उत्तर प्रदेश चुनाव: जगदंबिका पाल जो सिर्फ़ 31 घंटों तक रहे थे यूपी के मुख्यमंत्री
यूपी के सियासी क़िस्से की छठी कड़ी में रेहान फ़ज़ल बता रहे हैं जगदंबिका पाल के राज्य का मुख्यमंत्री बनने और कोर्ट के फ़ैसले के बाद केवल 31 घंटे बाद अपना पद छोड़ने की कहानी. इस पूरे प्रकरण में राज्यपाल रोमेश भंडारी की भूमिका पर भी कई सवाल उठे थे.
दूरदर्शन पर आज भी अक्सर एक फ़िल्म दिखाई जाती है 'नायक' जिसके हीरो अनिल कपूर को एक दिन के लिए मुख्यमंत्री बना दिया जाता है. वर्ष 1998 में उत्तर प्रदेश में कुछ ऐसा ही हुआ, जब प्रदेश के राज्यपाल रोमेश भंडारी ने जगदंबिका पाल को राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया, लेकिन कोर्ट के फ़ैसले के बाद उन्हें 31 घंटे के अंदर अपना पद छोड़ना पड़ा था.
दरअसल हुआ ये कि 21 फ़रवरी, 1998 को मायावती ने लखनऊ में एक नाटकीय संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया, जिसमें उन्होंने अपनी मंशा साफ़ कर दी कि वो कल्याण सिंह सरकार को गिराने में कोई कसर नहीं रख छोड़ेंगी.
मुलायम सिंह ने भी उसी दिन कुछ संवाददाताओं से कहा कि अगर मायावती बीजेपी की सरकार को गिराने के लिए तैयार हैं, तो वो भी पीछे नहीं हटेंगे. बिल्कुल यही हुआ और उसी दिन क़रीब दो बजे मायावती अपने विधायकों के साथ राजभवन पहुंच गईं. उनके साथ अजीत सिंह की भारतीय किसान कामगार पार्टी, जनता दल और लोकतांत्रिक कांग्रेस के भी विधायक थे.
कल्याण सिंह तुरंत पहुंचे लखनऊ
राजभवन में ही मायावती ने एलान किया कि कल्याण सिंह मंत्रिमंडल में यातायात मंत्री जगदंबिका पाल उनके विधायक दल के नेता होंगे. उन्होंने राज्यपाल रोमेश भंडारी से अनुरोध किया कि कल्याण सिंह मंत्रिमंडल को तुरंत बर्ख़ास्त करें, क्योंकि उसने अपना बहुमत खो दिया है और उसकी जगह जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाएं.
उस समय मुख्यमंत्री कल्याण सिंह लखनऊ से बाहर गोरखपुर में अपनी पार्टी के लिए चुनाव प्रचार कर रहे थे. जैसे ही उन्हें ख़बर मिली कि उनको हटाने के प्रयास शुरू हो गए हैं, वो अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर 5 बजे तक लखनऊ लौट आए. उन्होंने राज्यपाल को समझाने की कोशिश की कि उन्हें विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने का मौक़ा दिया जाए, लेकिन रोमेश भंडारी के सामने उनकी एक नहीं चली.
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नहीं मानी गई थी राष्ट्रपति शासन की सिफ़ारिश
राज्यपाल रोमेश भंडारी ने मन बना लिया था कि वो मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को विधानसभा में बहुमत सिद्ध करने का कोई मौक़ा नहीं देंगे. दरअसल ठीक 5 महीने पहले 21 अक्तूबर, 1997 को उत्तर प्रदेश विधानसभा में एक अभूतपूर्व घटना घटी थी.
उस समय प्रमोद तिवारी के नेतृत्व में कांग्रेस विधायक विधानसभा अध्यक्ष के आसन के पास पहुंच कर अपना विरोध प्रकट कर रहे थे. थोड़ी देर में वहां समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के विधायक भी पहुंच गए और वहां हिंसा शुरू हो गई थी.
हालात इतने बिगड़ गए कि विधायक एक दूसरे पर माइक और कुर्सियों से हमला करने लगे. मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को सुरक्षा बलों के संरक्षण में सदन से बाहर निकाला गया था. सदन में जो कुछ हुआ उससे राज्यपाल रोमेश भंडारी बहुत नाराज़ हुए थे. वो राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाना चाहते थे लेकिन केंद्र में राष्ट्रीय मोर्चे की सरकार ने राज्यपाल की सिफ़ारिश नहीं मानी थी.
