जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव में धांधली कैसे बनी पंडितों की जान के लिए मुसीबत
1987 के विधानसभा चुनाव में जीत रहे एक उम्मीदवार को साज़िश के तहत हराया गया. उसी ने आगे चलकर हिज्बुल मुजाहिदीन की नींव रखी और सैयद सलाहुद्दीन के नाम से जाना गया.
1970 में जापानी फ़िल्म निर्देशक अकीरा कुरुसावा की एक फ़िल्म आई थी 'राशोमोन'. इस फ़िल्म का 'राशोमोन इफ़ेक्ट' आम बोलचाल में शामिल हो गया जिसका मतलब ये है कि एक ही चीज़ अलग-अलग कोण से देखने पर अलग-अलग दिखती है.
कुरुसावा की फ़िल्म में हत्या के चार अलग-अलग गवाहों के ज़रिए चार अलग-अलग सच लगने वाली कहानियाँ बयान की गई हैं जबकि इनमें से कोई कहानी सच नहीं होती.
कश्मीर में हिंसा की शुरुआत पर भी एक तरह का 'राशोमोन इफ़ेक्ट' दिखाई देता है. जितने सवाल उतने ही जवाब! कोई कहता है कि इसकी शुरुआत 1983 में हुई थी जब गवर्नर ने फ़ारुक़ अब्दुल्ला की सरकार को बर्ख़ास्त करके जीएम शाह को मुख्यमंत्री बनाया था.
दूसरे कहते हैं कि इसकी शुरुआत 1989 में गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद के अपहरण से हुई थी. लेकिन इससे भी ज़्यादा लोगों का मानना है कि इसकी शुरुआत शायद इससे भी दो साल पहले हुई थी जब विधानसभा के चुनाव में धाँधली कर उन लोगों को विधानसभा में पहुँचने नहीं दिया गया था जिनकी विचारधारा सत्ताधारी लोगों के ख़िलाफ़ थी.
चुनाव में नेशनल कॉन्फ़्रेंस-कांग्रेस गठबंधन की जीत
नवंबर 1986 आते-आते राजीव गाँधी और फ़ारुक़ अबदुल्ला ने तय कर लिया था कि वो राज्य में कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ़्रेंस की सरकार बनाएंगे और अगला विधानसभा चुनाव भी साथ-साथ लड़ेंगे.
वो अनौपचारिक रूप से इस बात पर भी सहमत हो गए थे कि सत्ता में 60 फ़ीसदी भागीदारी नेशनल कॉन्फ़्रेंस और 40 फ़ीसदी भागीदारी कांग्रेस की होगी. जब ये घोषणा हुई कि मार्च 1987 में विधानसभा चुनाव करवाए जाएंगे तो मौलवी अब्बास अंसारी के नेतृत्व में कुछ मुस्लिम राजनीतिक दलों ने मुस्लिम युनाइटेड फ़्रंट (एमयूएफ़ या मफ़) के झंडे तले चुनाव लड़ने का फ़ैसला किया.
जब चुनाव हुए तो बहुत बड़ी तादाद में लोग वोट डालने आए. कश्मीर घाटी में क़रीब 80 फ़ीसदी लोगों और पूरे राज्य में क़रीब 75 फ़ीसदी लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया. जब चुनाव परिणाम आया तो कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ़्रेंस गठबंधन को 75 में से 66 सीटें (40 नेशनल कॉन्फ़्रेंस, 26 कांग्रेस), मुस्लिम युनाइटेड फ़्रंट को 4 और बीजेपी को 2 सीटें मिलीं.
चुनाव में व्यापक धाँधली के आरोप
दिल्ली में इस चुनाव परिणाम को गड़बड़ी वाले राज्य में एक नई शुरुआत की तरह देखा गया, लेकिन श्रीनगर में चुनाव परिणाम आने से पहले ही कांग्रेस-नेशनल कॉन्फ़्रेंस गठबंधन पर चुनाव में धाँधली के आरोप लगाए जाने लगे.
