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कश्मीर घाटी में हिंदुओं की हत्याओं का सिलसिला, तीस साल पुरानी यादें ताज़ा..

हाल की घटनाओं से 30 साल पहले की यादें एक बार फिर ताज़ा हो उठी हैं. जब चरमपंथियों ने सैकड़ों की संख्या में हिंदुओं को मार डाला था. जिसकी वजह से घाटी के हिंदुओं का पलायन शुरू हो गया था.

By BBC News हिन्दी
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भारत प्रशासित कश्मीर का दक्षिणी हिस्सा..और वहां का गोपालपुरा गांव. गांव के सरकारी हाई स्कूल जाने के रास्ते में लोगों की भीड़ धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी. ये जनसमूह अपनी सबसे पसंदीदा टीचर को आख़िरी विदाई देने के लिए जमा हुआ था. वो इस स्कूल की सबसे पसंदीदा टीचर थीं.

सिक्स-स्टोन चौराहा...यानी वो जगह जहां इसी साल मई महीने में 41 साल की रजनी बाला की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी.

वो 31 मई का दिन था. स्कूल का बाकी स्टाफ़ और स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थी सुबह की प्रार्थना के लिए जमा हुए थे, तभी उन्हें पटाखों के फूटने की जैसी आवाज़ सुनाई दी. लेकिन एक ऐसे इलाक़े में जहां हिंसा हर रोज़ की ज़िंदगी का हिस्सा बन चुकी हो, वहाँ ये समझते देर नहीं लगती की कुछ ना कुछ अनहोनी हुई है.

स्कूल में प्रार्थना के लिए जमा हुई छात्राएं
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स्कूल में प्रार्थना के लिए जमा हुई छात्राएं

स्कूल में सबकी प्यारी टीचर रजनी बाला को गोली मार दी गई थी. गोली उनके सिर पर मारी गई थी. पुलिस ने बताया कि गोली मारने वाले भारत-विरोधी-चरमपंथी थे.

ऐसा माना जाता है कि उन्हें निशाना इसलिए बनाया गया क्योंकि वो हिंदू थीं. इस इलाक़े का अल्पसंख्यक समुदाय.

पिछले एक साल में कई हिंदुओं की हत्या की ख़बरें सामने आई हैं. अभी बीते सप्ताह भी एक हिंदू की हत्या हुई है.

सुनील कुमर भट्ट को दक्षिणी-कश्मीर के शोपियां में गोली मार दी गई.

रजनी के परिवार का कहना है कि उनकी हत्या होने से पहले वो कश्मीर छोड़कर चले जाने की कोशिश कर रहे थे.

रजनी बाला के पति राजकुमार अत्री ने बीबीसी को बताया, "क़रीब क़रीब डेढ़ महीने पहले, स्कूल से कुछ किलोमीटर दूर पर ही एक हिंदू ड्राइवर को गोली मार दी गई थी, और कश्मीर के दूसरे हिस्सों में भी हिंदुओं को निशाना बनाया गया था. उस समय से ही हम डरे हुए थे और हमने दो बार रजनी के ट्रांसफ़र की कोशिश भी की थी."

रजनी बाला इतिहास पढ़ाया करती थीं और वो स्कूल से बहुत प्यार करती थीं. वह बीते पांच सालों से काम कर रही थीं. उन्होंने अपने साथ के लोगों से कहा था कि अगर उन्हें जान का डर नहीं होता तो वो कभी भी यहां से जाने का सोचती भी नहीं.

उनके स्कूल में पढ़ाने वाली एक साइंस टीचर ने बताया, "वह बहुत ही शालीन महिला थीं. उन्हें बहुत जानकारी थी और उनका व्यवहार दोस्ताना था. लोग उन्हें ना सिर्फ़ हमारे स्कूल में पसंद करते थे बल्कि हमारा पूरा गांव उन्हें बहुत पसंद किया करता था."

