जानिए, बिहार में महिलाओं के भरोसे कैसे टिकी है, ज्यादातर उम्मीदवारों की सियासी किस्मत?
नई दिल्ली- अगर ये कहा जाय कि बिहार से लोकसभा पहुंचने के ख्वाहिशमंद उम्मीदवारों को महिला वोटरों को रिझाना ज्यादा जरूरी है, तो इसमें बहुत हद तक सच्चाई है। इस तथ्य को अलग नजरिए से देखें तो अगर किसी प्रत्याशी ने महिला मतदाताओं को नाराज कर दिया, तो उनका लोकसभा पहुंचने का चांस आधे से भी कम हो सकता है। 2015 में नीतीश कुमार बीजेपी से अलग होकर लालू यादव के साथ चुनाव में भारी बहुमत से जीते थे, तो उसके पीछे भी महिला वोटर्स को 'साइलेंट फोर्स' (silent force) माना गया था। बिहार चुनाव में महिला वोटर्स की अहमियत कितनी है, इसका अंदाजा इसी से लगता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में राज्य की 40 में से आधे से कहीं ज्यादा यानी 26 सीटों पर महिलाओं का वोट प्रतिशत (Vote Share) पुरुषों से काफी ज्यादा था। इस तथ्य के आधार पर ये कहें कि इन 26 सांसदों को लोकसभा भेजने के पीछे महिलाओं का किरदार अहम था, तो शायद यह गलत न होगा। अगर मौजूदा चुनाव की बात करें, तो राज्य में महिला वोटरों की संख्या में बीते पांच वर्षों में भारी इजाफा हो चुका है। यानी अबकीबार वो पिछली बार से भी ज्यादा उम्मीदवारों का सियासी भाग्य तय करने में सक्षम हो हैं।
महिलाओं की सियासी हिस्सेदारी
यह भी अजीब विडंबना है कि बिहार की जो आधी आबादी पूरे राज्य की किस्मत तय करने में अहम भूमिका निभाने लगी है, राजनीति में उनकी खुद की मौजूदगी के आंकड़े बहुत निराश करने वाले हैं। मसलन अभी बिहार में 40 में से सिर्फ 3 महिला सांसद हैं और 243 सदस्यों वाली विधानसभा में उनकी हिस्सेदारी महज 28 विधायकों की है। ये वही बिहार है, जिसने दुनिया को पहले गणतंत्र से परिचय कराया था; और जहां की राजनीति पर उस दौरान महिलाओं का बराबरी का दबदबा कायम था। लेकिन, लगता है कि राजनीतिक पार्टियों को यहां सिर्फ महिलाओं के वोट से दरकार है, वे सियासत में उन्हें उचित भागीदारी देने के लिए तैयार नहीं है। मसलन इस चुनाव में एनडीए (NDA)ने महज 3 महिलाओं को उम्मीदवार बनाया है, जबकि आरजेडी-कांग्रेस के गठबंधन ने 5 महिलाओं को ही टिकट थमाया है। इसलिए बिहार मेंं महिलाओं की सियासी ताकत का विश्लेषण करने से पहले इस तथ्य को समझ लेना जरूरी था।
महिलाओं की सियासी ताकत
पिछले लोकसभा चुनाव में बिहार के मिथिलांचल इलाके की कुछ सीटों पर तो महिलाओं का वोट शेयर (Vote Share) पुरुषों के मुकाबले 10% से भी ज्यादा था। जिन सीटों पर महिलाओं के वोट शेयर में पुरुषों से बहुत ज्यादा अंतर था, वे हैं- झंझारपुर, समस्तीपुर, दरभंगा, मधुबनी, खगड़िया और पूर्णिया। बिहार की जिन सीटों पर पुरुषों से महिलाओं का वोट शेयर ज्यादा था, उनमें से अधिकतर उत्तर बिहार की सीटें हैं और इसके पीछे उस इलाके के पुरुषों का रोजगार की तलाश में बाहर जाना एक बहुत बड़ा कारण माना जा सकता है। मतलब, वे रोजगार के कारण मतदान कर पाने से वंचित रह जाते हैं। अगर लोकसभा चुनाव 2019 की बात करें, तो इसबार बिहार में 2014 के मुकाबले महिला मतदाताओं की संख्या 40% और बढ़ चुकी है। इस चुनाव में राज्य में 3 करोड़ से ज्यादा महिला वोटर हैं, जो कुल मतदाताओं का 47% है। यानी अगर घर से बाहर रहने वाले पुरुष मतदाता इसबार भी मतदान देने नहीं आए, तो यहां की महिलाएं अपनी सियासी हैसियत दिखाने में निश्चित तौर पर एकबार फिर सफल होने वाली हैं।
