फैक्ट चेक: क्या पुलवामा हमले में मारे गए जवानों को पेंशन नहीं मिलेगी?
नायर कहते हैं, "वे अपने करियर के अंतिम कुछ वर्षों में राज्य पुलिस से आते हैं. जाहिर है कि वे हमारी समस्याओं को नहीं समझते हैं. वे पुलिस कल्चर से आते हैं."
पवार कहते हैं, "केवल आईपीएस अधिकारी ही बीएसएफ और सीआरपीएफ के महानिदेशक या अतिरिक्त महानिदेशक बनते हैं.
सोशल मीडिया पर 14 फरवरी को पुलवामा चरमपंथी हमले में 40 केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (CRPF) के जवानों की मौत के बाद से उनके और उनके परिवार वालों के प्रति सहानुभूति का सिलसिला जारी है.
लोगों ने टीवी और सोशल मीडिया पर 'शहीदों' और उनके परिवारों के लिए हमदर्दी और चिंताएं जताई हैं. लेकिन अधिकतर प्रतिक्रियाएं ग़लत सूचनाओं पर आधारित हैं
अधिकतर लोगों ने जवानों की पेंशन को लेकर चिंता जताई है.
बहुत से लोगों ने ट्विटर पर दावा किया है कि पुलवामा पीड़ित के 75 प्रतिशत परिवारों को पेंशन नहीं मिलेगी क्यूंकि वो 1972 की पुरानी पेंशन योजना के तहत कवर नहीं होते हैं. उन्होंने केंद्रीय सरकार से आग्रह किया है कि मारे गए जवानों के परिवारों को पुरानी पेंशन योजना के तहत लाने के लिए प्रयास किया जाए.
सीआरपीएफ़ और अन्य केंद्रीय पुलिस बल 1972 की केंद्रीय सिविल सेवा (सीसीएस) पेंशन योजना के तहत आते हैं. लेकिन 2004 के बाद सुरक्षा बल में शामिल होने वालों को किसी भी पेंशन योजना के तहत कवर नहीं किया जाता है.
सीआरपीएफ़ अधिकारियों के अनुसार पुलवामा हमले में मारे गए 40 में से 23 जवान 2004 के बाद फ़ोर्स में शामिल हुए थे. यही वजह है कि ट्विटर पर कई लोगों को डर है कि "शहीदों" के परिवारों को पेंशन नहीं मिलेगी. लेकिन, सीआरपीएफ़ के मुताबिक़ सभी 40 जवानों के परिवारों को पेंशन मिलेगी, चाहे वो सुरक्षा बल में 2004 के बाद ही क्यों न शामिल हुए हों.
इसकी पुष्टि करते हुए, सीआरपीएफ़ के प्रवक्ता और डीआईजी, मोज़ेज़ धीनाकरन ने बीबीसी से कहा, "उनकी शामिल होने की तारीखों के बावजूद, सभी शहीदों के परिवारों को "लिबरलाइज्ड पेंशन अवार्ड्स" दिया जाएगा जो आखिरी वेतन का 100% है और उसमें डीए भी जुड़ा है."
सीआरपीएफ़ प्रवक्ता का कहना है कि यह पेंशन ऑफर अर्धसैनिक बलों के उन सभी जवानों के परिवारों पर लागू होता है जो 2004 से पहले या बाद में सेवा में शामिल हुए थे, लेकिन देश में कहीं भी हुई कार्रवाई में मारे गए थे.
एसबीआई भी पैसे देगा?
सोशल पर कई लोगों ने लिखा था कि पुलवामा में मारे गए "शहीदों" के परिवारों को भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) पैसे देगा. ये खबर पक्की है कि एसबीआई हर उस शहीद के परिवार को 30 लाख रुपये देगी जो अर्धसैनिक सेवा पैकेज के साथ पंजीकृत है. सीआरपीएफ का कहना है कि लगभग सभी अर्धसैनिक इस पैकेज का हिस्सा हैं. यह जीवन बीमा की तरह है.
'शहीदों' के परिवारों के लिए वित्तीय पैकेजों की एक सूची:
केंद्र सरकार द्वारा
- हर शहीद के परिवार को 35 लाख रु.
- एसबीआई से 30 लाख रु.
- विधवा, माता-पिता या बच्चों को उदार पेंशन योजना के माध्यम से मासिक वेतन प्राप्त होगा.
- सुरक्षा बलों की समूह बीमा योजनाओं के माध्यम से पैसे दिए जाएंगे.
राज्य सरकारें (निश्चित नहीं, एक राज्य से दूसरे राज्य में बदलती हैं.)
- 1 करोड़ रुपये (दिल्ली सरकार. अब तक एक शहीद के परिवार को ), 50 लाख रुपये (हरियाणा सरकार); अन्य राज्य सरकारों द्वारा 10 लाख से 20-30 लाख रु.
