ग्राउंड रिपोर्ट: अगस्त में इंसेफेलाइटिस से बच्चों को बचाने के लिए कितना तैयार है गोरखपुर
आगे बढ़ते हुए हम पहुंचे ब्रह्मपुर ब्लॉक स्थित 'बरही सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र'. जिस सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर सरकारी नियमों के अनुसार एक पेडियाट्रिशन, एक सर्जन, एक प्रसूती विशेषज्ञ, एक रेडियोलॉजिस्ट और एक नाक-कान-गला रोग विशेषज्ञ होना चाहिए, वहां का पूरा कार्यभार मेडिकल ओफिसर डॉक्टर एसके मिश्रा अकेले संभालते हैं. एक डॉक्टर वाले इस अस्पताल में लैब टेक्निशयन तो हैं, लेकिन लैब में जाँचे कराने के लिए ज़रूरी उपकरण नहीं हैं.
राजधानी दिल्ली से तक़रीबन 830 किलोमीटर उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर में जुलाई के अंतिम सप्ताह में साल की पहली बारिश हुई है.
बढ़ती उमस के बीच दोपहर बाद भी ज़िला अस्पताल के पास ही बने मुख्य चिकित्सा अधिकारी के दफ़्तर में मिलने वालों का तांता लगा हुआ है.
यह हफ़्ता गोरखपुर अंचल के मेडिकल और प्रशासनिक अमले के लिए कमोबेश तनावपूर्ण रहा है.
इस तनाव के धागे पिछले साल के अगस्त महीने से जुड़े हैं.
बीते अगस्त में गोरखपुर के बाबा राघवदास (बीआरडी) मेडिकल कॉलेज में अचानक हुई ऑक्सीजन की कमी से पांच दिनों के भीतर 72 बच्चों की मौत हो गई थी.
मरने वालों में से ज़्यादातर बच्चे 'इंसेफेलाइटिस' के इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती थे.
अगस्त का महीना
घटना के तुरंत बाद उत्तरप्रदेश के स्वास्थ्य मंत्री सिद्धार्थ नाथ सिंह ने मीडिया से बातचीत के दौरान दिए गए एक चर्चित बयान में कहा था कि गोरखपुर में पिछले कई सालों से हर बार अगस्त के महीने में बच्चे दिमाग़ी बुखार की चपेट में आते हैं और इस अस्पताल में आकर मर जाते हैं.
इस बयान की वजह से एक ओर जहां सरकार की चौतरफ़ा किरकिरी हुई, वहीं दूसरी ओर 'गोरखपुर में अगस्त का महीना' और 'इंसेफेलाइटिस से मरने वाले बच्चे' एक दूसरे के पर्याय के तौर पर जनमानस में स्थापित हो गए.
यूं तो गोरखपुर अंचल में बरसात के दौरान फैलने वाले जापानी इंसेफेलाइटिस (जेई) और एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) नामक दिमाग़ी बुखारों की चपेट में आने वाले बच्चों का मामला 40 साल पुराना है.
लेकिन अगस्त 2017 के 'ओक्सीजन कांड' के बाद सरकारी लापरवाही और प्रशासनिक उदासीनता के चलते राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मीडिया में सुर्ख़ियाँ बटोरने वाली उत्तर प्रदेश सरकार इस साल अगस्त के महीने में पुरानी ग़लतियां न दोहराने के दावे कर रही है.
हालांकि सिर्फ़ 24 जुलाई 2018 तक के आंकड़े बताते हैं कि अकेले बीआरडी मेडिकल कॉलेज में ही इंसेफेलाइटिस से अब तक 69 बच्चों की मौत हो चुकी है. इन आंकड़ो की तफ़सील में जाने से पहले वापस चलते हैं गोरखपुर के प्रमुख चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) श्रीकांत तिवारी के दफ़्तर.
स्लेटी रंग की शर्ट पहने श्रीकांत लगतार बढ़ाए जा रहे सरकारी काग़ज़ों पर दस्तखत कर रहे थे.
