किसान आंदोलन: नरेंद्र मोदी के 'फ़ोन कॉल' वाले बयान के बाद क्या बनेगी बात?
किसान आंदोलन पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान और बजट भाषण में MSP पर गिनाए गए आँकड़ों के बीच क्या कोई रास्ता निकल सकता है?
26 जनवरी की घटना के बाद किसान आंदोलन को लेकर पहली बार भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुप्पी तोड़ी.
बीते शनिवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सर्वदलीय बैठक के दौरान किसान आंदोलन पर अपनी बात रखी.
संसदीय कार्य मंत्री प्रह्लाद जोशी ने बैठक के बारे में जानकारी देते हुए कहा, "बैठक में अंत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिशा निर्देश देते हुए कहा है कि 22 जनवरी को कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों को ऑफ़र दिया था कि हम चर्चा के लिए तैयार हैं. अगर किसान संगठन आगे भी चर्चा चाहते हैं, तो मैं एक फ़ोन कॉल दूर हूँ. वो बात आज भी लागू है. सरकार बातचीत के लिए तैयार है."
इसके बाद रविवार को 'मन की बात' कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि 26 जनवरी को तिरंगे के अपमान देख कर देश बहुत दुखी हुआ था.
शनिवार से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने किसान आंदोलन पर सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा था. हालांकि, कई बार नए कृषि क़ानूनों और इससे किसानों को होने वाले फायदे पर उन्होंने अपनी राय ज़रूर रखी थी.
'मन की बात' में भी उन्होंने नए कृषि क़ानूनों की वकालत की, कई राज्यों के किसानों से वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए भी नए कृषि क़ानूनों की अच्छाई गिनाई. कई बार अलग-अलग मंचों से उन्होंने कहा कि ये नए क़ानून किसानों के हक़ में है. कुछ लोग किसानों के बीच भ्रम फैला रहे हैं.
यही वजह है कि प्रधानमंत्री के बयान की चर्चा हर जगह हो रही है. कुछ जानकार इसे सरकार की नरमी के संकेत मान रहे हैं, तो कुछ किसानों की जीत से जोड़ कर देख रहे हैं.
प्रधानमंत्री के प्रस्ताव पर किसान नेताओं की राय
पिछले दो दिन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दो बार किसान आंदोलन के संदर्भ में बोलने के बाद भी किसान नेता बहुत आशान्वित नहीं दिखे.
किसान नेताओं ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर बातचीत के लिए अनुकूल माहौल बनाने की बात की और कहा कि बातचीत से हल निकलना चाहिए. उन्होंने गणतंत्र दिवस की परेड के बाद 100 से अधिक साथियों के लापता होने की जानकारी दी है. लेकिन प्रधानमंत्री की चुप्पी तोड़ने को लेकर इनके बयानों में बहुत उम्मीद नहीं दिखी.
प्रधानमंत्री के ताज़ा बयान पर भारतीय किसान यूनियन (हरियाणा) के अध्यक्ष गुरनाम सिंह चढूनी ने बीबीसी से बातचीत में कहा, "कहने और करने में बहुत अंतर हैं. अभी तक तो कोई कॉल आया नहीं. हम करें तो कहाँ कॉल करें. वो बातचीत के लिए बुलाएँगे, तो हम ज़रूर जाएँगे. लेकिन सरकार तो आज भी बातचीत पर शर्तें ही लगा रही है."
लेकिन भारत के प्रधानमंत्री के कॉल का इंतज़ार ना करते हुए क्या किसान संगठन ख़ुद प्रधानमंत्री से बातचीत के लिए समय माँगेंगे?
इस पर गुरनाम सिंह चढूनी कहते हैं कि संयुक्त मोर्च की बैठक में इस पर बात की जाएगी.
बीबीसी से बातचीत में मध्य प्रदेश के किसान नेता शिव कुमार कक्काजी ने कहा, "प्रधानमंत्री जी का ज़बरदस्त अहंकार है, तक़रीबन 70 दिनों का ये आंदोलन चल रहा है और इसके पहले पंजाब का आंदोलन भी चला. इतने दिनों में प्रधानमंत्री ने कोई टिप्पणी नहीं की. इतने किसान शहीद हो गए. इन्होंने कोई दुख व्यक्त नहीं किया."
"उसके बाद वो जो कह रहे हैं, उसमें उनका कितना अहंकार झलक रहा है, वो देखिए आप. वो ये नहीं कह रहे कि मेरे से एक फ़ोन कॉल दूर हैं आप, वो ये कह रहे हैं कि कृषि मंत्री ने जो आख़िरी बैठक में प्रस्ताव दे कर हमें कहा कि वो प्रस्ताव दे चुके हैं, किसान जब चर्चा करना चाहें, मैं एक फ़ोन दूर हूँ. प्रधानमंत्री मोदी ने बस उनके प्रस्ताव को दोहराया है. प्रधानमंत्री ने ख़ुद ये नहीं कहा. ख़ुद तो वो अहंकार में डूबे हुए हैं. "
चाहे गुरनाम सिंह चढूनी हों या फिर शिव कुमार कक्काजी, दोनों किसान नेता प्रधानमंत्री के बयान के बाद भी ख़ुश नज़र नहीं आए.