उन्होंने बताया कि उनकी मौत से हम पूरी तरह टूट चुके हैं.

अत्री अब अपनी बेटियों को लेकर इस इलाक़े को छोड़कर जा चुके हैं.

बहुत से कश्मीरी हिंदू, अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं
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बहुत से कश्मीरी हिंदू, अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं

पलायन की यादें ताज़ा

घाटी में हो रही हत्याओं के बाद से 30 साल पहले की यादें एकबार फिर ताज़ा हो उठी हैं. जब चरमपंथियों ने सैकड़ों की संख्या में हिंदुओं को मार डाला था. जिसकी वजह से घाटी के हिंदुओं का पलायन शुरू हो गया था.

1980 के दशक के अंतिम दौर से, कश्मीर घाटी एक सशस्त्र-विद्रोह की चपेट में आ चुका है. भारत का आरोप है कि पाकिस्तान की हरक़तों के कारण इस क्षेत्र में शांति की स्थापना नहीं हो पा रही है. हालांकि पाकिस्तान इन आरोपों से इनक़ार करता है.

दशकों से, हज़ारों की तादाद में भारतीय सशस्त्र बल, चरमपंथी और आम नागरिक घाटी में होने वाली हिंसा के कारण अपनी जान गंवा चुके हैं.

लेकिन साल 2003 से, हिंदू समुदाय विरले ही टारगेट था. अलबत्ता साल 2010 में तो कोशिश ये की जा रही थी कि जो लोग घाटी छोड़कर चले गए, उन्हें वापस लाया जाए और बसाया जाए. उन्हें यहां बसाने के लिए घर मुहैया कराए जाएं, भत्ता दिया जाए और रोज़गार दिया जाए.

जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल मनोज सिन्हा ने हाल ही में एक इंटरव्यू के दौरान बीबीसी हिंदी से कहा कि ये सच है कि कुछ कश्मीरी पंडितों को निशाना बनाते हुए हमले हुए हैं मगर कुछ और लोगों पर भी हुए हैं.

उन्होंने कहा, "आतंकवादी हमलों को किसी धर्म के चश्मे से नहीं देखना चाहिए. अगर देखेंगे तो कश्मीरी मुसलमानों की भी जान गई है और वो संख्या ज़्यादा ही होगी कम नहीं. दूसरी बात ये कि यहाँ सड़कों पर 125-150 निर्दोष लोग मारे जाते थे, यहाँ पिछले तीन सालों में एक भी व्यक्ति सुरक्षा बलों की गोलियों से नहीं मारा गया है. ये सामान्य बात नहीं है. पत्थरबाज़ी और हड़ताल सब इतिहास की बात हो गई है. एक योजना पहले बनी थी जिसे पुनर्वास योजना कहा जाता है, उसके तहत घाटी में छह हज़ार कश्मीरी पंडितों को नौकरी देने और उनके लिए सुरक्षित आवास बनाना था."

उन्होंने दावा किया कि पहले नौकरी देने की गति बहुत धीमी थी मगर अभी लगभग 400 को छोड़कर हमने सारे पद भर दिए हैं.

लेकिन जो कश्मीरी हिंदू, कुछ उम्मीदें संजोए हुए वापस लौटे थे अब वो दोबारा घाटी छोड़कर जाना चाहते हैं.

दशक पहले जो कश्मीरी हिंदू वापस लौटे थे, उनका कहना है कि उन्हें अपनी जान का ख़तरा महसूस होता है और वे दोबारा इलाक़ा छोड़कर जाना चाहते हैं.

दक्षिण कश्मीर में एक पुनर्वास कॉलोनी में 'सरकारी प्रोत्साहन कार्यक्रम' के तहत लौटे सैकड़ों कश्मीरी हिंदू स्थानांतरित किए जाने की मांग करते हुए विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं.