कुछ देर बाद बातचीत शुरू करते हुए उन्होंने कहा, "इस बार सरकार का रवैया पिछली बार से कहीं ज़्यादा संवेदनशील है. हमने शहर के बाहर मुहानों पर भी पेडियाट्रिक (बाल चिकित्सा) आईसीयू (इंटेन्सिव केयर यूनिट) बनवाए हैं. इसी तरह ज़िला अस्पताल में जो हमारा पेडियाट्रिक आईसीयू था, उसमें 5 बिस्तरों का इज़ाफ़ा हुआ है. साथ ही ज़िले के 19 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर 'इंसेफेलाइटिस ट्रीटमेंट सेंटर' बनवाए गए हैं. यह सेंटर पेडियाट्रिक आईसीयू की तरह तो काम नहीं करेंगे लेकिन यहां बुखार का प्राथमिक इलाज होगा. डॉक्टर मरीज़ के लक्षण देखेंगे और ज़रूरत पड़ने पर पास के पेडियाट्रिक आईसीयू पर रेफ़र कर देंगे. यहां मरीज़ को रेस्टोर करने के लिए वेंटिलेटर, मॉनिटर और दवाइयों से लेकर सारी सुविधाएँ उपलब्ध हैं. यहां न ठीक हो पाने पर गंभीर मरीज़ों को पहले ज़िला अस्पताल और अंत में बीआरडी मेडिकल कॉलेज भेजा जाएगा".
गोरखपुर में ये पेडियाट्रिक आईसीयू या मिनी-पीकू चौरी-चौरा, पिपरौली और गगहा के सामुदायिक स्वास्थ केंद्रों में बनवाए गए हैं. इंटरव्यू के दौरान सीएमओ श्रीकांत तिवारी ने बीबीसी को बताया कि सभी मिनी-पीकू ज़रूरी उपकरणों और इंतज़ामों से लैस हैं और अगस्त के लिए पूरी तरह तैयार हैं. हर मिनी-पीकू में 2 बाल चिकित्सा विशेषज्ञों और 3 प्रशिक्षित नर्सों की तैनाती का भी दावा किया गया.
इंसेफेलाइटिस से मुक़ाबले की सरकारी रणनीति
इन दावों की ज़मीनी सच्चाई बीबीसी की इस रिपोर्ट में आगे शामिल है लेकिन उससे पहले सरकार की बाक़ी प्रमुख योजनाओं और दावों पर एक नज़र.
इस बारे में आगे जानकारी देते हुए सीएमओ बताते हैं, "हमने 'स्टॉप जेई/एईस' के नाम से एक मोबाइल ऐप्लिकेशन भी शुरू किया हैं. गांव का सरपंच, आशा या कोई भी अन्य व्यक्ति इस ऐप्लिकेशन को अपने फ़ोन में डाउनलोड कर सकता है. फिर आपको ऐप में सिर्फ़ एक बटन दबाना है और यहां हमारे कॉल सेंटर पर अलर्ट आ जाएगा कि फलां नंबर से अलर्ट आया. यहां से नंबर पर फ़ोन जाएगा और तुरंत मदद पहुँचाई जाएगी. साथ ही हमने टाटा के साथ एक क़रार किया है. इस क़रार के तहत फ़िलहाल पिपरौली में पायलट स्तर पर 4 मोबाइल वैन रोस्टर के हिसाब से घूम रही हैं. इन गाड़ियों में एलईडी, वेंटिलेटर तथा मेडिकल स्टाफ़ सब मौजूद है. यह गाड़ियाँ लोगों में इंसेफेलाइटिस से बचने के लिए जागरूकता फैलाने के साथ-साथ गांव-गांव पहुँच कर इलाज करने का भी काम करेंगी. इसके अलवा जागरूकता फैलाने के लिए हमने 'दस्तक' नाम से अभियान शुरू किया है. इस अभियान के तहत हर गांव में कार्यरत सरकारी आशा कार्यकर्ता हर घर में जाकर इंसेफेलाइटिस से बचने के संबंध में जानकारी देंगी और एक सूचनात्मक पोस्टर हर घर की दीवार पर चिपकाएँगी. यह अभियान फ़िलहाल अपने दूसरे फ़ेज़ में हैं और 31 जुलाई तक चलेगा."
इंसेफेलाइटिस को रोकने के लिए सरकारी प्रयासों का यह आख्यान सुनने में कानों में शहद की तरह घुलता है. लेकिन अगर यह प्रयास वाक़ई काग़ज़ों पर दर्ज स्याही में रंगे वादों से निकलकर ज़मीन पर अमली जामा पहनते तो गोरखपुर अंचल की तस्वीर बदल जाती. लेकिन एक इंसेफेलाइटिस मुक्त गोरखपुर का ख़्वाब दिखाने वाली वादों की इस लंबी फ़ेहरिस्त की सच्चाई सीएमओ के दफ़्तर में इसी इंटरव्यू के दौरान खुलने लगी.
