ग़ुलाम नबी आज़ाद कश्मीर के लिए बीजेपी के खांचे में कितने फ़िट?
आज़ाद के कांग्रेस छोड़ने का एलान करते ही उनके समर्थन में अब तक 100 से ज़्यादा कश्मीरी नेता पार्टी छोड़ चुके हैं और आज़ाद जल्द ही अपनी पार्टी की घोषणा कर सकते हैं.
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के क़द्दावर नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद ने पार्टी छोड़कर जम्मू-कश्मीर की राजनीति में वापसी का एलान करके भारतीय जनता पार्टी के कश्मीर एजेंडा में परिवर्तन की अटकलों को जन्म दे दिया है.
अक्सर टीकाकारों का कहना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ निकटता और कश्मीर से संबंधित स्पष्ट और राष्ट्रवादी विचार रखने वाले आज़ाद ने अगर नया राजनीतिक मोर्चा बनाया और बीजेपी के साथ कोई परोक्ष या प्रत्यक्ष समझौता किया, तो बीजेपी जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री बनाने की पुरानी मांग छोड़ भी सकती है.
भारत के पांच प्रधानमंत्रियों की कैबिनेट में पिछले 50 साल के दौरान महत्वपूर्ण मंत्रालयों को संभालने वाले ग़ुलाम नबी आज़ाद ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी को छोड़कर जम्मू-कश्मीर की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने की घोषणा पिछले हफ्ते की थी.
इस घोषणा के होते ही जम्मू-कश्मीर में 100 से अधिक कांग्रेस नेताओं और दर्जनों छोटे बड़े कार्यकर्ताओं ने उनके समर्थन में कांग्रेस पार्टी छोड़ दी.
कांग्रेस के लिए आज़ाद की यह घोषणा न सिर्फ कश्मीर बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक भूकंप थी क्योंकि वह कांग्रेस की निर्णायक कार्यसमिति के लंबे समय से सदस्य होने के साथ-साथ पार्टी के टॉप 10 नेताओं में शामिल थे.
कांग्रेस ने अपनी प्रतिक्रिया में आज़ाद को 'बीजेपी का एजेंट' बता दिया और अक्सर राजनैतिक वर्ग उन्हें कश्मीर में नरेंद्र मोदी की 'प्रॉक्सी' बता रहे हैं.
पत्रकार और विश्लेषक अहमद अली फै़याज़ ने ट्वीट में कहा, "आज़ाद के विरोधियों के लिए उन्हें बीजेपी का एजेंट कहना आसान नहीं होगा क्योंकि नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी दोनों ने बारी बारी भाजपा के साथ सत्ता में भागीदारी की है."
कश्मीर में 'प्रॉक्सी पॉलिटिक्स' के 75 साल
अधिकांश पर्यवेक्षक कहते हैं कि राजनीतिक समूहों या नेताओं को नई दिल्ली का एजेंट कहने की परंपरा शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने 1947 में शुरू की थी, जब वह उस समय के महाराजा हरि सिंह का विरोध करना छोड़कर उन्हीं की मातहती में कश्मीर के इमरजेंसी एडमिनिस्ट्रेटर बने थे.
बाद में उनको भी इंदिरा गांधी की प्रॉक्सी के तौर पर कश्मीर में राजनीति करनी पड़ी थी.
जम्मू से संबंध रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार और प्रसिद्ध विश्लेषक ज़फ़र चौधरी कहते हैं, "जम्मू-कश्मीर में सभी राजनीतिक दल नई दिल्ली की प्रॉक्सी ही तो रहे हैं. अंतर सिर्फ इतना है कि पहले वे कश्मीर में कांग्रेस के एजेंडे को पूरा करते थे और अब वह भाजपा के उद्देश्यों को पूरा कर रहे हैं."
ज़फ़र कहते हैं कि आजाद का पर्दे के पीछे एजेंडा जो भी हो लेकिन उनकी जम्मू कश्मीर के राजनीतिक परिदृश्य में धमाकेदार वापसी से भाजपा को नहीं बल्कि क्षेत्रीय पार्टियों को अधिक नुक़सान होगा.
"स्पष्ट है आज़ाद इस नए राजनैतिक गठबंधन का चेहरा होंगे, इसलिए हिंदू मुख्यमंत्री नहीं बल्कि जम्मू का रहने वाला मुसलमान ही मुख्यमंत्री हो सकता है."
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क्या आज़ाद के लिए मुख्यमंत्री बनना आसान है?
प्रसिद्ध विश्लेषक तरुण उपाध्याय कहते हैं कि धमाकेदार घोषणा करके मीडिया में छा जाना एक अलग बात है. "सवाल चुनाव में वोट हासिल करने का है. जिस कांग्रेस को आज़ाद ने छोड़ा है वह जम्मू में हिंदुओं को रिझाने के लिए सॉफ्ट हिंदुत्व का कार्ड पहले भी खेल चुकी है."
वह कहते हैं कि "1983 में कांग्रेस की जीत हिंदू कार्ड के द्वारा ही हुई थी. अब जबकि आज़ाद मुक़ाबले में सामने होंगे तो कांग्रेस ऐसा फिर से कर सकती है. और आज़ाद हाल का संसदीय चुनाव जम्मू से ही हार चुके हैं."
तरुण कहते हैं कि सिर्फ आज़ाद की छवि पर चुनाव नहीं जीता जा सकता है.