एक प्रस्ताव नरेश टिकैत की तरफ़ से ज़रूर आया है. सरकार 18 महीने की जगह 2024 तक के लिए नए कृषि क़ानून क्यों नहीं रद्द कर देती?
ये सुझाव नरेश टिकैत ने बीबीसी हिंदी को दिए अपने इंटरव्यू में कहा है. लेकिन, 18 महीने की जगह कुछ और दिन सरकार नए कृषि क़ानून को स्थगित करने के लिए तैयार हो जाती है, तो क्या किसान मान जाएँगे?
इस पर शिव कुमार कक्का जी कहते हैं कि उनकी जानकारी में तीन साल तक क़ानून स्थगित करने पर क़ानून खुद ही निरस्त हो जाएँगे.
उन्होंने आगे कहा, "नरेश टिकैत और राकेश टिकैत जो बात कह रहे हैं, वो उनकी व्यक्तिगत राय हो सकती है. लेकिन इस सुझाव पर चर्चा संयुक्त मोर्चा की बैठक में ही हो सकता है. हम 580 संगठनों का एक परिवार है, सबकी एक राय पर ही चीज़े तय करते हैं. मेरी व्यक्तिगत राय है कि संयुक्त मोर्चा को ये सुझाव स्वीकार्य नहीं होगा. सरकार को तीनों क़ानूनों को रद्द ही करना होगा."
इस प्रस्ताव को लेकर किसान नेताओं में थोड़ी भ्रम की स्थिति बनी है.
प्रधानमंत्री का बयान, क्या नरमी का संकेत?
प्रधानमंत्री के एक बयान के बाद एक बयान मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक का भी आया है.
उन्होंने कहा, "मैं ख़ुद किसानों के आंदोलन से निकला हुआ नेता हूँ. इसलिए मैं उनकी समस्याओं को समझ सकता हूँ. इस मसले का जल्द से जल्द समाधान निकाला जाना ही देश के हित में है. मैं सरकार से अपील करता हूँ कि किसानों की समस्या को सुनें. दोनों पक्षों को ज़िम्मेदारी के साथ बातचीत में शामिल होना चाहिए."
उनका ये बयान क्यों और कैसे आया, इसको लेकर कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं. वहीं एक उम्मीद ये जताई जा रही है कि किसान नेताओं और सरकार के बीच जो बातचीत फ़िलहाल बंद थी, वो दोबारा शुरू हो सकती है.
I emerged as a leader from farmers' movement and understand their cause. It is in the interest of nation to find a speedy solution to the issue. I urge the government to listen to their concerns, both sides should responsibly engage in talks: Meghalaya Governor Satya Pal Malik pic.twitter.com/DWkFuLdDt6
— ANI (@ANI) January 31, 2021
बीजेपी के राज्यसभा सांसद राकेश सिन्हा कहते हैं कि "प्रधानमंत्री सरकार का नेतृत्व करते हैं, एक संवैधानिक पद पर बैठे हैं. उन्होंने संवैधानिक पद बैठे होने के नाते और अभिभावक होने के नाते ये बात कही है. लोकतंत्र में वार्ता ही एक मात्र रास्ता है किसी समस्या के समाधान के लिए. प्रधानमंत्री ने अपने कथन से एक बार फिर उस बात को स्थापित किया है जो बाबा साहब आंबेडकर कह गए."
पीएम मोदी ने दो बातें कही है. पहली ये कि लाल क़िले पर जो घटना घटी वो अशोभनीय, निंदनीय और अकल्पनीय है. और दूसरी बात ये कही कि किसी भी समय किसी भी वक़्त किसानों से पारदर्शी तरीक़े से बात करने के लिए तैयार हैं.
प्रश्न ये उठता है वार्ता में ये बताना होता है कि किस मुद्दे पर आपकी असहमति है और क्यों है? किसानों के साथ आगे होने वाली वार्ता का भी आधार यही होगा. सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन भी कर रही है.
राकेश सिन्हा कहते हैं, "सरकार ने बहुत सोच समझ कर क़ानून बनाया है. 18 महीने तक क़ानून को स्थगित करने का प्रस्ताव भी इसलिए दिया गया. इस प्रस्ताव का उद्देश्य है संवाद. लेकिन संवाद में दोनों पक्षों की बात को कहने और सुनने की बात होनी चाहिए. अपनी बात पर अड़ जाना और दूसरे से प्रस्ताव पर दुराग्रह रखने से संवाद नहीं हो सकता. सरकार ने इतना लचीलापन दिखाया है. उसके आधार पर वार्ता तो कम से कम होनी ही चाहिए."
