दिल्ली का लाल क़िला सत्ता का केंद्र कैसे बना, क्या है इसकी ऐतिहासिक अहमियत
मुग़ल शासक शाहजहां से लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक लाल क़िला ऐतिहासिक घटनाक्रम का गवाह रहा है.
भारतीय गणतंत्र की 72वीं वर्षगांठ के मौक़े पर जब कुछ आंदोलनकारी किसानों ने लाल क़िले पर चढ़कर सिख धर्म के झंडे 'निशान साहिब' फहरा दिया.
इस घटना ने सोशल मीडिया से लेकर आम लोगों के बीच एक तरह के असंतोष को जन्म दिया. कई लोगों ने सोशल मीडिया पर लिखा कि इससे लाल क़िले की ग़रिमा को चोट पहुंचाई गई है. इसे दिल्ली पुलिस की असफलता के रूप में भी देखा जा रहा है.
दिल्ली पुलिस की क्राइम ब्रांच शाखा 26 जनवरी को दिल्ली में हुई हिंसा की जांच कर रही है. लेकिन सवाल ये उठता है कि आख़िर हिंदुस्तान की सत्ता के लिए लाल क़िले की अहमियत क्या है.
बीबीसी ने इस सवाल की तलाश में मुग़लिया सल्तनत, ब्रिटिश राज एवं आधुनिक भारत के साथ पुरानी पड़ रही लाल क़िले की दीवारों में इतिहास के लम्हों को खोजने की कोशिश की है.
मुमताज के जाने पर बना लाल क़िला
लाल क़िले के इतिहास को देखें तो पता चलता है कि साल 1649 में मुग़ल शासक शाहजहां ने इस क़िले को बनवाया था.
ये उस दौर की बात है जब दिल्ली को सातवीं बार एक शहर के रूप में विकसित किया जा रहा था. लाल क़िले ने मुग़लिया सल्तनत का स्वर्णिम युग भी देखा और मुग़लिया सल्तनत का सूरज ढलते हुए भी देखा है.
इसने राजनीतिक षड्यंत्र, प्यार-मोहब्बत और शहंशाहों का अंत भी देखा है. साल 1857 की क्रांति के दौरान लाल क़िला ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ विद्रोह का भी गवाह बना. दिल्ली पर कई किताबें लिखने वालीं लेखिका राना सफ़वी ने अपनी किताब 'सिटी ऑफ़ माई हार्ट' में लाल क़िले से जुड़ीं कई अहम जानकारियां जुटाई हैं.
वे लिखती हैं कि साल 1628 में जब शाहजहां आगरा के ताज पर अपने बाबा अकबर और पिता जहांगीर की तरह बैठे तो उन्हें लगा कि आगरे का क़िला उनके लिए बेहद छोटा है. तभी उन्होंने फ़ैसला किया कि वे दिल्ली के किनारे यमुना के तट पर एक नया क़िला बनाएंगे जो कि आगरा और लाहौर के क़िले से भी बड़ा होगा. कुछ लोग ये भी मानते हैं कि शाहजहां को अपनी बेग़म मुमताज महल के गुजर जाने के बाद आगरा से अरुचि हो गई.
सफ़वी अपनी किताब में शाहजहां की आत्मकथा 'पादशाहनामा' को उद्धृत करती हैं. वो लिखती हैं, "मुसलमान हाकिमों और हिंदू भविष्यवक्ताओं की सलाह पर फिरोज़ शाह कोटला और सलीमगढ़ के बीच जगह की चुनी गयी थी."
साल 1639 की 29 अप्रैल को शाहजहां ने लाल क़िले के निर्माण का काम शुरू करने का आदेश दे दिया था. इसके बाद 12 मई से निर्माण का काम शुरू हुआ. लगभग इसी दौर में शाहजहानाबाद कस्बे को बनाने का भी आदेश दिया गया.
शाहजहां ने अपनी बेग़म और बेटियों को घर, मस्जिदें और बगीचे बनाने के लिए प्रेरित किया. उनकी बेटी जहां आरा ने चांदनी चौक बाज़ार को बनाया. इसके बाद यात्रियों के लिए बेग़म सराय स्ट्रीट बनाई गई जहां आजकल दिल्ली का टाउन हाल है.