केंद्र में मंत्री मुलायम सिंह यादव ने वो सिफ़ारिश मनवाने के लिए अपना पूरा ज़ोर लगा दिया, लेकिन गृह मंत्री इंद्रजीत गुप्ता और स्वयं राष्ट्रपति केआर नारायणन ने उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगाने को अपना समर्थन नहीं दिया. अपनी सरकार बचाने के लिए कल्याण सिंह ने उनको समर्थन देने वाले सभी विधायकों को मंत्री बनाने का फ़ैसला किया. नतीज़ा ये हुआ कि कल्याण सिंह मंत्रिमंडल में 94 सदस्य हो गए थे.
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राज्यपाल ने रात 10 बजे दिलाई शपथ
मायावती से मुलाक़ात के बाद राज्यपाल रोमेश भंडारी ने नाटकीय फ़ैसला लेते हुए कल्याण सिंह सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया. उसके बाद उसी रात यानी 21 फ़रवरी की रात 10 बजे जगदंबिका पाल को राज्य के 17वें मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाई गई.
इस शपथ ग्रहण समारोह में मायावती समेत कल्याण सिंह के सभी राजनीतिक विरोधी मौजूद थे. जगदंबिका पाल पहले कांग्रेस के सदस्य हुआ करते थे, लेकिन फिर वो तिवारी कांग्रेस के सदस्य बन गए थे. वर्ष 1997 में उन्होंने नरेश अग्रवाल और राजीव शुक्ला के साथ मिलकर लोकतांत्रिक कांग्रेस का गठन किया था. जगदंबिका पाल के साथ नरेश अग्रवाल ने उप मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली.
राज्यपाल को जगदंबिका पाल को शपथ दिलाने की इतनी जल्दी थी कि राजभवन का स्टाफ़ शपथ ग्रहण समारोह के बाद राष्ट्रगान बजाना ही भूल गया. अगले दिन लखनऊ में लोकसभा चुनाव के लिए वोट डाले जाने थे, लेकिन विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने राज्यपाल के इस फ़ैसले के विरोध में स्टेट गेस्ट हाउस में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठने का फ़ैसला किया.
लखनऊ के राज्य सचिवालय में भी अजीब सी स्थिति पैदा हो गई. उत्तर प्रदेश के इतिहास में पहली बार हुआ कि दो लोग राज्य के मुख्यमंत्री पद का दावा कर रहे थे. हालात बिगड़ते देख बीजेपी ने राज्यपाल के निर्णय की वैधता को इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दे डाली.
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इलाहाबाद हाइकोर्ट ने कल्याण सिंह को किया बहाल
22 फ़रवरी, 1998 को बीजेपी नेता नरेंद्र सिंह गौड़ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में राज्यपाल के फ़ैसले के ख़िलाफ़ याचिका दायर की और अगले ही दिन के 3 बजे हाईकोर्ट ने राज्य में कल्याण सिंह सरकार को बहाल करने के आदेश दे दिए.
इस फ़ैसले से राज्यपाल रोमेश भंडारी और जगदंबिका पाल खेमे को तगड़ा धक्का लगा. उन्होंने हाईकोर्ट के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में तुरंत अपील की. जगदंबिका पाल को 31 घंटों के अंदर मुख्यमंत्री के पद से हटना पड़ा था. हाईकोर्ट ने कल्याण सिंह को निर्देश दिए थे कि वो 3 दिनों के अंदर सदन में विश्वास मत प्राप्त करें.
26 फ़रवरी को हुए शक्ति परीक्षण में कल्याण सिंह को 225 मत और जगदंबिका पाल को 196 विधायकों का समर्थन मिला. इस पूरी प्रक्रिया की निगरानी के लिए सदन में 16 वीडियो कैमरे लगाए गए थे. कल्याण सिंह को सिर्फ़ 213 विधायकों के समर्थन की ज़रूरत थी, लेकिन उन्हें इससे 12 मत अधिक प्राप्त हुए.
दो दिन के अंदर ही जगदंबिका पाल को छोड़कर लोकतांत्रिक कांग्रेस के सभी विधायक कल्याण सिंह के खेमे में वापस चले गए. और इस तरह जगदंबिका पाल सिर्फ़ 31 घंटों तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रह पाए.
दिलचस्प बात ये थी कि 5 विधायकों को, जिनमें 4 बहुजन समाज पार्टी के थे, एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत जेल में बंद कर दिया गया था. हालांकि उन्हें सदन आकर विश्वास मत में शामिल होने की अनुमति प्रदान की गई थी.