इसी बीच गोरखपुर शहर से 17 किलोमीटर दूर स्थित ज़िले की सिहोरिया ग्राम पंचायत के सरकारी स्वास्थ्य केंद्र के प्रतिनिधि डॉक्टर हमारे बीच आकर बैठे. तभी सीएमओ डॉक्टर तिवारी को एक फ़ोन आया. फ़ोन पर बात करते हुए उन्होंने 'स्टॉप जेई/एईस' ऐप की कमियाँ गिनवाते हुए उसके ठीक से काम न करने की शिकायत की और कहा कि 'ऐप ज़्यादा सकेस्सफुल साबित नहीं हो रहा'. फ़ोन कॉल लेने के बाद सिहोरिया से आए फ़रियादि ने उनसे कहा, "हमारे यहां प्रसूति के लिए कोई डॉक्टर नहीं है. एक्स-रे मशीन भी ख़राब है. शौचालय टूट फूट गए हैं और अस्पताल की इमारत कमज़ोर हो गई है".
सीएमओ का दफ़्तर अब 'थिएटर ओफ़ अब्सर्ड' के एक काले व्यंग में तब्दील हो चुका था. जवाब देते हुए डॉक्टर तिवारी ने आगे कहा, "मैं आपको सिहोरिया में कहां से सपेशलिस्ट डॉक्टर लाकर दूं? यहां गोरखपुर ज़िला अस्पताल में मेरे पास एक अदद डेंटिस्ट नहीं है. दसियों बार शासन को लिख चुका हूँ. अभी तक डेंटिस्ट नहीं मिला. डॉक्टर नहीं मिल सकता. सपेशलिस्ट तो भूल ही जाइए. आजकल सीएमओ के नीचे एमबीबीएस से ज़्यादा कोई काम नहीं करना चाहता. डॉक्टर छोड़ कर और जो भी समस्या है बताइए, मैं फ़ॉरवर्ड कर दूंगा."
डॉक्टरों की ज़रूरत
इसके बाद डॉक्टरों की कमी के बारे में पूछने पर सीएमओ डॉक्टर तिवारी ने बताया कि उन्हें गोरखपुर की स्वास्थ व्यवस्था ठीक से चलाने से लिए कम से कम 70 और डॉक्टरों की ज़रूरत है. इंसेफेलाइटिस के इलाज में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले बाल रोग विशेषज्ञों या पेडियाट्रिशन के बारे में बताते हुए उन्होंने बताया कि ज़िले में कुल 13 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं और हर केंद्र पर उन्हें एक पेडियाट्रिशन की ज़रूरत है. साथ ही हर पीकू में दो पेडियाट्रिशन की दरकार है.
उन्होंने कहा, "लेकिन हमारे पास कुल 7-8 पेडियाट्रिशन ही हैं. इसके अलावा हमें प्रसूती विशेषज्ञ और एनेस्थिसियोलॉजिस्ट की भी बहुत ज़रूरत है."
इंटरव्यू की शुरुआत में सरकारी योजनायों का आख्यान सुनाकर डॉक्टर तिवारी ने उम्मीद का जो तिलिस्म मेरी आँखों के सामने बुना था, उसमें उनके दफ़्तर से बाहर निकलने से पहले ही दरारें पड़ गई थीं. लेकिन 2018 की अगस्त में इंसेफेलाइटिस से लड़ने के लिए प्रचारित किए जा रहे सरकारी दावों और योजनाओं की ज़मीनी सच्चाई पाठकों तक पहुँचाने के लिए बीबीसी की टीम ने गोरखपुर ज़िले में कई अस्पतालों और गांवों का दौरा किया.
इस यात्रा की शुरुआत हुई ज़िले के ख़ोराबर ब्लाक में राप्ती नदी के किनारे बसे बड़का भाठवा गांव से. यहां रहने वाले जोगिंदर दिहाड़ी मज़दूरी का काम करते हैं. उनकी 9 साल की बेटी करीना ने 23 जुलाई 2018 की रात 9 बजकर 10 मिनट पर बीआरडी मेडिकल कॉलेज के इंसेफेलाइटिस वार्ड में दम तोड़ दिया.