- राज्य सरकारें परिजनों को ज़मीन के प्लॉट, बच्चों के लिए शिक्षा, औद्योगिक शेड और अन्य लाभ भी दे सकती हैं.
मरने वाले जवान शहीद हैं या नहीं?
नेता, पत्रकार और आम नागरिक उन्हें सम्मान देने के लिए शहीद कह सकते हैं लेकिन आधिकारिक तौर पर, वे शहीद नहीं हैं.
कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गांधी के ट्वीट में पुलवामा में मारे गए लोगों को शहीद बताया गया है. हमले के एक हफ्ते बाद उन्होंने ट्वीट किया: "बहादुर शहीद हुए हैं. उनके परिवार परेशान हैं. चालीस जवान अपनी जान दे देते हैं लेकिन "शहीद" के दर्जे से वंचित रह जाते हैं."
उन्होंने अपनी पार्टी के आगामी आम चुनावों में सत्ता में चुने जाने पर शहीदों का दर्जा देने का वादा किया.
कुछ दक्षिणपंथी पन्नों ने राहुल गांधी की जवानों को शहीदों के रूप में मान्यता नहीं देने पर उनकी आलोचना की है.
लेकिन राहुल गांधी गलत नहीं हैं.
सीआरपीएफ के पूर्व महानिरीक्षक वीपीएस पवार नागरिकों द्वारा व्यक्त भावनाओं की सराहना करते हैं. वह चाहते हैं कि मारे गए जवानों को वीर और शहीदों के रूप में याद किया जाए.
लेकिन, वे कहते हैं कि कई लोगों ने वास्तविकता को समझे बिना अपनी देशभक्ति दिखाई है. वह आगे कहते हैं, '' जनता की धारणा यह है कि जो भी अर्धसैनिक एक्शन में मारा जाता है वो शहीद होता है. लेकिन, आधिकारिक तौर पर उन्हें शहीद का दर्जा नहीं दिया जाता है.
वह आगे कहते हैं, "यहां तक कि कार्रवाई में मारा गया एक भारतीय सेना का जवान भी शहीद नहीं है."
होता ये है कि एक्शन में एक जवान की मौत के बाद उसके परिवार को एक सरकारी प्रमाण पत्र दिया जाता है.
कार्रवाई में मारे गए सीआरपीएफ़ के एक जवान को बल के महानिदेशक द्वारा हस्ताक्षरित 'परिचालन आकस्मिक प्रमाण पत्र' दिया जाता है और भारतीय सेना के एक सैनिक को 'युद्ध हताहत प्रमाण पत्र' दिया जाता है.
सरकार आतंक का मुकाबला करने में मारे गए जवानों को श्रेणीबद्ध नहीं करती है. समाज उन्हें भावनात्मक कारणों से शहीद के रूप में देखता है.
2017 में, मोदी सरकार ने केंद्रीय सूचना आयोग से कहा था कि सेना या पुलिस बल में 'शहीद' नहीं है.
अर्धसैनिक बल या नहीं?
मीडिया और जनता में आम तौर पर एक गलत धारणा है कि सीआरपीएफ और बीएसएफ अर्धसैनिक बल हैं. लेकिन, आधिकारिक तौर पर वे गृह मंत्रालय के तहत सात पुलिस बलों का हिस्सा हैं.
उन्हें आम तौर पर केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (CAPF) के रूप में जाना जाता है. वे सीआरपीएफ, सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ), राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड (एनएसजी), भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी) और सशस्त्र सीमा बल हैं.
सीआरपीएफ़ भारत का सबसे बड़ा और सबसे पुराना केंद्रीय पुलिस बल है. इसे 1939 में क्राउन रिप्रेजेंटेटिव फोर्स के रूप में खड़ा किया गया था. यह दिसंबर 1949 में पारित संसद के एक अधिनियम के तहत सीआरपीएफ़ बना.
एक्शन में सीआरपीएफ़ के जवानों की बीएसएफ जैसे अन्य केंद्रीय पुलिस बलों की तुलना में अधिक मौत इसलिए होती है क्योंकि वे कश्मीर में आतंकवाद और छत्तीसगढ़ में माओवादी उग्रवाद से लड़ रहे हैं.
एक हमले में सबसे भारी दुर्घटना अप्रैल 2010 में हुई थी, जब छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में नक्सलियों द्वारा 76 सीआरपीएफ जवानों की हत्या कर दी गई थी जो अब तक की सीआरपीएफ की सबसे बड़ी घटना है.
सीआरपीएफ़ के प्रवक्ता का कहना है कि 2014 के बाद से उनके कुल 176 लोग हमलों में मारे गए हैं.
