Hindi Diwas 2022 : इन महान विभूतियों के विचार जानकर हिंदी पर महसूस करेंगे गर्व
राजभाषा हिंदी के बारे में साहित्य से जुड़ी विभूतियों ने क्या बातें कही हैं ? क्या हिंदी हीन भावना से ग्रस्त करती है ? जवाब और महान विभूतियों के विचार जानिए- hindi divas 2022 quotations of litterateurs
नई दिल्ली, 14 सितंबर : हिंदी दिवस हर साल 14 सितंबर को मनाया जाता है। मुगलों की हुकूमत के बाद अंग्रेजी शासन में भारत में कई भाषाओं का आधिकारिक इस्तेमाल हुआ। इसमें फारसी और अंग्रेजी शामिल रहे। हिंदी का इस्तेमाल घटने लगा। ऐसे में कहा जाने लगा कि अपने ही देश में हिंदी दोयम दर्जे की भाषा बन गई है। आजाद भारत के 75 साल के इतिहास में ये जानना काफी दिलचस्प है कि हिंदी के बारे में साहित्य से जुड़ी विभूतियों के क्या विचार थे। हिंदी की एक खूबसूरती ये भी है कि इसके मंचों पर उर्दू से जुड़े ,साहित्यकार और शायर भी सम्मान पाते हैं। मुनव्वर राणा ने कभी कयूम नाशाद (Qayyum Nashad) का शेर चेतावनी भरे लहजे में पढ़ा था- 'अदब के नाम पर चर्बी बेचने वालों, अभी वो लोग जिंदा हैं जो घी पहचान लेते हैं।' उन्होंने कहा था कि अच्छा लिखा जाने पर हिंदी-उर्दू प्रेमी उतनी ही मोहब्बत देते हैं। पढ़िए हिंदी पर विभूतियों के कथन
बापू ने क्या कहा
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का मानना था कि हृदय की कोई भाषा नहीं, हृदय हृदय से सीधा संवाद करता है। हिंदी हृदय की भाषा है।
प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, 'जिस देश को अपनी भाषा और साहित्य के गौरव का अनुभव नहीं है, वह उन्नत नहीं हो सकता।'
मैथिलीशरण गुप्त
1954 में पद्मभूषण से सम्मानित मैथिलीशरण गुप्त का जन्म उत्तर प्रदेश की झांसी में हुआ। गुप्त की जयंती यानी तीन अगस्त को कवि दिवस के रुप में मनाया जाता है। हिंदी पर उन्होंने लिखा, 'है भव्य भारत ही हमारी मातृभूमि हरी-भरी। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा और लिपी है नागरी।' कविता लेखन के जरिए हिंदी साहित्य की सेवा करने वाले गुप्त को राष्ट्रपिता गांधी ने राष्ट्रकवि उपाधि से सम्मानित किया था।
अपनी भाषा के प्रयोग पर जोर
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जिक्र किए बिना आधुनिक हिंदी का विमर्श अधूरा है। इस साहित्यकार का नाम वैसे तो हरिश्चंद्र था। बाद में इनकी प्रतिभा के मुरीद काशी के विद्वानों ने इन्हें भारत का चंद्रमा यानी 'भारतेन्दु' उपाधि दी। भारतेन्दु के दौर में सरकारी भाषा फारसी थी। अंग्रेजी का वर्चस्व बढ़ता जा रहा था। साहित्यिक रचनाएं ब्रजभाषा में हो रही थीं। फारसी से प्रभावित भाषा उर्दू में भी लेखन शुरू हो गया था। भारतेन्दु ने खड़ी बोली का विकास किया। आज जो हिंदी हम लिखते-बोलते हैं, वह भारतेंदु की ही देन है। यही कारण है कि उन्हें आधुनिक हिंदी का जनक माना जाता है। आधुनिक हिंदी के जन्मदाता भारतेंदु ने ही हिंदी के नाटकों की भी शुरुआत की। हिंदी भाषा की उन्नति उनका मूलमंत्र था -
निज भाषा उन्नति लहै सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के मिटे न हिय को शूल॥
भारतेंदु दूसरे देशों से उन्नत शिक्षा और ज्ञान के खिलाफ नहीं थे। हालांकि, उनका मानना है कि इसका प्रचार-प्रसार मातृभाषा में किया जाना चाहिए।