इस राय से ज़फ़र चौधरी भी सहमत नज़र आते हैं. वह कहते हैं, "आज़ाद की पूरे जम्मू कश्मीर में एक राजनीतिक पहचान है लेकिन अगर चुनाव इस साल नहीं हुए तो उनके समर्थकों में जो उत्साह इस समय है वह ठंडा पड़ सकता है."
लेकिन कुछ विश्लेषक कहते हैं कि आज़ाद वास्तव में भाजपा की कश्मीर पॉलिसी का एक नया मोहरा हैं.
नई दिल्ली निवासी प्रसिद्ध विश्लेषक भारत भूषण कहते हैं, "भाजपा ही आज़ाद के साथ समझौता करने के लिए हिंदू मुख्यमंत्री की मांग छोड़ सकती है. आज़ाद कश्मीर नहीं बल्कि जम्मू के रहने वाले हैं और बाक़ायदा मुसलमान हैं."
"अगर वो कश्मीर के मुख्यमंत्री बनते हैं तो मोदी सरकार पश्चिम एशिया के देशों के साथ संबंधों को और गहरा कर सकती है क्योंकि खाड़ी के देशों के साथ भारत के अंदरूनी और वैश्विक हित जुड़े हैं."
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क्या आज़ाद की नज़र है दिल्ली के तख़्त पर?
आज़ाद बेशक एक कश्मीरी राजनेता हैं लेकिन वह आधी सदी से भारत की राष्ट्रीय राजनीति के महत्वपूर्ण नेता रहे हैं.
कांग्रेस पार्टी में कुछ वर्षों से चल रही उथल-पुथल के बीच जब कई कांग्रेसी नेताओं ने पार्टी को गांधी परिवार से अलग करके जनतांत्रिक तौर पर नया राष्ट्रीय अध्यक्ष चुनने की पहल की थी तो आज़ाद उसमें शामिल थे.
कुल मिलाकर ऐसे 23 नेता थे और इसे कांग्रेस के अंदर असंतुष्ट नेताओं का समूह या जी-23 कहा गया. आज़ाद ने कांग्रेस से अलग होने की घोषणा की तो जी-23 के कई नेताओं ने दिल्ली में उनके साथ मुलाक़ात की.
कुछ लोग तो कहते हैं कि आज़ाद की हालत पंजाब के कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसी होगी यानी उन्हें न तो राष्ट्रीय राजनीति में कुछ मिला ना पंजाब में कोई भूमिका मिली.
भारत भूषण भी मानते हैं कि आज़ाद की नज़र दिल्ली के ही तख़्त पर होगी और वह राष्ट्रीय राजनीति में बड़ी भूमिका अदा करना चाहेंगे. लेकिन इसके लिए आज़ाद को दिल्ली में बैठे बड़े कांग्रेस नेताओं की ज़रूरत होगी.
भारत भूषण के अनुसार, "ऐसे समय में जब राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा शुरू करने की घोषणा की है आज़ाद ने राहुल के विरुद्ध प्रोपेगैंडा मुहिम छेड़ दी है जिससे भाजपा ही का काम आसान हो गया है."
"फिर भी अगर राहुल की यह मुहिम सफल हुई और इस साल के अंत में हिमाचल प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस की जीत हुई तो कोई बड़ा लीडर आज़ाद के साथ नहीं जाएगा."
क्या यह कश्मीर में राजनीति की वापसी है?
यहां के राजनैतिक व सामाजिक समूह आज़ाद की कश्मीर की राजनीति में वापसी को एक सकारात्मक परिवर्तन समझते हैं.
एक राजनीतिक कार्यकर्ता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि "अनुच्छेद 370 की समाप्ति के बाद कश्मीर की राजनीति में जैसे किसी ने पॉज़ बटन दबा दिया था. राजनेता या तो नज़रबंद रहे या विभिन्न मुक़दमों में सुनवाई के साथ व्यस्त रहे."
"आज़ाद की वापसी एक बड़ी घटना है लगता है अब राजनैतिक सरगर्मियां शुरू होंगी."
ऐसे कई अन्य राजनैतिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि 'एक अनिर्वाचित उप-राज्यपाल प्रशासन चला रहे हैं और नियुक्तियों में राजनेताओं का चरित्र हरण करते है. आज़ाद की वापसी से कम से कम मुख्यधारा की राजनीति बहाल हो जाएगी.'
लेकिन कुछ लोग समझते हैं कि कश्मीर की राजनीति को दिल्ली विरोधी दृष्टिकोण से अलग करने की प्रक्रिया कई साल से जारी है.
प्रसिद्ध पत्रकार और विश्लेषक हारून रेशी कहते हैं, "यहां की राजनीति दिल्ली के विरुद्ध नारेबाज़ी और बयानबाज़ी पर आधारित थी. मोदी सरकार ने उस चलन को ख़त्म करने की घोषणा बहुत पहले की थी.आज़ाद ज़ाहिर तौर पर तो धर्मनिरपेक्ष नेता हैं लेकिन कश्मीर पर मोदी सरकार की नीतियों का उन्होंने अभी तक कोई विरोध नहीं किया है."
"ऐसे में भाजपा को उनके साथ कोई समझौता करने में परेशानी नहीं होगी. राजनीति अवश्य बहाल होगी लेकिन अब यह राजनीति निर्माण, विकास और प्रशासनिक सुधारों पर आधारित होगी."
उनका विचार है कि 'भारत-पाक दोस्ती और अलगाववादियों के साथ वार्ता भाजपा की नई प्लेबुक में नहीं हैं.'
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