शाहजहां के बेटे दारा शिकोह का घर वहां बनाया गया जहां आज निगम बोध घाट है (एक श्मशान स्थल). मुग़लिया सल्तनत के बादशाह शाहजहां ने 1648 की 15 जून को लाल क़िले में प्रवेश किया जिसे इस दौर में क़िला-ए-मुबारक़ कहा गया.
कहा जाता है कि लाल क़िले में लाल पत्थर लगाया गया था उसे नदी के रास्ते फतेहपुर सीकरी के पास लाल पत्थर की खान से दिल्ली लाया गया था. इसे लाल क़िला इसलिए कहा गया क्योंकि ये लाल बलुआ पत्थर से बना था. शाहजहां का दौर मुग़लिया सल्तनत के स्वर्णिम दिनों के रूप में गिना जाता है. अहमद लाहौरी ने विश्व प्रसिद्ध ताजमहल बनाया था. उन्होंने ही शाहजहानाबाद को डिज़ाइन करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की.
इस इमारत को ध्यान से देखें तो इसमें इस्लामी, मुग़ल, फ़ारसी और हिंदू स्थापत्य शैली की झलक मिलती है. इसके बाद इसकी तर्ज पर राजस्थान, आगरा और दिल्ली में भी दूसरी इमारतें और बाग़-बगीचे बनाए गए.
लाल क़िले का वो इलाका जहां बादशाह आम लोगों से मिलकर उनके दुख-दर्द सुना करते थे, उसे दीवान-ए-आम कहा गया. वहीं, दीवान-ए-ख़ास में वह अपने मंत्रियों और अधिकारियों से मिला करते थे.
दारा शिकोह शाहजहां के सबसे बड़े बेटे थे और शाहजहां के बाद गद्दी उन्हें ही मिलने वाली थी. शाहजहां दारा शिकोह से काफ़ी स्नेह किया करते थे. उन्होंने अपने दूसरे बेटों को दूरस्थ इलाकों में राज करने के लिए भेजा लेकिन दारा शिकोह को अपने क़रीब ही रखा. बताया जाता है कि शाहजहां अपने बड़े बेटे दारा शिकोह को हर साल दो करोड़ रुपये दिया करते थे.
राजनीतिक षड्यंत्र का गवाह
इस क़िले ने मुग़लिया सल्तनत में दो भाइयों के बीच षड्यंत्र और युद्ध भी देखा. दारा शिकोह जहां धर्मग्रंथों का अनुवाद करवाते हुए दूसरे धर्मों के रहस्य समझकर खुद को एक आदर्श राजा के रूप में स्थापित करने की कोशिश में थे, वहीं औरंगजेब मुग़लिया सल्तनत का ताज हासिल करने के लिए संघर्ष कर रहे थे.
बर्कले यूनिवर्सिटी में इतिहास के प्रोफ़ेसर मुनीस फ़ारुक़ी मानते हैं कि साल 1657 में शाहजहां की तबीयत ख़राब हुई और उनके बाद शासन करने के लिए कोई नहीं था. औरंगजेब ने इस अवसर का फायदा उठाकर अपने ही भाई के ख़िलाफ़ षड्यंत्र रचा. औरंगजेब मानते थे कि दारा शिकोह दुश्मनों और सैन्य मामलों में निर्णय लेने में कमज़ोर हैं. और ये भी सोचते थे कि धार्मिक मामलों में रुझान की वजह से दारा शिकोह सत्ता संभालने के लिए योग्य नहीं रह गए हैं.
दोनों भाइयों में छिड़ा सत्ता संघर्ष युद्ध के मैदान तक पहुंच गया. सन् 1659 में आगरा के पास सामूगढ़ में दोनों भाइयों के बीच युद्ध हुआ और जैसा कि औरंगजेब ने अंदेशा जताया था, दारा शिकोह की हार हुई. दारा शिकोह के अफ़गान कमांडर मलिक जिसने उन्हें बचाने का वादा किया था, उसने ही दारा को औरंगजेब के हवाले कर दिया.
इसके बाद 8 सितंबर के दिन लाल क़िला जाने वाली सड़क पर भारी भीड़ जुटी. लोग दारा शिकोह को देखने के लिए जमा हो रहे थे. और दारा शिकोह मुग़ल सैनिकों से घिरे हुए थे.
ये कोई विजय जुलूस नहीं था. ये शर्मसार करने वाला मौक़ा था. दारा और उनके बेटे मंडल को एक हाथी पर बैठने को कहा गया.