सीआरपीएफ़ के कर्तव्यों में आंतरिक सुरक्षा बनाए रखना, चुनाव के दौरान सुरक्षा प्रदान करना, विद्रोह का मुकाबला करना और कई राज्यों में वीआईपी को सुरक्षा कवर प्रदान करना शामिल है. यह कुछ अफ्रीकी देशों में संयुक्त राष्ट्र शांति रक्षा बल के रूप में भी कार्य करता है.
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मुख्य मांगें
सुरक्ष बलों के पूर्व जवानों और अफसरों के संगठन आधिकारिक रूप से अर्धसैनिक बलों के रूप में मान्यता प्राप्त कराने के लिए सरकार से सालों से लड़ रहे हैं. लेकिन, अभी तक उन्हें कोई सफलता नहीं मिली है. पवार के अनुसार, अर्धसैनिक का दर्जा पाने से सुविधाएं बढ़ेंगींऔर थोड़े पैसे भी ज़्यादा मिल सकते हैं. शहीद का दर्जा पाने की लड़ाई पीछे मक़सद ये है कि शहीद के परिवार को समाज में अधिक सम्मान मिले.
ऑल इंडिया सेंट्रल पैरामिलिट्री फोर्सेज एक्स-सर्विसमैन वेलफेयर एसोसिएशन के महासचिव नायर का तर्क है कि उनकी लंबे समय से चली आ रही मांगें उचित हैं, क्योंकि अर्धसैनिक बलों का गठन आर्मी जैसा ही है. वह कहते हैं, "हमारी ट्रेनिंग एक जैसी है, फार्मेशन एक जैसा है. शारीरिक शक्ति और लड़ाई क्षमता में अधिक फ़र्क़ नहीं है."
37 वर्षों तक सीआरपीएफ की सेवा करने वाले वीपीएस पवार का कहना है कि उन्हें पुलिस बल नहीं कहा जा सकता क्योंकि सीआरपीएफ़ पुलिस स्टेशन नहीं चलाती है. "अगर हम पुलिस हैं तो हम केंद्र सरकार के अधीन क्यों हैं? पुलिस एक राज्य का विषय है और हम केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय के अधीन हैं. इसका कोई मतलब नहीं है."
अपने तर्क में केंद्रीय पुलिस के पूर्व और वर्तमान कर्मी भारतीय संविधान के अनुच्छेद 246 का हवाला देते हैं, जो भारतीय नौसेना, सेना और वायु सेना के संदर्भ में "अन्य सशस्त्र बलों" शब्द का उपयोग करता है. उनके तर्क के अनुसार संविधान में उल्लिखित "अन्य बल" अर्धसैनिक बल हैं.
नायर का कहना है कि जब कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार सत्ता में थी, तब वो लोग राहुल गांधी से मिले थे (2010 में). सरकार से उन्होंने अर्धसैनिक बलों का दर्जा देने का आग्रह किया. लेकिन इस पर ध्यान नहीं दिया गया.
पवार इस पर थोड़ा लचीले हैं. वह मानते हैं कि सेना देश की नंबर एक फ़ोर्स है लेकिन अर्धसैनिक बलों की मांगों पर भी ग़ौर होना चाहिए. वह कहते हैं, "हमारा उनसे कोई मुकाबला नहीं है. उनके पास बेहतर गुणवत्ता का प्रशिक्षण है और वे हमसे बेहतर हैं लेकिन हम अपना अधिकार चाहते हैं. "
आम तौर से केंद्रीय पुलिस बलों के अधिकारी पेंशन, पदोन्नति और अन्य सेवा नियमों में सेना के साथ समानता की मांग करते हैं.
सीआरपीएफ और बीएसएफ के वर्तमान और पूर्व कर्मियों का मानना है कि भारतीय पुलिस बल (आईपीएस) के अधिकारी, जो अपने करियर के अंत में सबसे वरिष्ठ अधिकारियों के रूप में सीआरपीएफ़ में आते हैं, अक्सर उनके अधीन काम करने वाले जवानों के हितों को आगे बढ़ाने में दिलचस्पी नहीं रखते हैं.
नायर कहते हैं, "वे अपने करियर के अंतिम कुछ वर्षों में राज्य पुलिस से आते हैं. जाहिर है कि वे हमारी समस्याओं को नहीं समझते हैं. वे पुलिस कल्चर से आते हैं."
पवार कहते हैं, "केवल आईपीएस अधिकारी ही बीएसएफ और सीआरपीएफ के महानिदेशक या अतिरिक्त महानिदेशक बनते हैं. उन्हें जमीनी हकीकत का कोई अंदाजा नहीं है. सीआरपीएफ में मेरी 37 वर्षों की सेवा में मैंने कभी भी एक आईपीएस अधिकारी को माओवादी हमले या आतंकवादी हमले में मारे जाते नहीं देखा."
वीपीएस पवार को लगता है कि उनके पास ऐसे लीडर नहीं हैं जो सरकार तक उनके हितों का प्रतिनिधित्व कर सकें.
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