BBC SPECIAL: कौन हैं सुकमा हमले के माओवादी कमांडर
सरकारी सूत्रों से पता चला है कि हमले में माओवादियों की चार कंपनियां शामिल थीं जिनका नेतृत्व पांच कमांडर कर रहे थे.
छत्तीसगढ़ के सुकमा ज़िले में हुए हमले की जांच कर रही एजेंसियों ने कम से कम पांच ऐसे नक्सलियों की पहचान की है जिनके नेतृत्व में पूरी घटना को अंज़ाम दिया गया.
सरकारी सूत्रों से पता चला है कि इस हमले में माओवादियों की चार कंपनियां शामिल थीं जिनका नेतृत्व पांच कमांडर कर रहे थे.
बड़ी संख्या में महिला नक्सलियों के शामिल होने की बात भी कही जा रही है. इस बीच छत्तीसगढ़ पुलिस मुख्यालय ने चार बड़े नक्सली कमांडरों की तस्वीरें जारी कर उन पर इनाम की घोषणा भी की है.
छत्तीसगढ़ के सुकमा में नक्सली हमले के बाद आस-पास के गाँव खाली
सुकमा हमले के बाद कैंप के जवानों पर कितना असर?
इस हमले में जिन नक्सली कमांडरों की पहचान का दावा पुलिस कर रही है, उनमें सबसे बड़ा नाम है हिडमा का. हिडमा के बारे में कहा जाता है कि वो 2010 में सुकमा के ही ताड़मतला में हुए हमले में शामिल थे जिसमें केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल (सीआरपीएफ़) के 76 जवान मारे गए थे.
इसके अलावा पुलिस का कहना है कि हिडमा डुब्बामरका, कसलपाड़ और पीडमेल में हुए हमलों में भी माओवादी दस्ते का नेतृत्व कर रहे थे.
हिडमा किस्ताराम के रहने वाले बताए जाते हैं जबकि हमले में जिस दूसरे कमांडर की पहचान हुई है उनका नाम है अर्जुन. सितु और सोनी जैसे कमांडरों के अलावा पुलिस ने कई और माओवादी कैडरों की भी पहचान का दावा किया है जो हमले में शामिल थे. इनमें कई महिला नक्सली भी हैं जिनकी तस्वीरें जारी कर इनाम की घोषणा की गई है.
छत्तीसगढ़ का सुकमा: क्या कभी बदलेंगे हालात?
पुलिस अधिकारियों का कहना है कि सुकमा ज़िले के चिंतागुफा कैंप से पांच किलोमीटर की दूरी पर सड़क के निर्माण का काम कई दिनों से चल रहा है. इस काम में लगे लोगों, मज़दूरों और उपकरणों की रक्षा के लिए सीआरपीएफ़ के जवानों को तैनात किया गया है.
दोरनापाल से जगरगुंडा तक की सड़क को माओवादी कभी बनने नहीं देते हैं. जब कभी इस सड़क पर काम शुरू होता है, माओवादी छापामार उपकरणों को जला देते हैं और विस्फोट कर बनी हुई सड़क को क्षतिग्रस्त कर देते हैं.
माओवादियों ने इसके बारे में समय-समय पर बयान जारी कर कहा है कि सड़क बनने से सुरक्षा बलों के जवान गाँव में आएंगे और लोगों का शोषण करेंगे.
जगरगुंडा की सड़क पर बारूदी सुरंगों का भी जाल बिछा हुआ है जिसकी वजह से सुरक्षा बलों को किसी भी अभियान से पहले 'रोड ओपनिंग पार्टी' लगानी पड़ती है जो बारूदी सुरंगों का पता लगाती है.
24 अप्रैल को भी सड़क निर्माण के काम की सुरक्षा के लिए तैनाती से पहले 'रोड ओपनिंग पार्टी' लगाई गई.
शायद यही वजह थी कि बुर्कापाल के इलाक़े में तैनात जवान अपनी सुरक्षा को लेकर आश्वस्त थे. वो कई दिनों से इस जगह पर आ रहे थे.
लेकिन जानकारों को लगता है कि शायद यही उनकी सबसे बड़ी भूल थी कि उनकी दिनचर्या एक जैसी ही रही और माओवादियों ने इस पर नज़र रखी हुई थी.
दोरनापाल के स्थानीय पत्रकार (जो हमले के कुछ घंटों में घटनास्थल पर पहुंचे थे) बीबीसी को बताते हैं कि जवानों को भी अंदाज़ा नहीं लग पाया कि इतनी बड़ी संख्या में माओवादियों का जमावड़ा हो रहा है और वो निर्माणाधीन सड़क के पास ही 'एम्बुश' लगाकर बैठे होंगे.
अधिकारियों से बात कर पता चलता है कि घटनास्थल पर निर्माण के काम की सुरक्षा में सिर्फ़ 30 जवान ही तैनात थे.
चिंतागुफा से जगरगुंडा जाने के क्रम में बुर्कापाल के पास सड़क के बाईं तरफ माओवादियों ने जवानों के लिए जाल बिछाया.
पहले उन्होंने हमला किया तो कुछ जवान ज़ख़्मी हुए. स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि उसके बाद 'लाइट मशीन गन' यानी 'एलएमजी' के साथ चिंतागुफा कैंप से अतिरिक्त बल घटनास्थल पर पहुंचा.
जवानों ने उस दिशा में गोलियां चलानी शुरू की जहां से माओवादी गोली चला रहे थे और 'एरो ग्रेनेड' फ़ेंक रहे थे.
लेकिन छापामार युद्ध चलाने वाले माओवादियों ने जवानों को ग़लत दिशा में आने पर मजबूर कर दिया.
माओवादियों ने हमले के दौरान अंग्रेज़ी के 'यू' जैसा घेरा बनाया और फिर उन्होंने जवानों पर तीन तरफ से हमला कर दिया. इसी हमले में जवानों को ज़्यादा नुकसान का सामना करना पड़ा है.
सुकमा के वरिष्ठ पत्रकार लीलाधर राठी कहते हैं कि केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल में कोबरा बटालियन को छोड़ बाक़ी के जवान 'जंगल वार' में प्रशिक्षित नहीं हैं.
इन जवानों के साथ दूसरी बड़ी कमी है कि यह देश के विभिन्न हिस्सों के रहने वाले हैं और स्थानीय भाषा भी नहीं समझते. इन्हें इलाके की भौगोलिक पृष्ठभूमि की भी उतनी जानकारी नहीं है जितनी स्थानीय पुलिस बल के जवानों को होती है.
कुछ पुलिस अधिकारियों का मानना है कि छत्तीसगढ़ पुलिस का 'एसटीएफ' और 'डिस्ट्रिक्ट रिज़र्व फ़ोर्स' स्थनीय जवानों का है जो इलाक़े की भाषा और भौगोलिक पृष्ठभूमि से परिचित हैं. इसलिए राज्य पुलिस बलों को इस संघर्ष में ज़्यादा नुकसान नहीं उठाना पड़ता है.
बस्तर पर नज़र रखने वाले भी मानते हैं कि केंद्रीय बलों के जवानों को ऐसी लड़ाई में झोंका गया है जो उनकी है ही नहीं और इस समस्या को राज्य स्तर पर ही बेहतर तरीक़े से सुलझाया जा सकता है.