बिहार से निकले भारत के पहले दिल के डॉक्टर की दिलचस्प कहानी
यक़ीन करना भले मुश्किल हो लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं के लिए बदहाल बिहार की एक उपलब्धि जिसकी बहुत चर्चा नहीं होती है. पिछले दिनों मुज़्ज़फ़रपुर में होने वाले सैकड़ों बच्चों की मौत की ख़बरों के बीच बिहार का खस्ताहाल मेडिकल सुविधाओं के चिथड़े उड़ते हुए लोगों ने देखा है. ऐसे में यक़ीन करना मुश्किल है कि इसी बिहार ने देश को पहला कार्डियोलॉजिस्ट यानी 'दिल का डॉक्टर' दिया था.
बिहार का एक बड़ा हिस्सा इन दिनों बाढ़ की तबाही झेल रहा है. इससे पहले राज्य के इन्हीं हिस्सों में सूखे और जल संकट का दौर था.
अब बाढ़ के बाद इन इलाकों में बीमारियों का प्रकोप बढ़ेगा. पिछले दिनों नीति आयोग ने हेल्थ इंडेक्स पर राज्यों की एक सूची जारी की. जिसमें बिहार सबसे निचले पायदान से ठीक ऊपर है.
पिछले दिनों मुज़्ज़फ़रपुर में होने वाले सैकड़ों बच्चों की मौत की ख़बरों के बीच बिहार का खस्ताहाल मेडिकल सुविधाओं के चिथड़े उड़ते हुए लोगों ने देखा है.
ऐसे में यक़ीन करना मुश्किल है कि इसी बिहार ने देश को पहला कार्डियोलॉजिस्ट यानी 'दिल का डॉक्टर' दिया था.
डॉक्टर श्रीनिवास भारत के पहले कॉर्डियोलॉजिस्ट थे, इस बात की पुष्टि 2017 में तब हुई जब भारत सरकार को डाक विभाग ने श्रीनिवास पर एक पोस्टल इनवेलेप जारी किया, जिस पर डॉक्टर श्रीनिवास भारत के पहले कार्डियोलॉजिस्ट का स्टैम्प लगा हुआ है.
वैसे श्रीनिवास के परिवार वालों को इस बात की जानकारी तो थी, लेकिन डाक विभाग ने परिवार से इस तथ्य की पुष्टि करने को कहा. श्रीनिवास के बेटे तांडव आइंस्टीन समदर्शी अमरीका के मिसीसिपी मेडिकल सेंटर कार्डियोलॉजी विभाग में डॉक्टर हैं.
तांडव आइंस्टीन समदर्शी बताते हैं, "2017 में डाक विभाग ने प्रमाण पूछा था, हमारे लिए ये समस्या थी. लेकिन वह हार्वर्ड से पढ़े हुए थे तो मुझे मालूम था कि वहां डॉक्यूमेंटेशन को काफी संभाल कर रखा जाता है."
कैसे हुई थी पुष्टि?
"हमने वहां उन लोगों को पत्र लिखा और कहा कि पिताजी जब यहां आए थे उस वक्त का कोई डाक्यूमेंटेशन है या नहीं. दो दिन बाद जवाब आया कि पिताजी की ट्रेनिंग से संबंधित सारे पेपर और एयरमेल अर्काइव हैं. तीसरे दिन मुझे वो सब जानकारी मिल गई. उन डॉक्यूमेंटेशन को टाइम लाइन पर बिठा कर देखा गया तो मालूम चला कि वे इकलौतै भारतीय थे इस बैच में जिन्हें पॉल डि व्हाइट से ट्रेनिंग लेने का मौका मिला था."
पॉल डि व्हाइट को मार्डन कार्डियोलॉजी का फ़ादर कहा जाता है.
समदर्शी ये भी बताते हैं कि 1950 में श्रीनिवास की ट्रेनिंग ख़त्म हुई थी और उसी साल हार्वर्ड के मैसाच्यूट्स जेनरल हॉस्पिटल के कार्डियोलॉजी विभाग से इस्तीफ़ा देकर अमरीका में हृदय रोग के प्रचार प्रसार में जुट गए थे.
वैसे दिलचस्प यह है कि लंबे समय तक भारत में ये माना जाता रहा था कि डॉक्टर पद्मावती (शिवारामाकृष्णा अय्यर) भारत की पहली कार्डियोलास्टि थीं. 102 साल की पद्मावती अभी भी जीवित हैं और उन्हें 1992 में पद्म विभूषण भी मिल चुका है. लेकिन पद्मावती का चिकित्सीय करियर 1953 से शुरू हुआ था जबकि श्रीनिवास 1950 से भारत में आकर डॉक्टरी करने लगे थे.
ये इनवेलेप आठ नवंबर, 2017 में बिहार के तत्कालीन गवर्नर सतपाल मलिक ने जारी किया था. डाक विभाग के स्पेशल कवर इनवेलेप जारी होने के बाद से ये बहस समाप्त होती दिख रही है.