एक इतालवी लेखक अपनी किताब 'स्टोरिया दो मोगोर' (मुग़ल) में लिखते हैं, "वह मोतियों की माला नहीं पहने थे जो कि एक युवराज को शोभा देता. न ही वह कोई शाही मुकुट पहने हुए थे. न ही किसी आम व्यक्ति की तरह कश्मीरी शॉल ओढ़े हुए थे. उनके पीछे एक सैनिक तलवार लेकर चल रहा था. सैनिक को आदेश था कि अगर वे भागने का प्रयत्न करें तो उनका सर क़लम कर दिया जाए."
कभी बेहद अमीर और ताकतवर राजकुमार दारा शिकोह को बेहद बुरी हालत में रहने के लिए मजबूर किया गया.
इसके बाद दारा शिकोह को औरंगजेब की अदालत में पेश किया गया जहां उन्होंने एकतरफ़ा ढंग से उन्हें मृत्युदंड दे दिया. इसके अगले दिन दारा शिकोह को मौत दे दी गई और उनका सिर औरंगजेब को पेश किया गया. दारा शिकोह के पार्थिव शरीर को बिना किसी क्रियाकर्म के हुमायूं की कब्र के पास दफनाया गया.
औरंगजेब ने अपनी बेटी जब्दुत-निसां की शादी दारा शिकोह के बेटे सिफिर से कर दी. दारा शिकोह को किताबें पढ़ना पसंद था और शाहजहां ने उनके लिए एक लाइब्रेरी बनवाई थी. ये लाइब्रेरी दिल्ली के कश्मीरी गेट के पास कहीं हो सकती है.
सत्ता और ताकत का केंद्र
इतिहासकार देबाशीष दास अपनी क़िताब 'रेड फोर्ट - रिमेम्बरिंग द मैग्निफिसेंट मुग़ल्स' में शाही लोगों के दिन भर के रूटीन का ज़िक्र करते हैं.
वह लिखते हैं, "शाहजहां सुबह चार बजे उठ जाया करते थे. वह झरोखा-ए-दर्शन पर आकर लोगों को अपनी कुशलक्षेम के बारे में बताया करते थे. कुछ लोग दर्शनीय समुदाय से जुड़े थे जो कि बादशाह को देखने के बाद ही अपना काम शुरू किया करते थे. ये एक हिंदू परंपरा थी."
औरंगजेब की मृत्यु के बाद मुग़ल सल्तनत और लाल क़िले के पलायन का भी दौर आ गया.
साल 1739 में ईरान के नादिर शाह ने दिल्ली पर हमला बोल दिया. उसने लाल क़िले से मयूरासन और कोहिनूर हीरा लूट लिया.
रोहिल्ला, मराठा, सिख, अफ़गान, और ब्रितानियों ने दिल्ली पर आक्रमण किया और लूटपाट मचाई. साल 1748 में सरहिंद में मोहम्मद शाह रंगीला अफ़गान घुसपेठिए अहमद शाह अब्दाली से युद्ध लड़ते हुए मारे गए.
इतिहासकार जसवंतलाल मेहता अपनी क़िताब 'एडवांस स्टडी इन द हिस्ट्री ऑफ़ मॉडर्न इंडिया 1707 - 1813' में लिखते हैं, "मोहम्मद शाह की मौत के बाद उनका बेटा अहमद शाह दिल्ली का शासक बना. लेकिन वह अपनी माँ के दोस्त जावेद ख़ान का मोहरा मात्र था. सफदरजंग, जो कि अवध के नवाब थे, उन्होंने जावेद ख़ान को मरवा दिया."
"इसी दौर में मराठा सेनाएं उत्तर भारत के इलाकों को जीत रही थीं. सफदरजंग मराठों से युद्ध करने के लिए तैयार नहीं थे. वह सिर्फ अपना प्रांत अवध बचाना चाहते थे. इस वजह से उन्होंने मुग़लों की तरफ से मराठा साम्राज्य से संधि कर ली. इसके मुताबिक़, बाहरी मराठा पचास लाख रुपये, नागपुर और मथुरा की फौजदारी, पंजाब और सिंध की चौथ और अजमेर - आगरा की सूबेदारी की क़ीमत पर अब्दाली से लोहा लेने के लिए तैयार हो गए."