मुख्य सड़क से उतरकर एक कच्ची पगडंडी पर चलकर हम जोगिंदर के घर पहुँचते हैं. कुछ दिन पहले ही घर में बच्ची की मौत हुई है पर फिर भी पेट भरने के लिए पिता को दिहाड़ी पर जाना पड़ा है.
फूलों के प्रिंट वाली एक पुरानी साड़ी में लिपटी करीना की माँ उदास चेहरा ज़मीन की ओर झुकाए हुए घर के आँगन में झाड़ू लगा रही थीं. घर के नाम पर उनके परिवार के पास टिन की छत वाला एक पक्का कमरा था. इस कमरे के आगे एक झोपड़ीनुमा बैठक थी जहां एक चारपाई पड़ी हुई थी.
करीना का स्कूल बैग दिखाते हुए उसकी माँ कहती हैं, "अबकी तीसरी में गई थी हमारी लड़की. लेकिन स्कूल ही नहीं जा पाई. पहले ही ख़त्म हो गई. उस दिन हमने उसके लिए दाल का पीठ और खीर बनाई थी. बड़े प्यार से खाई और सो गई. फिर पता नहीं क्या हुआ उसे अचानक रात को 12 बजे उठ के उल्टियाँ करने लगी. हाथ पैर इतनी ज़ोर से ऐंठे उसके कि छिल गए जगह-जगह से. आँखे ऊपर हो गई और झटके मारने लगी. हमने गोद में लिया तो शरीर तप रहा था. इतनी अकड़ रही थी कि हमसे संभल नहीं रही थी. फिर हम तुरंत उसको ब्लॉक अस्पताल ले गए तो वहां डॉक्टर से तुरंत सदर (ज़िला) भेज दिया."
करीना गोरखपुर ज़िला अस्पताल में 10 दिन भर्ती रही और ठीक होने लगी थी. 10 दिन बाद उन्हें डिस्चार्ज कर वापस घर भेज दिया गया घर आने के अगले ही दिन बुखार वापस आ गया.
उसकी माँ आगे बताती हैं, "अबकी बार लड़की न ही ताक रही थी न ही बोल रही थी. किसी को नहीं पहचान रही थी. तीन दिन बाद सदर वालों ने मेडिकल कॉलेज भेज दिया. यहां डॉक्टर कुछ बताते ही नहीं. हम पूछते कि हमारी लड़की कैसी है बताओ तो हमको डांट के चुप करवा देते. 4 दिन मेडिकल में पड़ी रही.पाँचवे दिन ख़त्म हो गई. अगर सदर वालों ने लड़की को घर नहीं भेजा होता तो शायद बच जाती. लेकिन मैंने वहां देखा- बच्चा पूरी तरह ठीक हुआ हो या नहीं, सदर में सबको 10 दिन बाद छुट्टी दे देते थे. हमारी लड़की का इंसेफेलाइटिस पूरी तरह ठीक नहीं हुआ था तभी तो दोबारा वापस आया."
नहीं है शौचालयों की व्यवस्था
3000 लोगों की आबादी वाले करीना के गांव में 2 परिवारों को छोडकर किसी भी परिवार के पास शौचालय नहीं है. पीने के लिए भी यहां के लोग निजी हैंडपंपों के पीले प्रदूषित पानी पर निर्भर हैं. यहां यह बताना ज़रूरी है कि खुले में शौच से फैलने वाला ज़मीनी प्रदूषण, गंदगी और फिर कम गहराई वाले निजी हैंडपंपों का इस्तेमाल एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस) फैलने का प्रमुख कारण है.
मैंने ये भी देखा कि कूड़ेदानों और निकासी के अभाव में गोरखपुर एक खुले सीवर की तरह बजबजा रहा था. बड़का भाठवा जैसे देहाती इलाक़ों का भी यही हाल था. गोरखपुर शहर के मुहाने पर मौजूद इस गांव में दस्तक अभियान का कोई पोस्टर नहीं लगा था. पहले और दूसरे फ़ेज़ की बात तो दूर, यहां निवासियों ने कभी किसी दस्तक अभियान ने बारे में सुना ही नहीं. करीना की दादी कहती हैं कि कभी कोई आशा उनके घर नहीं आई.