'इंडिया टुडे' के तब के संपादक इंदरजीत बधवार ने पत्रिका के 15 अप्रैल, 1987 के अंक में लिखा, "चुनाव में धाँधली के आरोप राज्य के हर इलाके से आ रहे हैं. पूरे चुनाव परिणाम को घोषित करने में क़रीब एक हफ़्ते की देरी ने विपक्ष के इन आरोपों को और हवा दी है कि चुनाव में व्यापक स्तर पर गड़बड़ी और धाँधली हुई है. इसकी फ़ौरी प्रतिक्रिया ये हो सकती है कि बहुत से लोग फिर अलगाववादी आंदोलन की ओर मुड़ें और इसके संकेत अभी से दिखाई भी देने लगे हैं. फ़ारुक़ अबदुल्ला के सामने एक नई चुनौती है. अगर वो इसका सामना नहीं कर पाते हैं तो 24 फ़ीसदी नए मतदाता विरोध करने के लिए राष्ट्र विरोधी गतिविधियों का सहारा ले सकते हैं."
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धाँधली की ज़रूरत पर सवाल
कश्मीर से जुड़े मामलों पर कई किताब लिख चुकी प्रोफ़ेसर राधा कुमार अपनी बहुचर्चित किताब 'पैराडाइज़ एट वॉर अ पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ़ कश्मीर' में लिखती हैं, "ये समझ में न आने वाली बात है कि सत्ताधारी गठबंधन को चुनाव में धाँधली की ज़रूरत आख़िर क्यों पड़ी? उम्मीद थी कि मुस्लिम युनाइटेड फ़्रंट चुनाव में क़रीब 10 सीटें जीतेगा और 4 सीटें उन्होंने जीती भी.
वो सत्ताधारी गठबंधन के सामने कोई बहुत बड़ी चुनौती पेश नहीं करने जा रहे थे. जैसे ही शुरुआती चुनाव परिणाम आने शुरू हुए और एमयूएफ़ के उम्मीदवार 15 से 20 चुनाव क्षेत्रों में बढ़त लेते दिखाई दिए नेशनल कॉन्फ़्रेंस और कांग्रेस के हल्कों में दहशत फैल गई. चुनाव से पहले और वोटों की गिनती के दौरान फ़्रंट के बहुत से कार्यकर्ताओं को गिरफ़्तार कर लिया गया."
श्रीनगर के अमीरा कदल चुनाव क्षेत्र पर सभी चुनाव विश्लेषकों की नज़रें लगी हुई थी. यहाँ से पूर्व मुख्यमंत्री जीएम शाह के भाई और नेशनल कॉन्फ़्रेंस के उम्मीदवार ग़ुलाम मोहिउद्दीन शाह और एमयूएफ़ की तरफ़ से सैयद मोहम्मद यूसुफ़ शाह चुनाव लड़ रहे थे.
सरकारी अधिकारियों की विवादास्पद भूमिका
लंदन स्कूल ऑफ़ इकॉनॉमिक्स में प्रोफ़ेसर रहे सुमंत्र बोस अपनी किताब 'कश्मीर रूट्स ऑफ़ कॉन्फ़्लिक्ट पाथ्स टु पीस' में लिखते हैं, "इस चुनाव में मतपत्रों को बदल कर मोहिउद्दीन शाह को जितवा दिया गया. शाह अपनी हार मानकर अपने घर चले गए थे, लेकिन निर्वाचन अधिकारी ने उन्हें वापस बुलाकर विजयी घोषित कर दिया. जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट ने इसका पूरा फ़ायदा उठाते हुए माहौल को अपने पक्ष में बनाने की कोशिश की."
घाटी के अधिक्तर चुनाव क्षेत्रों में यही प्रक्रिया दोहराई गई. फ़ारुक़ अब्दुल्ला ने इसका ज़ोरदार खंडन करते हुए कहा कि चुनाव में किसी भी तरह की ग़ड़बड़ी नहीं हुई.
बाद में उन्होंने पत्रकार हरिंदर बवेजा को दिए इंटरव्यू में स्वीकार किया कि "मैं नहीं कह रहा कि चुनाव में गड़बड़ी नहीं हुई, लेकिन मैंने वो गड़बड़ी नहीं की."