पब्लिक सर्विस में बतौर इंजीनियर काम करने वाले संदीप रैना बताते हैं, "जब से हम लौटे हैं, हमें कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. सबसे बड़ी समस्या तो वो घर हैं, जो हमें रहने के लिए आवंटित किए गए हैं. लेकिन हम टारगेटेड महसूस नहीं कर रहे थे. पर अब हमें अपनी ज़िंदगियों का ख़तरा महसूस हो रहा है."

वह आगे कहते हैं, "साल 1990 में जब मेरा परिवार यहां से भागा था तब मैं सिर्फ़ दस साल का था. अब मेरा बेटा उसी उम्र का है और हम एक बार फिर यह जगह छोड़कर चले जाना चाहते हैं."

एक पब्लिक स्कूल के टीचर संजय कौल कहते हैं, "हमारे सामने अगर कोई अपनी जेब में हाथ डालता है और हाथ बाहर निकाल रहा होता है, तो हमें यही लगता है कि वो जेब से बंदूक ही निकाल रहा होगा और मुझे मार डालेगा. हमने अपने बच्चों को स्कूल भेजना बंद कर दिया है और शायद ही ऐसा होता है जब हम अपने घर के बाहर के मैदान में जाते हों."

कश्मीरी हिंदुओं को इस क्षेत्र में वापस लाना, बसाना, भारत की सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी पार्टी के चुनावी वादों में से एक था.

शिविर में रहने वाले कई हिंदुओं ने बतया कि उन पर दबाव था कि शिविर में ही रहें और क्षेत्र छोड़कर ना जाएं. अगर वो चले जाते तो केंद्र सरकार के वादे की पोल खुल जाती.

हालांकि सरकार ने इन आरोपों पर कोई जवाब नहीं दिया है.

चरमपंथी समूहों का कहना है कि वो अल्पसंख्यकों को निशाना बना रहे हैं. साथ ही उन लोगों को जो बाहर से आकर यहां बस गए हैं क्योंकि उनका मानना है कि भारत की हिंदूवादी सरकारी इलाके की रीलिजियस-डेमोग्राफ़ी को बदलने की कोशिश कर रही है.

हालांकि भारतीय सरकार इस तरह के आरोपों से इनक़ार करती है.

साल 2019 में, भारत की केंद्र सरकार ने कश्मीर की स्वायत्तता को रद्द कर दिया था और बाहरी लोगों को ज़मीन ख़रीदने की अनुमति दे दी थी.

हालांकि राज्य में कोई चुनी हुई सरकार नहीं है. साथ ही साथ राज्य में पुलिस विभाग और प्रशासन में जो अधिकारी हैं, उनमें से ज़्यादातर दूसरे राज्यों से आते हैं.

साल 2019 के बाद से कश्मीर में सरकार को लेकर नाराज़गी कुछ बढ़ी है. कश्मीर के कई हिस्सों में ये नाराज़गी पहले से महसूस की जाती थी लेकिन 2019 के बाद से इसमें इज़ाफ़ा देखा गया है.

तुर्कवंगम गांव में रहने वाले 20 साल के शोएब मोहम्मद गनई को 15 मई के दिन गोली मार दी गई थी.

उनके परिवार ने बताया, "उस दिन वह कार-स्पेयर पार्ट्स बेचने वाली अपनी दुकान के बाहर खड़ा था. जिसे उन्होंने कुछ महीने पहले ही खोला था. उस दिन एक पैरा एक जवान ने उनकी ओर बंदूक की नोंक तानते हुए, उन्हें हाथ ऊपर उठाने को कहा. शोएब ने वैसा ही किया लेकिन बावजूद इसके जवान ने उनकी छाती में गोली मार दी."

परिवार वालों का दावा है कि शोएब ने ठीक वैसा ही किया जैसा जवान ने कहा, फिर भी उसे गोली मार दी गई.

शोएब के पिता
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शोएब के पिता

शोएब के पिता ग़ुलाम मोहम्म्द गनई 50 साल के हैं.