24 जुलाई 2018 तक जुटाए गए आकंडों के अनुसार बीआरडी मेडिकल कॉलेज में इस साल 196 बच्चे और 57 वयस्क इंसेफेलाइटिस के इलाज के लिए दाख़िल हुए. इसमें से 69 बच्चों और 13 वयस्कों की मृत्यु हो गई. अगस्त के साथ-साथ बरसात का मौसम यहां शुरू हुआ ही है.
उपकरणों का अभाव
आगे बढ़ते हुए हम पहुंचे ब्रह्मपुर ब्लॉक स्थित 'बरही सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र'. जिस सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर सरकारी नियमों के अनुसार एक पेडियाट्रिशन, एक सर्जन, एक प्रसूती विशेषज्ञ, एक रेडियोलॉजिस्ट और एक नाक-कान-गला रोग विशेषज्ञ होना चाहिए, वहां का पूरा कार्यभार मेडिकल ओफिसर डॉक्टर एसके मिश्रा अकेले संभालते हैं. एक डॉक्टर वाले इस अस्पताल में लैब टेक्निशयन तो हैं, लेकिन लैब में जाँचे कराने के लिए ज़रूरी उपकरण नहीं हैं.
एक जर्जर कमरे में अकेले बैठे डॉक्टर मिश्रा कमरे की हालत के बारे में पूछने पर बताते हैं कि बीती बरसात में बाढ़ का पानी अस्पताल में भर गया था. उन्होंने बताया, "कमरे में ये निशान पानी के हैं. बाढ़ के बाद से इमारत कमज़ोर हो गई है. न जाने कब गिर जाए." बरही के समुदायिक अस्पताल से निकलते हुए मुझे हरिशंकर परसाई के स्वास्थ व्यवस्था पर लिखे व्यंग्य याद आने लगे.
बरही से आगे हम गोरखपुर के चौरी चौरा बहु-प्रचारित 'समुदायिक स्वास्थ्य केंद्र' और इस अस्पताल में बने मिनी-पीकू की स्थिति देखने पहुंचे. यहां के अधीक्षक डॉक्टर सर्वजीत प्रसाद ने हमें अस्पताल के एक अलग कमरे में बन रहे मिनी पीकू दिखाते हुए बताया कि तीन बिस्तरों वाले इस नए इंसेफेलाइटिस वार्ड के लिए ज़रूरी आधुनिक पलंग तो आ गए हैं पर वेंटिलेटर और मॉनिटर की ख़रीदारी अभी शासन के स्तर पर चल रही है.
अस्पताल पर बढ़ते दबाव के बारे में बताते हुए डॉक्टर प्रसाद कहते हैं कि उनके सामुदायिक अस्पताल में 10 डॉक्टरों की दरकार है लेकिन उनके पास सिर्फ़ चार डॉक्टर हैं.
वे बताते हैं,"ज़िला अस्पताल में कमी थी तो यहां के स्टाफ़ को ज़िले में अटैच कर दिया गया है. अब यहां पर इमरजेंसी में सिर्फ़ तीन डॉक्टर हैं. इमेरजेंसी 24 घंटे चलती है तो तीन डॉक्टर तो शिफ़्ट में रोज़ ही चाहिए. चौथी महिला डॉक्टर हैं. सपेशलिस्ट नहीं हैं, सिर्फ़ एमबीबीएस हैं लेकिन हमारे पास प्रसूती विशेषज्ञ नहीं है तो वही प्रसूती का काम देखती हैं. रात में महिला डॉक्टर की सुरक्षा सुनिश्चित करने की व्यवस्था हमारे पास नहीं है. इसलिए उनको इमरजेंसी में नहीं लगाते."
इसी क्रम में नाम न प्रकाशित करने की शर्त पर महराजगंज के सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में कार्यरत एक डॉक्टर ने बताया कि काम के बोझ के चलते उनका 'क्लिनिकल नॉलेज' ख़त्म होता जा रहा है.
उन्होंने बताया, "50 की बजाय जब आपको दिन में 180 मरीज़ देखने पड़ेंगे तो आप सबको बुखार के लिए पैरासीटामोल पकड़ा देंगे. क्योंकि एक्स-रे देखने, मेडिकल हिस्ट्री पढ़ने और छाती में कान लगाकर कफ़ की जांच करने का आपके पास वक़्त ही नहीं है. इस चक्कर में आप ठीक से प्रैक्टिस नहीं कर पाते और धीरे धीरे अपना सब सीखा पढ़ा भूलने लगते हैं."