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हारे उम्मीदवारों के चुनाव एजेंट चरमपंथी आंदोलन के नेता बने
कश्मीर में काफ़ी समय तक काम कर चुके और बाद में अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष बने वजाहत हबीबुल्लाह अपनी किताब 'माई कश्मीर द डाइंग ऑफ़ द लाइट' में लिखते हैं, "कई लोगों से बातचीत के आधार पर मैं कह सकता हूँ कि अमीरा कदल चुनाव क्षेत्र में जो कुछ हुआ था, सुमंत्र बोस ने उसका बढ़ा-चढ़ा कर विवरण नहीं दिया है. लेकिन चुनाव में गड़बड़ी के संकेत सिर्फ़ दस चुनाव क्षेत्रों में ही मिले वो भी ख़ास तौर से श्रीनगर में. यहाँ पर नेशनल कॉन्फ़्रेंस का आधार वैसे ही कम हो चुका था.
इस तरह के आरोप उन्हीं चुनाव क्षेत्रों में लगाए गए जहाँ नेशनल कॉन्फ़्रेंस के उम्मीदवार जीते थे. बहुत से युवा लोगों ने जो यूसुफ़ शाह के चुनाव एजेंट थे, 1989 में शुरू हुए चरमपंथी आंदोलन का नेतृत्व किया. 1987 के चुनाव में इन लोगों को पब्लिक सेफ़्टी एक्ट के तहत महीनों जेल में बंद रखा गया. उनके साथ अमानवीय व्यवहार हुआ."
चुनाव आयोग से शिकायत नहीं
इस चुनाव में तथाकथित 'बेईमानी' से हारने वालों और नेशनल कॉन्फ़्रेंस की भूमिका पर भी कई सवाल उठे. वजाहत हबीबुल्लाह लिखते हैं, "हारने वालों ने इस पूरे मामले में चुनाव आयोग के हस्तक्षेप की माँग क्यों नहीं की? दूसरे सत्ताधारी गठबंधन का एक तरह से विधानसभा पर एकाधिकार हो जाने के बावजूद उन्हें चुनाव में गड़बड़ी करने की ज़रूरत क्यों महसूस हुई? दरअसल, कश्मीर के लोगों की नज़र में चुनाव आयोग सरकार का एक हिस्सा मात्र था. उनकी नज़र में राज्य और केंद्र सरकार मिलकर कश्मीर के लोगों को उनकी आज़ादी से वंचित रख रही थीं. इसलिए चुनाव आयोग से अपील करने का कोई मतलब नहीं था."
किसी भी धाँधली के ख़िलाफ़ चुनाव आयोग को अपनी तरफ़ से फ़ैसला लेने का अधिकार था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया.
वजाहत हबीबुल्लाह लिखते हैं, "कई सालों बाद उस समय के मुख्य चुनाव आयुक्त ने मुझसे स्वीकार किया कि आयोग के हाथ इस दृष्टि से बँधे हुए थे कि कहीं उसके क़दम से राष्ट्रीय सुरक्षा ख़तरे में न पड़ जाए."
कांग्रेस पर निर्भरता की चिंता
नेशनल कॉन्फ़्रेंस के पास चुनाव में धाँधली करने का एक कारण और भी था. ऊपरी तौर पर 1986 में नेशनल कॉन्फ़्रेंस और कांग्रेस के बीच नज़दीकियाँ थीं, लेकिन अंदर ही अंदर दोनों एक दूसरे को पसंद नहीं करते थे.
वजाहत हबीबुल्लाह लिखते हैं, "फ़ारुक़ अब्दुल्ला सत्ता में आने के लिए कांग्रेस का सहयोग तो चाहते थे, लेकिन वो कांग्रेस के समर्थन पर बहुत अधिक निर्भर भी नहीं रहना चाहते थे. उन्होंने चुनाव में गड़बड़ी इसलिए करवाई ताकि वो कांग्रेस के पिछलग्गू न रहें. अगर वो ऐसा नहीं करते तो एमयूएफ़ विधानसभा में 14 सीटें जीतने में सफल होती और राज्य के मामलों में उसकी आवाज़ को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल होता."
यूसुफ़ शाह बन गए सैयद सलाहुद्दीन
अमीरा कदल से हारने वाले यूसुफ़ शाह ने बाद में अपना नाम सैयद सलाहुद्दीन रख लिया और अलगाववादी संगठन हिज्बुल मुजाहिदीन के प्रमुख बने.
वर्ष 2000 के बाद वो मुज़फ़्फ़राबाद चले गए जहाँ वे मुत्तहिदा जिहाद काउंसिल के प्रमुख भी बन गए.