एनडीए ने मौजूदा चुनाव में महिला उम्मीदवारों पर ज्यादा भरोसा नहीं दिखाया है,जबकि ये हकीकत है कि उनका राजनीतिक भाग्य महिला वोटर्स के 'साइलेंट सपोर्ट' (silent Support) के भरोसे ही टिका हुआ है। क्योंकि, जिन 25-26 सीटों पर पिछलीबार महिलाओं का वोट प्रतिशत 50% से ज्यादा था, उनमें से 13 पर भाजपा (BJP), 4 पर उसकी सहयोगी एलजेपी (LJP),3 पर राजद (RJD),2 पर कांग्रेस और 1-1 सीटों पर जेडीयू (JDU),आरएलएसपी (RLSP) और एनसीपी (NCP) विजयी रही थी।
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महिला मतदाता और मोदी-नीतीश फैक्टर
नीतीश कुमार ने लालू यादव को नाराज करके शराबबंदी का फैसला तामील कराया था, तो उसके पीछे उनकी सोच स्पष्ट थी। वे महिलाओं के बीच अपना एक खास वजूद कायम करना चाहते थे। इकोनॉमिक टाइम्स की खबर के मुताबिक बीजेपी को इसबार भी नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की योजनाओं एवं नीतियों के दम पर महिला मतदाताओं का उसके पक्ष में मतदान करने का पूरा यकीन है। केंद्र की उज्ज्वला योजना, स्वच्छ भारत मिशन और सौभाग्य योजना ने ग्रामीण महिलाओं में अपनी एक पैठ बना ली है। वहीं नीतीश कुमार 2005 से ही साइकिल योजना, नैपकिन योजना, कन्या विकास योजना के चलते महिला वोटरों में बेहद लोकप्रिय हैं। अखबार ने फर्स्ट टाइम वोटर्स (First time voters) से बातचीत के आधार पर बताया है कि साइकिल योजना, घर-घर में शौचालय और डिजिटल इंडिया का भी पहली बार वोट देने वाली युवतियों में खासा असर देखने को रहा है। हालांकि, शराबबंदी कानून के उल्लंघन की घटनाओं से महिलाओं के पीड़त वर्ग में मायूसी भी देखी जा सकती है।
सेल्फ हेल्प ग्रुप्स (self help groups) का रोल
दरभंगा जिले में राज्य सरकार के जीविका प्रोजेक्ट के कोऑर्डिनेटर इंद्रनाथ झा के मुताबिक यहां की महिलाओं को जागरूक बनाने में सेल्फ हेल्प ग्रुप्स (self help groups) भी बहुत बड़ा रोल निभा रहे हैं। इनके कारण महिलाओं को ज्यादा आजादी मिली है। केंद्र की आजीविका मिशन (Centre's Ajeevika Mission) से भी महिलाओं को काफी राहत मिली है, जो उन्हें रोजी-रोटी चलाने के लिए वित्तीय सहायता मुहैया (micro-financing scheme के तहत) कराता है। जब इस तरह की सेल्फ हेल्प ग्रुप्स (self help groups) से जुड़ी महिलाएं आपस में मिलती-जुलती हैं, तो उनके बीच चुनाव को लेकर भी चर्चा होना स्वभाविक है। ऐसे में जिनके जीवन में बदलाव आ रहा है, उनका फैसला बहुत बड़ा सियासी रोल निभाने में सक्षम हो सकता है।
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