समदर्शी बताते हैं कि डॉक्टर पद्मावती भारत की पहली महिला कार्डियोलॉजिस्ट हैं, इसमें कहीं कोई शक नहीं है.
बहरहाल, डॉक्टर श्रीनिवास का बिहार के दरभंगा ज़िले (अब समस्तीपुर ज़िले) के गढ़सिसई गांव में 1919 में जब जन्म हुआ था तब उनके गांव में स्कूल तक नहीं था. ऐसे में श्रीनिवास को पढ़ाई के लिए ननिहाल के गांव वीरसिंहपुर ड्योढ़ी जाना पड़ा.
समस्तीपुर के किंग एडवर्ड हाई स्कूल से 1936 में मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद श्रीनिवास पटना साइंस कॉलेज पहुंच गए.
साल 1938 से 1944 के बीच श्रीनिवास ने पटना मेडिकल कॉलेज (जो उस वक्त प्रिंस ऑफ़ वेल्स मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल) से अपनी पढ़ाई पूरी की.
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डॉक्टरी की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद श्रीनिवास को नौकरी भी मिल गई. लेकिन वे नौकरी हासिल करने के बाद थमे नहीं बल्कि विदेश जाकर विशेषज्ञता हासिल करने का रास्ता तलाशने में जुट गए.
फ़ादर ऑफ़ मॉर्डन कॉर्डियोलॉज़ी से ट्रेनिंग
उन्हें मौका भी मिल गया और स्कॉलरशिप के जरिए वे 1947 में अमरीका पहुंच गए. पॉल डि व्हाइट से प्रशिक्षण के बाद श्रीनिवास चाहते तो अमरीका में ही ठहर सकते थे लेकिन वे बिहार लौट आए और पटना मेडिकल कॉलेज में काम शुरू किया.
तांडव आइंस्टीन समदर्शी के मुताबिक उस वक्त पीएमसीएच में कार्डियोलॉजी का कोई विभाग ही नहीं था. ऐसे में अलग अलग विभागों में ही श्रीनिवास को अपने मरीज तलाशने होते थे और जैसे तैसे उनका इलाज करना होता था.
ऐसे में एक दिन श्रीनिवास ने वो काम किया जो अमूमन सरकारी विभागों में होता नहीं है. उस दिलचस्प किस्से के बारे में समदर्शी बताते हैं, "एक बिल्डिंग खाली हुई थी तो अस्पताल प्रबंधन उसमें संक्रामक रोगों का विभाग शुरू करना चाहता था. लेकिन मेरे पिता ने रातों रात उसमें हृदयरोगियों को डाल दिया. फिर हंगामा हो गया कि श्रीनिवास ने सरकारी बिल्डिंग हड़प ली है."
"उनकी शिकायत हुई. एक कड़क स्वास्थ्य निदेशक होते थे कर्नल बीसी नाथ. उन्होंने पिताजी को बुलवा लिया और सीधे पूछा कि आपको सरकारी नौकरी करनी है कि नहीं, आपने सरकार की बिल्डिंग हड़प लिया, बिना परमिशन के आपने ऐसे कैसे किया?"
"तो मेरे पिताजी ने उन्हें अपनी तालीम के बारे में बताया और कहा कि मैं हृदय रोगियों को एक जगह देखना चाहता हूं तो बीसी नाथ ने कहा ठीक है कल मैं आपको बुलाकर फिर मिलूंगा. कल पिताजी जब अस्पताल पहुंचे तो उस जगह पर पूरा विभाग तैनात था, नर्स, दूसरे स्टाफ़, बेड और अन्य सुविधाएं. सब रातों रात हो गया. ये उस दौर में ब्यूरोक्रेसी की ताक़त और काम करने का नज़रिया था."
इंदिरा गांधी की मदद
जल्दी ही श्रीनिवास ने पटना में इंदिरा गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ़ कार्डियोलॉजी खड़ा कर दिया. इसकी कहानी भी उतनी ही दिलचस्प है. तांडव आइंस्टीन समदर्शी बताते हैं, "1966 में इंदिरा गांधी पहली बार प्रधानमंत्री बनीं तो पिताजी ने उनसे मिलने का समय लिया . समय मिल गया तो पिताजी ने इंदिरा जी से कहा कि हमलोग इस सेंटर का नाम आपके नाम पर रखना चाहते हैं और अनुमति चाहते हैं.
उन्होंने अपने सचिव से कहा,"हाथों हाथ अनुमति पत्र मिलने के बाद जब पिताजी चलने लगे तो इंदिरा जी ने कहा आप इतना बड़ा संस्थान बना रहे हैं तो अर्थ की मदद नहीं चाहिए, पिताजी ने कहा वो भी चाहिए. तो उन्होंने पूछा कितने की मदद चाहिए. पिताजी ने कहा दस करोड़ रुपये मिल जाते तो अच्छा होता. इंदिरा जी ने कहा ठीक है. पिताजी पटना लौटे और उस पैसे की व्यवस्था उनके यहां आने से पहले हो चुकी थी."
