ग़ुलाम नबी आज़ाद: कहां जाकर ख़त्म होगा कांग्रेस का अंदरूनी कलह
ग़ुलाम नबी आज़ाद को पद्म पुरस्कार दिए जाने से भारत की सबसे पुरानी पार्टी का अंतर्कलह फिर सहत पर आ गया लगता है. इसकी सियासी क़ीमत क्या होगी, एक विश्लेषण.
अंदरूनी फूट से जूझ रही कांग्रेस का संकट ख़त्म होता नज़र नहीं आ रहा है. पांच राज्यों में चुनाव से पहले पार्टी में जिस एकता की ज़रूरत महसूस की जा रही थी, वह दूर की कौड़ी नज़र आने लगी है. ग़ुलाम नबी आज़ाद को पद्म भूषण मिलने के बाद पार्टी के दो धड़ों के बीच जिस तरह से बयानबाज़ी का दौर चला उससे साफ़ हो गया है कि पार्टी में कलह कम होने के बजाय बढ़ती जा रही है.
कांग्रेस का यह अंदरूनी झगड़ा 26 जनवरी को तब और खुल कर सामने आया, जब पार्टी में G-23 गुट का नेतृत्व करने वाले ग़ुलाम नबी आज़ाद को पद्मभूषण मिलने पर दूसरे गुट के नेता जयराम रमेश ने 'ग़ुलाम' कह दिया.
पश्चिम बंगाल के पूर्व मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य की ओर से पद्म भूषण लेने से इनकार करने की तारीफ़ करते हुए रमेश ने कहा, "उन्होंने सही फ़ैसला किया है. वह आज़ाद रहना चाहते हैं कि न कि ग़ुलाम."
https://twitter.com/Jairam_Ramesh/status/1486016346442047497
माना जा रहा है कि जयराम रमेश ने इस टिप्पणी के ज़रिए ग़ुलाम नबी आज़ाद पर तंज किया. लेकिन कपिल सिब्बल ने आज़ाद को बधाई दी और कहा कि यह बिडंबना ही है कि कांग्रेस को उनकी सेवाओं की ज़रूरत नहीं है, जबकि राष्ट्र सार्वजनिक जीवन में उनके योगदान को स्वीकार करता है.
आनंद शर्मा और राज बब्बर ने भी ग़ुलाम नबी आज़ाद को बधाई दी. ये सभी नेता कांग्रेस के उस G-23 का हिस्सा हैं जिसने 2020 में सोनिया गांधी को पत्र लिखकर कांग्रेस में आमूलचूल बदलाव की मांग की थी.
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https://www.youtube.com/watch?v=WuAExRmA2G0
चुनाव से पहले कांग्रेस में झगड़ा बढ़ना बड़ा संकट
इन बयानों से साफ़ है कि कांग्रेस में धड़ेबाजी सतह पर है और यह घटने के बजाय बढ़ती जा रही है. इससे चुनावों से पहले कांग्रेस की संभावनाओं को काफ़ी चोट पहुंची है. यूपी में ऐन चुनाव से पहले कांग्रेस के सीनियर नेताओं का पार्टी छोड़कर जाना पार्टी में बढ़ते जा रहे अंतर्कलह का नतीजा है.
आरपीएन सिंह कांग्रेस छोड़ने वाले पांचवें बड़े नेता हैं. उनसे पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया, अमरिंदर सिंह के अलावा यूपी से नाता रखने वाले जितिन प्रसाद, अदिति सिंह पार्टी छोड़ चुके हैं.
सिर्फ़ आरपीएन सिंह ही नहीं बल्कि पडरौना विधानसभा से कांग्रेस के घोषित प्रत्याशी मनीष जायसवाल ने पार्टी से इस्तीफ़ा देकर अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली है.
ज़िला अध्यक्ष राजकुमार सिंह और ज़िला महासचिव टीएन सिंह ने भी पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया है. कांग्रेस पर दूसरी पार्टियों के हमले भी तेज़ हैं. बीएसपी चीफ़ मायावती ने तो यहां तक कह दिया है कि यूपी के वोटर कांग्रेस पर अपना वोट बर्बाद न करें.
https://twitter.com/Mayawati/status/1485093962394537984
वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी का कहना है, "यूपी में कांग्रेस अपने नेताओं को एकजुट रखने में नाकाम रही है. प्रियंका गांधी खुल कर प्रदेश अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू का साथ देती रही हैं, इसलिए आरपीएन सिंह जैसे बड़े नेताओं की नाराज़गी बढ़ गई. लल्लू के काम करने की अपनी शैली है."
वे कहते हैं, "आरपीएन सिंह और दूसरे कुछ नेताओं से वह पार्टी में जूनियर हैं, इसलिए उनका उनसे तालमेल नहीं बैठ रहा है. बताया जाता है कि लल्लू के काम करने की स्टाइल से ये नेता ख़ुश नहीं थे. इसलिए पार्टी के कई सीनियर लीडर उसका दामन छोड़ चुके हैं. लल्लू के काम करने की शैली की वजह से राज्य में पार्टी के उपाध्यक्ष और मीडिया प्रभारी रहे सत्यदेव त्रिपाठी जैसे नेता ने पार्टी छोड़ दी."
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क्या G-23 को बीजेपी से शह मिल रही है?
यूपी में कांग्रेस में कलह का ही नतीजा है कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पार्टी का बड़ा चेहरा रहे इमरान मसूद ने समाजवादी पार्टी जॉइन कर ली, जबकि पार्टी ने उन्हें टिकट भी नहीं दिया.
