महागठबंधन बना तो होगा कितना दमदार
मंगलवार की रात को दिल्ली के 10 जनपथ पर सियासी माहौल काफ़ी गर्म था. यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गाँधी के घर पर होने वाली डिनर पार्टी में 20 राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि खाने का लुत्फ़ उठा रहे थे. वहां मौजूद लोगों ने बाद में कहा कि खाना लज़ीज़ था और माहौल में में जोश था. साथ ही ये मौक़ा था सियासी चर्चा का.
मंगलवार की रात को दिल्ली के 10 जनपथ पर सियासी माहौल काफ़ी गर्म था. यूपीए की चेयरपर्सन सोनिया गाँधी के घर पर होने वाली डिनर पार्टी में 20 राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि खाने का लुत्फ़ उठा रहे थे. वहां मौजूद लोगों ने बाद में कहा कि खाना लज़ीज़ था और माहौल में में जोश था. साथ ही ये मौक़ा था सियासी चर्चा का.
खुद कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष राहुल गाँधी ने (उनके ट्विटर हैंडल ओफ्फ़िसॉर्ग) बाद में ट्विटर पर कहा:
"आज रात शानदार रात्रिभोज, यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी जी द्वारा होस्ट किया गया। गठबंधन के नेताओं के लिए अनौपचारिक रूप से विभिन्न राजनीतिक दलों से मिलने का एक अवसर।" ट्विटर पर उन्होंने आगे कहा, " खूब राजनीतिक चर्चा, लेकिन अधिक महत्वपूर्ण - ज़बरदस्त पॉज़ीटिव एनर्जी, गर्मजोशी और वास्तविक स्नेह."
कहा जाता है कि त्रिपुरा में भारतीय जनता पार्टी की भारी जीत और उत्तरपूर्वी राज्यों में गठबंधन सरकारें बनाने के बाद से विपक्ष के खेमे में खलबली मची है. सोनिया गाँधी की डिनर पार्टी पर उनका एक जुट होना स्वाभाविक माना जा रहा है. लेकिन 20 पार्टियां तो डिनर में शामिल हुईं, लेकिन ममता बनर्जी जैसे कई अहम विपक्षीय नेता ग़ैर हाज़िर रहे. उन्होंने अपने प्रतिनिधि ज़रूर भेजे. विशेषज्ञ कहते हैं कि इसका कारण ये है कि क्षेत्रीय पार्टियां कांग्रेस वाले गठबंधन के इलावा दूसरे विकल्प को टटोलने में भी लगी हैं.
डिनर डिप्लोमेसी कही जाने वाली सोनिया गाँधी की इस पहल पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं आई हैं.
राजनीतिक विश्लेषक उर्मिलेश कहते हैं कि, ''विपक्ष बिखरा ज़रूर नज़र आता है, लेकिन ये इसके लिए एक अवसर भी है ख़ास तौर से एक ऐसे समय में जब भारतीय जनता पार्टी वाले गठबंधन के कई दल पार्टी से खुश नज़र नहीं आते. अभी तक ऐसा लग रहा था कि नरेंद्र मोदी और उनके नेतृत्व वाली सरकार और उनकी पार्टी अपराजेय है क्योकि एक राज्य से दूसरे राज्य तक वो चुनाव में सफलता हासिल करते जा रही है. लेकिन कई उपचुनाव हुए हैं जिनमें विपक्ष को अच्छी कामयाबी मिली है. विपक्ष के लिए ये एक अवसर भी है "
विपक्ष के महागठबंधन के हक़ में जो बातें जाती हैं उन में मुख्य ये हैं -
* बीजेपी को हराना मुमकिन है: कई उपचुनावों में विपक्ष की पार्टियों की जीत हुई है. पिछले आम चुनाव में कांग्रेस को 44 सीटें मिली थीं. अब लोकसभा में इसकी 48 सीटें हैं
* एनडीए में दरार नज़र आती है: बीजेपी के नेतृत्व वाली सरकार में शामिल तेलुगू देसम और अकाली दल जैसी पार्टियां कई कारणों इ खुश नहीं हैं. इनके बीच आपसी मतभेद बढे हैं
* बढ़ती बेरोज़गारी और किसानों में बेचैनी: उर्मिलेश कहते हैं: "इन चीज़ों को लेकर जनता में आक्रोश है. जनता सोच रही थी कि विपक्ष निकम्मा है. मैं समझता हूँ कि जनता की नाराज़गी को दूर करने के लिए विपक्ष इकठा हो रहा है. जनता का दबाव है विपक्ष पर और वो एक विकल्प के रूप में आ सकता है"
लेकिन महागठबंधन की राह में बाधाएं इससे कहीं अधिक हैं:
* दोस्त या दुश्मन? सोनिया गाँधी ने स्वीकार किया है कि विपक्ष की पार्टियां ज़मीनी सतह पर एक दूसरे की विरोधी रही हैं. लोग सवाल उठा रहे हैं कि ममता बनर्जी और वामपंथी पार्टियां एक प्लेटफ़ॉर्म पर कैसे आ सकती हैं. लेकिन दूसरी तरफ़ लोग ये तर्क देते हैं कि सियासत में हमेशा के लिए कभी दुश्मनी नहीं होती. वो उदाहरण देते हैं उत्तर प्रदेश के फूलपुर और गोरखपुर के उपचुनाव का जिस में बहुजन समाज पार्टी ने समाजवादी पार्टी का साथ दिया और बीजेपी को उसके गढ़ में मात दे दी.
* मुद्दे क्या और इन पर सहमति कितनी? पिछले कुछ सालों में संसद के अंदर विपक्ष ने कई बार कई मुद्दों पर एकता दिखाई है, लेकिन संसद से बाहर वो कई मुद्दों पर फूट का शिकार रही है. उर्मिलेश कहते हैं कि महागठबंधन की कामयाबी मुद्दों पर सहमति पर निर्भर करती है
* राहुल गाँधी का नेतृत्व सभी विपक्षी पार्टियों को स्वीकार नहीं. दिलचस्प बात ये है कि डिनर डिप्लोमेसी की शुरुआत राहुल गाँधी ने नहीं की जबकि उनकी पार्टी महागठबंधन में सबसे बड़ी पार्टी है. उदाहरण के तौर पर कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे नेताओं के लिए राहुल गाँधी की लीडरशिप स्वीकार करना कठिन होगा
* कुछ पार्टियां तो ये भी सोच रही हैं कि महागठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस ही क्यों करे? कांग्रेस ने दस सालों तक, यानी 2004 से 2014 तक यूपीए का सत्ता में नेतृत्व ज़रूर किया, लेकिन अब लोग सवाल ये उठा रहे हैं कि राज्यों में कई चुनाव हारने के बाद कांग्रेस काफ़ी कमज़ोर हो चुकी है.
विशेषज्ञ कहते हैं कि सोनिया गाँधी लीडर रहीं तो ये महागठबंधन बन सकता है और भाजपा को अगले साल होने वाले आम चुनाव में चुनौती दी जा सकती है. लेकिन ये कहना मुश्किल है कि नरेंद्र मोदी-अमित शाह की जोड़ी को शिकस्त देना कितना आसान होगा.