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प्रेस नोट जारी कर स्थिति की गई साफ़
उस समय आरएस माथुर उत्तर प्रदेश के मुख्य सचिव हुआ करते थे. उन्होंने अपनी किताब 'क्राफ़्ट ऑफ़ पॉलिटिक्स: पावर फ़ॉर पेटरोनेज' में लिखा, ''जगदंबिका पाल इस बात पर अड़ गए कि जब तक उन्हें हाईकोर्ट के उस आदेश की प्रति नहीं मिल जाती, जिसमें उनकी नियुक्ति को ग़ैर क़ानूनी बताया गया, वो अपने पद से इस्तीफ़ा नहीं देंगे.
दूसरी तरफ़ बीजेपी के कुछ विधायक जगदबिंका पाल को ज़बरदस्ती मुख्यमंत्री कार्यालय से निकाले जाने पर आमादा थे. कुछ लोगों का मानना था कि कल्याण सिंह के दोबारा मुख्यमंत्री बनाए जाने के बारे में राजभवन से आदेश जारी होना चाहिए.
जब मैंने इस बारे में क़ानून अधिकारी एनके मल्होत्रा से सलाह ली, तो उन्होंने कहा कि अगर अदालत ने जगदंबिका पाल की नियुक्ति को अवैध ठहराया, तो इसका मतलब ये हुआ कि कल्याण सिंह का कार्यकाल बीच में टूटा ही नहीं था. इन परिस्थितियों में वो अभी भी मुख्यमत्री हैं.
सवाल उठा कि इस संदेश को मीडिया और प्रदेश की जनता तक कैसे पहुंचाया जाए. काफ़ी सोच विचार के बाद इसका हल ये निकाला गया कि कल्याण सिंह मंत्रिमंडल की बैठक बुलाएं और उसके बाद एक प्रेस नोट जारी हो, जिससे सारी स्थिति स्पष्ट हो जाए. कल्याण सिंह इसके लिए तुरंत तैयार हो गए और जगदंबिका पाल भी मुख्यमंत्री के कक्ष से बाहर आ गए.''
रोमेश भंडारी को नैनीताल जाने से रोका गया
कल्याण सिंह के दोबारा सत्ता में आने के 3-4 दिनों के अंदर ही राज्यपाल रोमेश भंडारी प्रदेश की ग्रीष्मकालीन राजधानी नैनीताल के लिए रवाना हो गए. जब वो कार से नैनीताल जा रहे थे, तो बीजेपी के नाराज़ कार्यर्ताओं ने उनकी कार को नैनीताल की सीमा के पास रोक कर उसे आगे नहीं जाने दिया.
स्थानीय प्रशासन ने भी ये कह कर अपने हाथ खड़े कर दिए कि उनके पास राज्यपाल के आने की कोई पूर्व सूचना नहीं थी. रोमेश भंडारी ने वहीं से नाराज़ होकर मुख्य सचिव आरएस माथुर को फ़ोन मिलाया.
उसके बाद माथुर के पास कल्याण सिंह का फ़ोन आया. उन्होंने माथुर से चिल्ला कर कहा कि इस नौटंकी को तुरंत रोका जाए. राज्यपाल के पद की गरिमा का हर हालत में आदर किया जाना चाहिए. आनन-फानन में प्रशासन ने राज्यपाल भंडारी के आगे बढ़ने का रास्ता साफ़ किया.
राष्ट्रपति नारायणन ने प्रधानमंत्री इंदर कुमार गुजराल को पत्र लिख कर राज्यपाल भंडारी पर आरोप लगाया कि उन्होंने उनकी इच्छा के विरुद्ध कल्याण सिंह सरकार को बर्ख़ास्त किया था.
रोमेश भंडारी ने अपने पक्ष में दलील देते हुए कहा था कि उनसे पहले के राज्यपाल मोती लाल वोरा ने भी बिना विधानसभा का सत्र बुलाए मुलायम सिंह सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया था. बाद में न्यायपालिका के हस्तक्षेप से कल्याण सिंह के दोबारा मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ़ हुआ था.
राजनीति की विडंबना देखिए कि 2014 में इन्हीं जगदंबिका पाल ने कांग्रेस से इस्तीफ़ा दे कर बीजेपी के टिकट पर डुमरियागंज से चुनाव लड़ा और सांसद भी बने. 2019 में भी वो डुमरियागंज के सांसद बनने में सफल रहे थे.
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