इस चुनाव में हारने वाले दूसरे लोगों ने भी सीमा पार कर पाकिस्तान का रुख़ किया और वहाँ पर उन्होंने कश्मीर में अशांति पैदा करने के लिए प्रशिक्षण और हथियार लिए.
कई सालों बाद एक जर्मन अख़बार को दिए इंटरव्यू में पाकिस्तान के सैनिक शासक जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ ने स्वीकार किया कि पाकिस्तान की सेना ने भूमिगत कश्मीरी संगठनों के लोगों को कश्मीर में लड़ने के लिए प्रशिक्षित किया था.
रुबैया सईद का अपहरण
1987 के चुनाव में धांधली से सशस्त्र विरोध को हवा ज़रूर मिली, लेकिन अलगाववाद के विस्तार में बड़ी भूमिका निभाई 1989 में गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी रुबैया सईद के अपहरण, मीरवाएज़ मोहम्मद फ़ारूख़ की हत्या और जगमोहन के दोबारा राज्यपाल बनाए जाने ने.
मेडिकल की पढ़ाई कर रही 23 वर्षीय रुबैया सईद का जेकेएलएफ़ ने 8 दिसंबर, 1989 को अपहरण किया था.
मुख्यमंत्री फ़ारुक़ अब्दुल्ला की रज़ामंदी न होने के बावजूद मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने ये सुनिश्चित किया कि राज्य सरकार उनकी बेटी की रिहाई के बदले पाँच चरमपंथियों को रिहा करे.
प्रोफ़ेसर राधा कुमार लिखती हैं, "युवा महिला के अपहरण को कश्मीर की आम जनता ने पसंद नहीं किया था. मीरवाएज़ फ़ारूख़ ने इसे ग़ैर-इस्लामी कहकर इसकी निंदा भी की थी. लेकिन रुबैया के बदले पाँच साथियों की रिहाई से चरमपंथी संगठनों को बहुत बल मिला. जनता ने उनके छोड़े जाने का अर्थ लगाया कि तत्कालीन सरकार कमज़ोर है और उसमें उनकी हिफ़ाज़त करने की ताक़त नहीं है. रुबैया ने बाद में हरिंदर बवेजा से बातचीत में स्वीकार किया कि "इस कलंक को मैं अपने साथ अपनी क़ब्र तक लेकर जाउंगी.''
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कश्मीरी पंडितों का पलायन
जनवरी 1990 में जगमोहन को एक बार फिर जम्मू-कश्मीर का राज्यपाल बनाया गया. उनकी नियुक्ति का कारण था राज्य में फ़ारुक़ अब्दुल्ला और मुफ़्ती मोहम्मद सईद की प्रतिद्वंद्विता.
मशहूर पत्रकार बशारत पीर अपनी किताब 'के फ़ाइल द कॉन्सपिरेसी ऑफ़ साइलेंस' में लिखते हैं, 'फ़ारुक़ अब्दुल्ला को राजनीतिक रूप से कमज़ोर करने के उद्देश्य से गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद ने प्रधानमंत्री वीपी सिंह पर दबाव डालकर जगमोहन को राज्यपाल बनवा दिया. जगमोहन ने ही वर्ष 1984 में फ़ारुक़ को बर्ख़ास्त किया था और उनके फ़ारुक़ से संबंध अच्छे नहीं थे."
19 जनवरी, 1990 को जगमोहन के राज्यपाल का पद सँभालने के साथ ही घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हुआ.
जगमोहन अपनी आत्मकथा 'माई फ़्रोज़ेन टर्बुलेंस इन कश्मीर' में लिखते हैं, "राजभवन में बिताई पहली रात को मैं कभी नहीं भूल सकता. मैं बिस्तर पर लेटा ही था कि मेरे बग़ल में रखे दोनों फ़ोन साथ-साथ बजने लगे. दूसरे छोर पर डरी हुई आवाज़ें बोल रही थीं. एक आवाज़ ने कहा, आज की रात हमारी आख़िरी रात होगी. दूसरी आवाज़ बोली, सुबह होने तक हम सभी कश्मीरी पंडितों को मौत के घाट उतार दिया जाएगा. तीसरी आवाज़ का कहना था, अगर आपने रात में हमें बचाने के लिए हवाई जहाज़ नहीं भेजे तो सुबह आपको हमारी लाशें मिंलेंगी.