ये वो दौर था जब मुग़लिया सल्तनत में आंतरिक संघर्ष भी चल रहा था. लेकिन मराठों ने इसमें रुचि नहीं ली. संधि के मुताबिक़, उन्होंने दिल्ली में प्रवेश नहीं किया.
साल 1757 जनवरी में अब्दाली ने मुग़लों को हराकर दिल्ली जीत ली. अहमद शाह ने अपने बेटे तैमूर की शादी आलमगीर की दूसरी बेटी से कर दी. शाह ने भी दो मुग़ल राजकुमारियों से शादी कर ली.
इसके बाद शाह अपनी सभी महिलाओं, नौकरों और करोड़ों रुपये की संपत्ति लेकर अफ़गानिस्तान लौट गया. उसने आलमगीर को नया मुग़ल शासक बनाया. इसके बाद जब आलमगीर की हत्या हो गई तो उसके सबसे बड़े बेटे शाह आलम ने स्वयं को शहंशाह घोषित कर दिया.
मराठों ने अफ़गान और मुगल साम्राज्य के मंत्री इमाद-उल-मुल्क समेत कई अन्य लोगों के बीच जारी कलह का फायदा उठाया. मराठों ने दिल्ली पर दावा किया और साल 1788 से लेकर 1803 तक दिल्ली पर शासन किया.
ब्रिटिश राज की शुरुआत
वहीं, ब्रितानी सैनिकों ने दिल्ली को लॉर्ड लेक के नेतृत्व में उपनिवेश बनाया. शाह आलम द्वितीय, जो कि मराठों की छत्रछाया में ग़ुलाम थे, उन्होंने ब्रिटिश राज स्वीकार कर लिया.
अब ताकत ब्रितानी ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों में चली गई और सभी अहम फ़ैसले नियुक्त निवासी द्वारा लिए जाते थे जिन्हें क़िलेदार कहा जाता था.
सन् 1813 में एक क़िलेदार को प्रतिवर्ष 12 लाख रुपये का पारिश्रमिक मिला करता था. उसके पास लाल किले और आसपास के क्षेत्रों की सत्ता थी. इस दौर में दिल्ली अपेक्षाकृत रूप से शांत था. लेकिन 1857 में दिल्ली पर एक बार फिर आक्रमण किया गया.
साल 1837 में बहादुर शाह जफ़र ने मुग़लिया सल्तनत की बागडोर संभाली. और अपने पूर्वजों की तरह झरोखा दर्शन की परंपरा को जारी रखा. मुस्लिम और हिंदू दोनों समुदायों में उनके लिए सम्मान बराबर था. हालांकि, उनकी हैसियत एक पेंशनर ब्रितानी क़िलेदार से ज़्यादा नहीं रही.
साल 1857 के अप्रैल महीने में एक ब्रितानी सैनिक मंगल पांडेय ने बंगाल की बैरकपुर छावनी में ब्रिटिश राज के ख़िलाफ़ धावा बोल दिया. आक्रोश की ये लहर मेरठ होते हुए दिल्ली पहुंच गई.
इसके बाद गुस्साए सिपाहियों ने कुछ ब्रितानी अधिकारियों, उनके परिवारों और विश्वासपात्र सेवकों को मार दिया.
मई महीने में बहादुर शाह ज़फ़र ने इन सैनिकों का समर्थन करते हुए आंदोलन का समर्थन कर दिया. हालांकि, वह इसका नेतृत्व करने के लिए राज़ी नहीं थे. विद्रोह की आवाज़ें झांसी, अवध, कानपुर, बिहार और बंगाल से आईं. लेकिन खराब योजना और नेतृत्व में कमी की वजह से ये कोशिश असफल हो गई.
ब्रितानियों ने चार महीने तक संघर्ष करने के बाद लाल क़िले पर एक बार फिर सत्ता हासिल कर ली. इससे सैनिक और ज़्यादा गुस्से में आ गए. उन्होंने इलाक़े को तहसनहस करने के साथ साथ लूटपाट शुरू कर दी. इसके बाद ब्रितानी साम्राज्य की कड़ी प्रतिक्रिया से डरकर कई लोगों ने दिल्ली छोड़ दी. बहादुर शाह ज़फ़र इनमें से एक थे.