श्रीनिवास से जुड़े इन किस्सों को आज बिहार की स्वास्थ्य सुविधाओं से जोड़कर देखिए तो ऐसा लगता है कि हालात लगातार बिगड़ते ही गए.
मौजूदा समय में बिहार की स्वास्थ्य सुविधाओं के लचर हाल पर तांडव समदर्शी बताते हैं, "कुछ तो राजनीतिक सोच की कमी है और कुछ ट्रेनिंग की भी कमी है. हम लोग हार्वर्ड में जब कोर्स कर रहे थे उस वक्त भी कंपैसन का कोर्स डॉक्टरों को पढ़ाते थे और बौद्ध भिक्षुक यह पढ़ाता था. आज भी पढ़ाता है. अपने यहां दूसरों के दुख को लेकर चिंता का भाव कहीं नहीं दिखता है, सिस्टम में सब कोई मैटिरियलिस्टक होने के पीछे भाग रहा है."
वैसे दिलचस्प यह है कि आज जो ईसीजी मशीन हर हॉस्पिटल में दिखाई देती है, वो श्रीनिवास ही पहली बार भारत लेकर आए थे. श्रीनिवास ने इंसानी पहचान के लिए ईसीजी से जुड़ा सिद्धांत भी दिया था, जिसमें उन्होंने कहा था कि दो इंसानों के ईसीजी एकसमान नहीं होते.
श्रीनिवास की उपलब्धियां
तांडव आइंस्टीन समदर्शी बताते हैं, "पहले ईसीजी मशीन होती थी, उसमें बड़ी- बड़ी मशीनें होती थीं, तार-वार हाथ में लगाया जाता था, पांवों को बाल्टी जैसे उपकरण में रखा जाता था. अब जो पेपर निकलता है और स्टायलस मूव करता है, वो मशीन पहली बार भारत पिताजी लेकर आए थे. उस मशीन से पिताजी ने ना जाने कितने नामचीन लोगों की ईसीजी बनाई थी."
वैसे ये मशीन आज भी ठीक ठाक काम कर रही है, श्रीनिवास ने इसे लेकर बिहार सरकार को प्रस्ताव भी दिया था कि बेली रोड पर बने संग्रहालय में इसे रखने के लिए एक कोना दिया जाए, लेकिन उस पर बिहार सरकार ने कुछ ध्यान नहीं दिया.
समदर्शी कहते हैं, "पता नहीं सरकार का क्या सोचना है उस पर लेकिन हमलोगों ने महसूस किया कि उस संग्रहालय में उन लोगों को जगह मिलनी चाहिए जिन्होंने बिहार का नाम दुनिया भर में रोशन किया."
इतना ही नहीं श्रीनिवास ने ही पहली बार कहा था कि दो जीवित इंसानों के ईसीजी आपस में नहीं मिलते, मतलब ईसीजी से भी इंसान की पहचान हो सकती है. 1958 ने उनके इस अध्ययन को ब्रिटेन की स्कॉटलैंड यार्ड पुलिस ने अपने यहां लागू किया. इस अध्ययन को श्रीनिवास ईवी मैथड ऑफ़ आईडेंटीफिकेशन कहा जाता है.
वैकल्पिक चिकित्सीय पद्धति पर भी श्रीनिवास ने 1960 में ही विचार रखा था. श्रीनिवास 1977 में जब रिटायर हुए तो उन्होंने एलोपैथी, होम्योपैथी, यूनानी, आयुर्वेद और नेचुरापैथी जैसे सभी विधाओं को एक साथ मिलाकर पॉलीपैथी के जरिए लोगों को इलाज शुरू किया. उन्होंने बीमारी के कारण और उसके कारगर इलाज की उपलब्धता पर काम करने लगे.
आठ नवंबर, 2010 तक श्रीनिवास पटना के बेहद व्यस्ततम डॉक्टर बने रहे और साथ ही दस किताबों का लेखन भी किया. वैसे दिलचस्प यह भी है कि वे भारत की 1993 में दूसरे विश्व धर्म संसद में वैज्ञानिक अध्यात्मिकी पर बोलने के लिए आमंत्रित किए गए थे. इस घटना के ठीक सौ साल पहले 1893 में इसी धर्म संसद में पहली बार दुनिया ने विवेकानंद को सुना था.
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श्रीनिवास जैसी प्रतिभाएं दुनिया भर में मुकाम ज़रूर बनाती रहीं लेकिन बिहार हेल्थ इंडेक्स में लगातार पिछड़ता गया, ये अजीब विरोधाभास है.