वह कहते हैं, "शोएब एक आम नागरिक, एक स्टूडेंट था और दुकान चलाता था. उसका गुनाह क्या था?"

बोलते-बोलते वो फफक कर रो पड़ते हैं.

वो रोते हुए ही कहते हैं, "हमारे साथ जो क्रूरता हुई है, हमें सिर्फ़ उसके लिए न्याय चाहिए. हमारे दिल का एक टुकड़ा निकाल लिया गया."

वह अपने बेटे की तस्वीर देखते हुए कहते हैं ति उसे क्रिकेट खेलना बहुत पसंद था.

पुलिस और पैरा-मिलिट्री ने बीबीसी को बताया कि शोएब, क्रॉस-फ़ायर में मारा गया. लेकिन घटना के समय वहां मौजूद बहुत से प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि उसे पकड़ने के लिए कोई गन-बैटल नहीं हुई थी.

हालांकि इस मामले को लेकर एक जांच बैठाई गई है. उनके पिता स्थानीय पुलिस को शुक्रिया अदा करते हैं जिनकी वजह से उन्हें उनके बेटे का शव जल्दी मिल गया. लेकिन उन्हें इस बात की बिल्कुल भी उम्मीद नहीं है कि उनके बेटे की हत्या क्यों और कैसे हुई, ये सच्चाई कभी भी सामने आ पाएगी.

वह कहते हैं, "अगर हमारी सरकार होती तो , तो हम कम से कम किसी को ज़िम्मेदारी लेने के लिए पकड़ तो सकते थे. यहां कोई नहीं है जो हमें सुने, कोई नहीं है जो उसकी हत्या को लेकर सवाल उठाए. उन्हें हमसे वोट नहीं चाहिए, तो आख़िर वो हमारी परवाह क्यों ही करेंगे?"

हाल के महीनों में इस तरह के कई मामले सामने आए हैं जिसमें सुरक्षा बलों पर आम नागरिकों की हत्या का आरोप लगाया गया है.

बीबीसी ने जब इस संबंध में भारत सरकार से जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की है, लेकिन कहानी लिखे जाने तक उनकी ओर से कोई जवाब नहीं मिला है.

राज्य में चुनाव को लेकर उप-राज्यपाल मनोज सिन्हा ने बीबीसी को दिए इंटरव्यू में कहा था कि लोकतंत्र पर हमें किसी से सबक नहीं चाहिए.

उन्होंने कहा था, "लोकतंत्र का मतलब सिर्फ़ विधानसभा चुनाव नहीं है. पंचायत प्रतिनिधि, ज़िला पंचायत के चेयरमैन हैं, लोकसभा के सांसद हैं. विधानसभा के चुनाव विशेष कारण से नहीं हो रहे हैं. गृह मंत्री ने संसद के पटल पर कहा कि पहले डीलिमिटेशन (परिसीमन) होगा, फिर चुनाव होगा और उसके बाद वापस राज्य का दर्जा मिलेगा. डीलिमिटेशन का काम पूरा हो चुका है, चुनाव कराना चुनाव आयोग का काम है. मतदाता सूची अपडेट हो रही है, मतदेय स्थल तय हो जाएँ तो चुनाव आयोग समय पर निर्णय लेगा."

उन्होंने बताया कि देश की संसद में गृह मंत्री का दिया आश्वासन बड़ी बात है इसलिए उस पर अमल होगा. पूर्ण राज्य का दर्जा सही समय पर दिया जाएगा.

वहीं दूसरी ओर शोएब के पिता घर से अपने बेटे की कब्र की ओर जा रहे हैं. वह कहते हैं, "कश्मीर में कोई भी सुरक्षित नहीं है. जब आप घर से निकलते हैं तो आपको ये पता नहीं होता है कि आप लौटकर घर आ पाएंगे या नहीं."

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English summary
Continuation of killings of Hindus in Kashmir Valley
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