब आधारित मीडिया पर बात करते हुए उन्होंने कहा, "कुछ बड़े डिजिटल पब्लिशर हैं जिन्होंने इस दौर में अपने पाठकों और दर्शकों की संख्या में भारी उछाल देखा है. पर मुझे नहीं लगता कि वो विज्ञापनों में हुई कटौती से होने वाले घाटे को, बढ़े हुए पाठकों और दर्शकों की बदौलत पूरा कर पाएंगे. एक दिक्क़त यह भी है कि जो बड़े डिजिटल विज्ञापनदाता हैं वो कोरोना से संबंधित कंटेंट के साथ दिखना नहीं चाहते और वो कोरोना से संबंधिक कंटेट को ब्लैकलिस्ट कर रहे हैं, जबकि अधिकांश लोग इस समय कोरोना से संबंधित कंटेट ही देख रहे हैं."

रेसमस ने बताया कि 'दुनिया में मोटे तौर पर तीन तरह के मीडिया मॉडल मौजूद हैं. कमर्शियल मीडिया विज्ञापन से चलता है. स्वायत्त पब्लिक ब्रॉडकास्टर को सरकारी बजट से पैसा मिलता है और तीसरा है सरकार द्वारा नियंत्रित मीडिया. ख़तरा सभी जगह है. फ़िलहाल कमर्शियल मीडिया के लिए विज्ञापनों में कमी आई है. पब्लिक ब्रॉडकास्टर के बजट में कटौती भी इतिहास में देखी गई है. और मुसीबत के समय में सरकारें अपने नियंत्रित मीडिया के फंड की कटौती भी कर सकती हैं. हालांकि चीन और क्यूबा जैसे देशों में सरकार के नियंत्रण वाले मीडिया में यह संभावना हमेशा रहती है कि पब्लिक पर कंट्रोल मज़बूत करने के लिए वे मीडिया पर अधिक ख़र्च करें और अपने प्रचार-प्रसार को मज़बूत करें.'

रेसमस का अनुमान है कि 'कोरोना वायरस की वजह से आने वाले दिनों में मीडिया कंपनियों को दुनिया भर में खरबों रुपये (कई बिलियन डॉलर) का घाटा झेलना पड़ सकता है. और अगर ऐसा होता है तो कम से कम दस हज़ार पत्रकारों को अपनी नौकरी गंवानी पड़ेगी.'

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English summary
Kovid 19: How media people are becoming 'victims' of Coronavirus
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