कांग्रेस के अंदर का यह झगड़ा आज से नहीं चल रहा है. पार्टी में अनदेखी से नाराज़ ज़्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी में चले गए. सचिन पायलट के अंसतोष को थामने के लिए पार्टी को एड़ी-चोट का ज़ोर लगाना पड़ा. पंजाब में नवजोत सिंह सिद्धू, अमरिंदर सिंह और चरणजीत सिंह चन्नी के बीच के झगड़े ने कांग्रेस को इस चुनावी साल में बुरी तरह झकझोर दिया.
उत्तराखंड में हरीश रावत ने भी जब बग़ावत के संकेत दिए तो उन्हें मनाने के लिए राहुल गांधी को मशक्कत करनी पड़ी. लेकिन कांग्रेस की इस दिक्क़त का अंत नहीं दिख रहा है. पार्टी नेतृत्व को यह समझ नहीं आ रहा है कि इस मुश्किल से कैसे निपटा जाए. कांग्रेस नेतृत्व बेबस होकर नेताओं को पार्टी छोड़ कर जाता देख रहा है.
राम दत्त त्रिपाठी कहते हैं, "जब-जब पार्टी के पुराने नेता नेतृत्व को लेकर सवाल उठाते हैं या संगठन में परिवर्तन की मांग करते हैं तो उसे लगता है कि G-23 जैसे गुट को बीजेपी की ओर से शह मिल रही है. लेकिन यह भी सच है कि कांग्रेस, पार्टी के अंदर की इस स्थिति से निकल नहीं पा रही है. यह वक़्त बताएगा कि आने वाले समय में पार्टी के अंदर यह झगड़ा और कितना नुक़सान पहुंचा सकता है."
'कांग्रेस के झगड़े का असर पूरे विपक्ष पर'
पिछले साल नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने कांग्रेस में फूट को लेकर दिलचस्प टिप्पणी की थी. उनका कहना था कि कांग्रेस, बीजेपी को सत्ता से उखाड़ फेंकने की बात करती है. लेकिन जब पार्टी के नेता आपस में लड़ रहे हैं, तो उससे बीजेपी का मुक़ाबला करने की उम्मीद करना तो बेमानी ही होगी.
उन्होंने कहा था कि कांग्रेस की इस कार्रवाई का असर हर उस पार्टी पर होगा, जो बीजेपी की अगुआई वाले एनडीए से बाहर है, क्योंकि क़रीब 200 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस और बीजेपी के बीच सीधा मुक़ाबला है.
अब्दुल्ला ने यह टिप्पणी उस दौर में की थी, जब सिद्धू साथ झगड़े के बीच पंजाब में अमरिंदर सिंह ने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया था.
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चुनाव के दौर में भी पार्टी नेताओं के सुर अलग-अलग
पार्टी में पुराने नेताओं को लगता है कि राहुल, सोनिया और प्रियंका मिलकर उन्हें दरकिनार करने में लगे हैं. G-23 नाम के गुट में शामिल ये नेता मानते हैं कि कांग्रेस में जो सुधार होना चाहिए वो नहीं हो रहा है. जबकि नौजवान नेताओं का लगता है कि गांधी परिवार के इर्द-गिर्द एक गुट घेरा बनाए हुए है, इसलिए राहुल-सोनिया को इन्हें धीरे-धीरे किनारे करना चाहिए.
दो साल पहले पार्टी के एक पूर्व प्रवक्ता संजय झा ने एक अंग्रेज़ी अख़बार में एक लेख लिखकर पार्टी में सुधार लाने पर ज़ोर दिया था जिसके नतीजे में पार्टी ने उन्हें प्रवक्ता के पद से हटा दिया था.
उन्होंने बीबीसी से बातचीत में कहा था, "जिन मुद्दों की हमने अपने लेख में चर्चा की थी, इच्छाशक्ति और बदलाव लाने का जज़्बा जो पार्टी के लिए ज़रूरी है वो अब भी पार्टी नहीं कर सकी है. अभी बयानबाज़ी हम ज़्यादा सुन रहे हैं. लेकिन ज़मीनी स्तर पर कोई ख़ास बदलाव नहीं हुआ है."
बहरहाल, कांग्रेस में झगड़े इतने बढ़े हुए हैं कि पांच राज्यों के अहम चुनावों से पहले भी यह अपनी तैयारियों को चाक-चौबंद नहीं कर पा रही है. पार्टी के नए-पुराने नेता हर दिन नए बयान दे रहे हैं. और किसी भी मुद्दे पर आपस में भिड़ते हुए दिख रहे हैं.
राहुल गांधी 27 जनवरी को पंजाब का दौरा कर रहे हैं. हो सकता है वह राज्य में कांग्रेस के सीएम चेहरे का एलान करें. अगर राहुल ने कोई ऐसा एलान किया और सीएम चेहरे के तौर पर सामने आए नेता के विरोधी गुट ने इस पर एतराज़ जताया तो यह पार्टी में एक और नए झगड़े को जन्म दे देगा.
कुल मिलाकर कांग्रेस में इस वक़्त अंदरूनी झगड़े बढ़ते ही दिख रहे हैं. दिक़्क़त यह है कि इस पर फ़िलहाल कोई लगाम लगने की सूरत नहीं दिखती. चुनावों को देखते हुए भी पार्टी के नेता एक सुर में बोलते नहीं दिख रहे.
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