बहादुर शाह ज़फ़र के ख़िलाफ़ ब्रिटिश राज के प्रति हिंसा भड़काने, ब्रितानी सत्ता को पलटने और ईसाइयों को मारने के आरोप में केस दर्ज किया गया. उनका मामला दीवान-ए-आम में सुना गया और उन्हें रंगून भेज दिया गया. उनके सभी बेटों को मार दिया गया.
ब्रिटिश राज में लाल क़िला
इसके बाद ब्रितानियों ने लाल क़िले को एक राजमहल से आर्मी छावनी में तब्दील कर दिया. इसके लिए उन्होंने कई चीजों में बदलाव किया. क़िला कई युद्धों में क्षतिग्रस्त हो गया था, इसलिए इसकी मरम्मत की गई.
मुगल साम्राज्य की छत जो कि सोने और चांदी से बनी हुई थी, वो साम्राज्य के पतन के साथ ही ग़ायब हो गई. दीवान-ए-आम को सैनिकों के लिए अस्पताल में बदल दिया गया. दीवान-ए-ख़ास को एक आवासीय भवन में तब्दील कर दिया गया.
1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों से सत्ता ले ली. साल 1877, 1903, और 1911 में लाल क़िले में दिल्ली दरबार लगाया गया. इस कदम ने बता दिया कि अब सत्ता राजसी घरानों से अंग्रेजों के हाथ में हस्तांतरित हो चुकी. साल 1911 के दिल्ली दरबार में घोषणा की गई कि राजधानी कोलकाता में बनेगी.
इस समय ब्रिटेन के किंग जॉर्ज और क्वीन मैरी मुस्समान बुर्ज से झरोखा दर्शन के लिए आए.
आज़ादी की आवाज़
कहा जाता है कि सुभाष चंद बोस ने जब भारतीय हिंद फौज के सैनिकों को संबोधित किया तो वह बहादुर शाह ज़फ़र की कब्र पर मौजूद थे. इसी संबोधन में बोस ने 'चलो दिल्ली' का नारा दिया था.
द्वितीय विश्व युद्ध के समय भारतीय हिंद फौज कुछ न कर सकी. जापान की हार और नेताजी की अचानक हुई मृत्यु की वजह से ये आंदोलन तितरबितर हो गया. तीन फौजी अफ़सर मेजर जनरल शाहनवाज़ ख़ान, कर्नल प्रेम सहगल और कर्नल गुरुबख़्श सिंह ढिल्लन को लाल क़िले में बंदी बनाकर रखा गया और उन पर यहीं मुकदमा चलाया गया.
कांग्रेस ने आईएनए डिफेंस कमेटी बनाई. इसमें जवाहर लाल नेहरू, भूलाभाई देसाई, आसफ अली, तेज बहादुर सप्रू, कैलाश नाथ काटजू (सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज मार्कंडेय काटजू के बाबा) ने इन तीनों सैनिक अफ़सरों की तरफ से केस लड़ा. ये केस नवंबर 1945 से मई 1946 तक सुना गया.
ये वो दौर था जब चुनाव कराने की योजना बनाई जा रही थी. और इस वजह से राजनीतिक लाभ के लिए इस मामले को काफ़ी अहमियत दी जा रही थी. ब्रिटिश इंटेलिजेंस सर्विस को लगा कि पूरा देश एकजुट है क्योंकि तीनों अफसर देश के तीन बड़े धर्मों का प्रतिनिधित्व करते हैं.
जब ये केस लड़ा जा रहा था तब एक नारा बुलंद हुआ - 'चालीस करोड़ लोगों की आवाज़ - सहगल, ढिल्लन, शाहनवाज़.' इन तीनों लोगों को लाल क़िले के सलीमगढ़ की तरफ में रखा गया.
ऐसा माना जा रहा था कि इन तीनों को मृत्यु दंड या देश से बाहर भेजा जा सकता है. लेकिन ब्रिटिश आर्मी कमांडर इन चीफ़ ने इनकी रिहाई का आदेश दे दिया.
इसके बाद भारत आज़ाद होने पर नेहरू ने लाल क़िले पर राष्ट्रीय झंडा फहराया. साल 2003 के दिसंबर महीने तक लाल क़िले को भारतीय सेना के कैंप के रूप में इस्तेमाल किया जाता था.
लेकिन फिलहाल इसकी देखरेख भारतीय पुरातत्व विभाग करता है. साल 2007 में यूनेस्को ने लाल क़िले को अंतरराष्ट्रीय विरासत का दर्जा दे दिया है.