कुछ फ़ोन करने वालों ने कहा, आप फ़ोन को होल्ड करिए. आपको सैकड़ों लाउडस्पीकरों से आ रही नारों की आवाज़ सुनाई देगी. इस बीच मेरे पास दिल्ली से अतिरिक्त गृह सचिव का फ़ोन आया कि हमारे पास श्रीनगर से कश्मीरी पंडितों के फ़ोन पर फ़ोन आ रहे हैं. श्रीनगर में कोई भी अधिकारी फ़ोन नहीं उठा रहा है. मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि मैं ऐक्शन ले रहा हूँ."
पूरी घाटी में चरमपंथी हिंसा
लेकिन सुमेघा गुलाटी ने 'स्क्रोल' के 12 जुलाई, 2018 में लिखे लेख 'वाई कश्मीरीज़ आर यूज़िंग द हैशटैग जगमोहन द मर्डरर' में लिखा, "उस समय के एक राजनीतिक टीकाकार मोहम्मद यूसुफ़ टैंग ने जगमोहन पर कश्मीरी पंडितों के पलायन में मदद करने का आरोप लगाया, ताकि अशांति पैदा करने वालों के ख़िलाफ़ वो खुले हाथ से कार्रवाई कर सकें."
ज़ाहिर है, जगमोहन ने इन आरोपों का खंडन किया.
राधा कुमार लिखती हैं, "इस आरोप में सच्चाई भले ही न हो, लेकिन कोई भी अपना घर, सालों से बसाई गृहस्थी, रोज़ी और जायदाद तभी छोड़ता है जब उसे मालूम हो कि अगर वो ऐसा नहीं करेगा तो इसके गंभीर परिणाम होंगे."
चरमपंथी छापामारों ने श्रीनगर में बसें जलाना और पुल तोड़ने शुरू कर दिए. नेशनल कॉन्फ़्रेंस के मुख्यालय पर बम फूटा, बीजेपी के प्रदेश उपाध्यक्ष को गोली मारी गई और दूरदर्शन के प्रमुख लासा कौल की हत्या कर दी गई.
वर्ष 1989 में घाटी में रह रहे तीन लाख कश्मीरी पंडितों में से दो तिहाई लोगों ने 1990 आते-आते घाटी छोड़ दी. तीन महीने बाद मीरवाइज़ फ़ारूख़ की हत्या कर दी गई.
ग़ुलाम नबी ख़्याल ने ग्रेटर कश्मीर में छपे अपने लेख 'हू किल्ड मीरवाइज़' में लिखा, "एक ख़ास किस्म की राजनीतिक विचारधारा पर चलने वाले पाकिस्तानी प्रेस का एक वर्ग मीरवाइज़ का आलोचक हो गया था और वो उन पर भारत का एजेंट होने का आरोप लगाने लगा था. उनके रुबैया के अपहरण को ग़ैर-इस्लामिक कहने ने भी पाकिस्तान में कुछ वर्गों को उनके ख़िलाफ़ कर दिया था."
मीरवाइज़ की शवयात्रा पर फ़ायरिंग
ये साफ़ था कि मीरवाइज़ की हत्या में हिज्बुल मुजाहिदीन का हाथ था, लेकिन कश्मीरी लोगों का ग़ुस्सा दिल्ली पर फूटा जब सुरक्षा बलों ने मीरवाइज़ की शवयात्रा के दौरान लोगों पर गोली चला दी.
राधा कुमार लिखती हैं, "पुलिस के अनुसार गोली तब चलाई गई जब बंदूकधारियों को शवयात्रा की भीड़ में शामिल होते हुए देखा गया. इस गोलीबारी में 50 के आसपास लोग मारे गए और मीरवाइज़ के ताबूत तक को गोलियाँ लगीं."
जगमोहन ने मीरवाइज़ की शवयात्रा में भाग लेने से इनकार कर दिया था.
मीरवाइज़ की हत्या और शवयात्रा पर गोली चलने की घटना के चार दिन बाद उन्हें उनके पद से हटा कर रॉ के पूर्व प्रमुख गैरी सक्सेना को कश्मीर का नया राज्यपाल बना दिया गया.
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