क्या प्रधानमंत्री मोदी ख़ुद किसानों से वार्ता करने के लिए तैयार हैं?
इस सवाल पर राकेश सिन्हा कहते हैं कि प्रधानमंत्री के इस बयान की व्याख्या सब अपने अपने ढ़ंग से करेंगे. लेकिन जो प्रधानमंत्री ने कहा, वो स्पष्ट है. वो एक फ़ोन कॉल दूर हैं. उन्होंने कृषि मंत्री को इसके लिए ज़िम्मेदारी दी है. प्रधानमंत्री मोदी तो सर्वजन से बात करने के लिए तैयार रहते हैं. छोटे-छोटे वर्ग से बात करते हैं. तो किसानों से क्यों नहीं बात हो सकती.
...तो फिर आंदोलन कैसे ख़त्म होगा?
दिल्ली में लगभग 70 दिन से चल रहे किसान आंदोलन में दो बार ऐसी परिस्थितयाँ बनती दिखी, जब लगा कि कोई रास्ता निकल सकता है.
पहला वो वक़्त था जब सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से क़ानून पर रोक लगा कर कमेटी गठन की बात की थी. लेकिन किसान संगठन इस पर राज़ी नहीं हुए. दूसरी बार तब जब केंद्र सरकार ने 18 महीने तक नए कृषि क़ानून को स्थगित करने का प्रस्ताव दिया. इस प्रस्ताव को भी किसान नेताओं ने ख़ारिज कर दिया.
ऐसे में अब किसान नेताओं से सवाल किए जा रहे हैं कि आख़िर आंदोलन ख़त्म कैसे होगा. अब तो इस पूरे मामले में पीएम की भी एंट्री हो चुकी है?
शिव कुमार कक्का जी कहते हैं, "मोदी सरकार अपने कार्यकाल में 18 क़ानून किसान विरोधी और 40 क़ानून मज़दूर विरोधी ले कर आई है. हमने अपनी माँग में इतने क़ानूनों की बात नहीं रखी है. मैं 50 साल से आंदोलन कर रहा हूँ. छोटी और बड़ी माँगे जब सरकार के सामने साथ लेकर जाते हैं, तो हमारी छोटी माँगें मान ली जाती है, बड़ी माँगें वहीं रह जाती हैं."
"इस आंदोलन की ख़ासियत ये है कि हमने केवल दो माँग रखी है. सरकार तीनों क़ानूनों को रद्द करें और एमएसपी पर क़ानूनी गारंटी दी जाए. सुप्रीम कोर्ट ने कमिटी की रिपोर्ट आने तक क़ानून स्थगित करने की बात की, सरकार 18 महीने तक स्थगित करने की बात कर रही है, क़ानून रद्द करने की हमारी माँग पर अगर बात आगे नहीं बढ़ रही, तो ठीक है एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर बात की जा सकती है."
अब तक गृह मंत्री अमित शाह के साथ हुई कुछ किसान संगठनों की मुलाक़ात को जोड़ दिया जाए तो सरकार और किसान नेताओं के बीच 12 बैठकें हो चुकी हैं.
किसान नेताओं का कहना है कि एमएसपी के क़ानूनी गारंटी पर विस्तार से चर्चा नहीं हुई है. इसलिए इस मुद्दे पर बात दोबारा शुरू हो सकती है.
अपने बजट भाषण में भी वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने एमएसपी का जिक्र करते हुए कहा, "किसानों को लगात से डेढ़ गुना अधिक एमएसपी अलग-अलग फसलों पर दी गई. गेहूँ किसानों को इस साल एमएसपी से 75000 करोड़ दिए."
तो क्या 18 महीने तक क़ानून को स्थगित करने और एमएसपी पर किसी तरह की क़ानूनी गारंटी देने से किसान आंदोलन ख़त्म हो सकता है?
इस पर शिव कुमार कक्का जी का कहना है, "सरकार और किसानों के बीच इस वक़्त विश्वास का संकट है. हम किस पर विश्वास करें और क्यों करें. सरकार उस क़ानून पर क्यों अड़ी है, जो क़ानून हमें नहीं चाहिए. प्रधानमंत्री जी ने अभी तक आंदोलन को गंभीरता से नहीं लिया. जिस प्रकार उनके मंत्रियों के जवाब बैठकों में आते हैं उससे लगता है कि उनके पास कोई अधिकार नहीं है."
उन्होंने स्पष्ट कहा कि किसान नेता अपनी तरफ़ से कोई प्रस्ताव लेकर बातचीत के लिए नहीं जाएँगे. अगर सरकार कोई प्रस्ताव देती है, तो उस पर चर्चा करने के लिए वो भी तैयार हैं.