विविध कला शिक्षा अमित, ज्ञान अनेक प्रकार।
सब देसन से लै करहू, भाषा माहि प्रचार॥
पूर्व प्रधानमंत्री ने UN में बनाया इतिहास
स्वामी दयानंद सरस्वती ने कहा, हिंदी द्वारा संपूर्ण भारत को एक सूत्र में पिरोया जा सकता है। शायद इसी आधार पर पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने संयुक्त राष्ट्र के मंच पर भी हिंदी में भाषण दिया। ऐसा करने वाले वे पहले प्रधानमंत्री रहे। कवि के रूप में लोकप्रिय वायपेयी ने कभी लिखा, 'काल के कपाल पर लिखता मिटाता हूं।'
युवा रचनाकारों ने जगाई उम्मीदें
साहित्यिक विभूतियों से इतर आधुनिक भारत यानी 1990 के दशक के बाद से वर्तमान दौर तक कुछ ऐसे रचनाकार हैं, जिनकी चर्चा होनी चाहिए। इन युवा रचनाकारों के भागीरथ प्रयास से युवा पीढ़ी हिंदी के प्रति जिज्ञासु बन रही है। इन विभूतियों और मां हिंदी के बेटों में सबसे लोकप्रिय नाम डॉ कुमार विश्वास का है। इन्होंने हिंदी को ब्रांड बनाने में उल्लेखनीय योगदान दिया है। शैलेष लोढ़ा, आलोक श्रीवास्तव, अमीश त्रिपाठी, अन्नू कपूर और अमन अक्षर का है।
हिंदी युगबोध से कट गई
'बाजार की हिंदी या हिंदी का बाजार' हमें फैसला लेना होगा। उन्होंने कई बार कहा है, हिंदी का सबसे बड़ा नुकसान बेटे-बेटियों ने किया है। माताएं और भाषाएं शामियानों से बड़ी नहीं होती। हिंदी युगबोध से कट गई है। आधुनिक रचनाओं के स्वागत में कुमार विश्वास का काव्यांश है---
नवल होकर पुराना जा रहा है तुमको सूचित हो
पुन: यौवन सुहाना आ रहा है तुमको सूचित हो
जिसे सुनकर कभी तुमने कहा था, मौन हो जाए
वो धुन सारा जमाना गा रहा है तुमको सूचित होसमर जो शेष था वो जय हुआ है तुमको सूचित हो
समय का तेज मुझमें लय हुआ है तुमको सूचित हो
सृजन है अर्थ से वंचित, सदा ये सार था जिनका
इसी का अवधारणा का क्षय हुआ है तुमको सूचित हो
भाषा ऐसी न हो जो लाइब्रेरी की किताबों में दफन हो जाए
आलोक श्रीवास्तव पत्रकार और कवि के रूप में लोकप्रिय हुए। JNU के प्रोफेसर और आलोचक नामवर सिंह ने उन्हें दुष्यंत कुमार की परंपरा का गजल और गीतकार कहा। हिंदी में दुष्यंत जैसी गजलें लिखना आलोक की पहचान है। बकौल नामवर सिंह, चुनौती को स्वीकार कर आलोक ने फारसी से हटकर ठेठ बोल-चाल की जबान में शेर कहने शुरू किए। शायद इसी आत्मविश्वास के कारण कभी आलोक कुमार ने कहा,
तुम सोच रहे हो बादल की उड़ानों तक
मेरी तो निगाहें हैं सूरज के ठिकानों तक
आलोक ने एक इंटरव्यू में खुद कहा था, उनकी मां उर्दू अच्छा जानती थीं। बकौल आलोक, 'मैंने मां को बताया कि मैं शायरी ही करूंगा। उन्होंने कहा, बेटा जो जी में आए, वैसा करना चाहिए।' भाषा कैसी लिखी जाए इस पर आलोक बताते हैं, डॉ बशीर बद्र ने सिखाया, आप ऐसी कोई जबान न इस्तेमाल करें जो लाइब्रेरी की किताबों में दफन हो कर रह जाएं।
महान विभूतियों के हिंदी साहित्य में योगदनों और आज की पीढ़ी के लेखन पर आलोक का मशहूर शेर है-
असर बुजुर्गों की नेमतों का हमारे अंदर से झांकता है
पुरानी नदियों का मीठा पानी नए समंदर से झांकता है
विनम्रता का पर्याय आलोक ने किसी मौके पर कहा,
मुझे मालूम है, इनकी दुआएं साथ चलती हैं
सफर की मुश्किलों को हाथ मलते मैंने देखा है