'नकारात्मक रिपोर्टिंग'
ज़िले के दौरे के बाद वापस गोरखपुर के बीआरडी मेडिकल कॉलेज में हमारी मुलाक़ात मीडिया की 'नकारात्मक रिपोर्टिंग' से नाराज़ कॉलेज के प्रिंसिपल डॉक्टर गणेश कुमार से होती है. इंटरव्यू के दौरान वे कहते हैं कि प्राथमिक और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों को सशक्त बनाने की सरकार की मौजूदा मुहिम से मेडिकल कॉलेज को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ है.
उन्होंने बताया, "बुखार आते ही डिस्चार्ज करके यहां भेज देते हैं. सरकार ने मैनपावर नहीं दिया है उनको. मायने यह रखता है कि आपने कितने मरीज़ों को वेंटिलेटर पर डाला. हम अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश कर रहे हैं. यहां 79 बिस्तरों का एक नया वार्ड बनाया गया है. हाई डेन्सिटी यूनिट में 6 से बढ़ाकर 37 बिस्तर कर दिए गए हैं. इंसेफेलाइटिस और अगस्त से पहले दवाइयाँ, दस्ताने और दूसरे सभी ज़रूरी सामान सब स्टॉक कर लिए गए हैं. लेकिन हम अकेले सब कुछ न नहीं कर सकते. शहर में गंदगी कम करनी होगी, बच्चों को पोषण मिले यह सुनिश्चित करना होगा. अब लोग सड़क पर थूकेंगे तो इसके लिए बीआरडी ज़िम्मेदार नहीं है ना."
आगे देश के सबसे ग़रीब इलाक़ों में से एक गोरखपुर के लोगों की सामाजिक स्थिति को दरकिनार करते हुए डॉक्टर गणेश कहते हैं कि शहर और ज़िले में सफ़ाई के लिए सिर्फ़ नगर पालिका और सरकार ज़िम्मेदार नहीं. "लोगों को ख़ुद अपने पैसे लगाकर सफ़ाई करवानी चाहिए. कूड़ा हटाना सिर्फ़ नगर पालिका का काम नहीं. लोगों का भी है."
मोबाइल वैन की सच्चाई
इसी बीच पिपरौली में टाटा कंपनी के साथ हुए क़रार के अंतर्गत इंसेफेलाइटिस के इलाज और जागरूकता के लिए गांव-गांव में चलाई जा रही मोबाइल वैन के बारे में जानने के लिए हम पिपरौली पहुंचे.
अपने इंटरव्यू में सीएमओ डॉक्टर तिवारी जिन मोबाइल वैन को 'रोस्टर के अनुसार चलता हुआ' बता रहे थे, उनका ज़मीन पर कोई नमो-निशान नहीं है. टाटा कंपनी के यहां कार्यरत प्रतिनिधि लल्लन ने बताया कि अभी तो वह गोरखपुर के दफ़्तर के नाम को रजिस्टर करवाने के लिए अर्ज़ी भेज कर आए हैं.
गोरखपुर से लौटते हुए मुझे शतरंज की ऐसी हारी हुई बाज़ी का ख़याल आता है, जिसमें हारने वाला हर प्यादा अपनी हार केलिए दूसरे प्यादे को ज़िम्मेदार ठृहराता है.
लौटते हुए मेरी आख़िरी बातचीत स्थानीय पत्रकार मनोज कुमार सिंह से होती है.
इंसेफेलाइटिस से होने वाली बच्चों की मौतों पर लंबे अरसे से ख़बरें लिख रहे मनोज कहते हैं, "सरकारी रिकॉर्ड के अनुसार 1978 से 2018 तक 40 सालों में 10 हजार से अधिक मौतें सिर्फ बीआरडी मेडिकल कॉलेज में हुई हैं. और इतने ही बच्चे विकलांग भी हुए हैं. क्या देश का कोई इलाक़ा इससे भी ज़्यादा बदनसीब हो सकता है जहां इतने बच्चों की लाशें दफ़नाईं गई हों? वह भी बिना किसी युद्ध और आपदा के?"