भाषा धार्मिक सांस्कृतिक एकता का संदेश भी देती है, आलोक ने लिखा-
जो हममें तुममें हुई मोहब्बत
तो देखो कैसा हुआ उजाला
वो खुशबूओं ने चमन संभाला
वो मस्जिदों में खिला तब्स्सुम
वो मुस्कुराया है फिर शिवाला
जो हममें तुममें हुई मोहब्बत
तो देखो कैसा हुआ उजालाखुशबू सा जो बिखरा है सब उसका करिश्मा है
मंदिर के तरन्नुम से मस्जिद की अजानों तक
दो चार शेर कहने से कोई मीर नहीं होता
शैलेष
लोढ़ा
को
हास्यकवि,
एक्टर
और
कवि
के
रूप
में
भी
जाना
जाता
है।
उन्होंने
कई
बार
ये
कहा
है
कि
भाषा
और
साहित्य
से
बच्चों
को
जोड़ना
काफी
अहम
है।
उन्होंने
कहा,
बच्चों
के
हाथ
में
मोबाइल
देखता
हूं
तो
कष्ट
होता
है।
संस्कृति
बचानी
है
तो
मोबाइल
छीनकर
बच्चों
के
हाथों
में
किताब
देनी
होगी।
संवेदनाओं
को
जिंदा
रखना
है
तो
मोबाइल
का
इस्तेमाल
रिकॉर्डिंग
करने
के
लिए
न
करें।
पतन
के
दौर
को
रेखांकित
कर
लोढ़ा
ने
कहा
ये दौर-ए-जवाल है अब कोई कबीर नहीं होती
दो चार शेर कहने से कोई मीर नहीं होता
ये गलत है समझाओ उसे
रईसों के बास बैठने से कोई अमीर नहीं होता
उन्होंने कहा कि युवाओं को भाषा और साहित्य से जोड़ने के लिए रचनाकारों को मेहनत करनी पड़ेगी। हाल ही में आजादी का अमृत महोत्सव के मौके पर उनकी वीडियो 'ये भारत है...' काफी लोकप्रिय हुई।
अच्छा सुनने वालों की हमेशा कमी
हिंदी भाषा पर अंग्रेजी शासन के प्रभाव को लेकर अन्नू कपूर ने कहा, अंग्रेजी हुकूमत की गुलामी (colonial slavery) 10वीं शताब्दी में विदेशी आततायियों के आक्रमण से पहले प्राकृत और मगधी जैसी भाषाएं थीं। भाषाओं का आधार संस्कृत थी। बाद में फारसी भाषा आई और धीरे-धीरे हिंदी दोयम दर्जे पर धकेल दी गई। भारत में अच्छा सुनने वालों की हमेशा कमी रही है। उन्होंने कहा, व्यक्तित्व और यूनिकनेस बरकरार रखने का प्रयास होना चाहिए। बचपन और युवावस्था में रिवोल्ट करेगी। ऐसे में थोपना नहीं चाहिए।
हर पीढ़ी का अलग नजरिया
अमीश त्रिपाठी भारतीय साहित्य के रॉकस्टार के रूप में लोकप्रिय हैं। अमीश की मेलुहा, रामचंद्र सीरीज जैसी किताबें लिखी हैं। उन्होंने कहा, हर पीढ़ी और क्षेत्र का नजरिया अलग होता है। किताब या कहानी अच्छी है या नहीं, इसका फैसला 20-30 साल बाद होगा, अगर किताब अच्छी है तो सदाबहार रहेगी। बात इतनी सी है कि दिल से बातें की जाएं तो युवा पीढ़ी भी समझेगी।
भाषाओं के बीच तलवारें ठीक नहीं
रेडियो पर हिंदी भाषा में लोकप्रिय कहानियां सुनाने वाले नीलेश मिसरा बताते हैं, पाठकों की शिकायत है, हिंदी की किताबें कठिन भाषाओं में हैं। हिंदी की लोकप्रियता के लिए अंग्रेजी का पराजित होना जरूरी होना नहीं। भाषाओं के बीच तलवारें तनी रहती हैं जो गैरजरूरी हैं। पत्रकार, लेखक और कवि जैसे बहुआयामी प्रतिभा के धनी बोलचाल वाली भाषा के इस्तेमाल पर जोर देते हैं।
सब कहा जा चुका, कुछ न कहने को है ?
अमन अक्षर साहित्य और हिंदी के सबसे युवा और चमकते सितारे हैं। इन्होंने गीत की परंपरा में कमाल की रचनाएं की हैं। 'रामगीत' जैसी रचनाओं से सुर्खियों में आए अमन अक्षर ने अपनी पीढ़ी के प्रयासों पर कहा,
सब जो कहते हैं सुनने की कोशिश में हूं
अब मैं चुपचाप रहने की कोशिश में हूं
सब कहा जा चुका, कुछ न कहने को है
बस इसी दुख को कहने की कोशिश में हूं