2014 वाला एनडीए 2019 में शायद नहीं होगा, फिर कैसा होगा?
बात है 20 मई, 2014 की और जगह थी संसद का सेंट्रल हॉल.
भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावों में जीत के लिए भाजपा के सहयोगियों का ख़ासतौर पर आभार प्रकट किया था.
पिछले आम चुनाव में बीजेपी ने अकेले दम पर बहुमत हासिल कर लिया था. पार्टी ने बहुमत के लिए ज़रूरी 272 से दस सीटें ज़्यादा हासिल की थी.
बात है 20 मई, 2014 की और जगह थी संसद का सेंट्रल हॉल.
भारत के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनावों में जीत के लिए भाजपा के सहयोगियों का ख़ासतौर पर आभार प्रकट किया था.
पिछले आम चुनाव में बीजेपी ने अकेले दम पर बहुमत हासिल कर लिया था. पार्टी ने बहुमत के लिए ज़रूरी 272 से दस सीटें ज़्यादा हासिल की थी.
दो दर्जन से भी ज़्यादा एनडीए सहयोगियों में से 22 ने कुल मिलाकर 54 लोकसभा सीटें जीतीं थीं, भाजपा की 282 सीटों में सहयोगियों की 54 सीटें जोड़ने पर 335 का आंकड़ा बना था.
सेंट्रल हॉल की उस बैठक में मोदी की दाईं ओर बैठे लोगों का क्रम कुछ इस तरह था, मोदी के ठीक बगल में प्रकाश सिंह बादल. फिर चंद्रबाबू नायडू और फिर उद्धव ठाकरे.
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लौटते हैं मार्च, 2018 में. अगले आम चुनाव 2019 में होने हैं तो ज़्यादा समय नहीं बचा है.
लेकिन आज की तारीख़ में भाजपा ये दावा नहीं कर सकती कि चुनाव में उसके दो बड़े सहयोगी एनडीए की छतरी-तले ही रहेंगे.
2014 में महाराष्ट्र में 18 लोकसभा सीटें जीतने वाली शिव सेना एनडीए में भाजपा के बाद दूसरा सबसे बड़ा घटक है लेकिन पिछले तीन वर्षों से शिव सेना ने सहयोगी भाजपा को लगातार धौंस दिखाती रही है.
2014 के आम चुनाव के बाद और महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के नतीजों के पहले दोनों अलग भी हुए थे.
लगभग हर हफ़्ते ही शिव सेना की तरफ़ से भाजपा को समर्थन देते रहने के मुद्दे पर 'धमकी-नुमा' बयान आना आम बात रही है.
पिछले कुछ महीनों से आंध्र प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा मिलने पर तेलुगू देशम पार्टी (टीडीपी) के तेवर भी तीखे थे.
अब टीडीपी के मंत्री केंद्र सरकार से और बीजेपी के मंत्री आंध्र में राज्य सरकार से इस्तीफ़ा दे चुके हैं और टीडीपी के नेता चंद्रबाबू नायडू कह चुके हैं कि भाजपा का रवैया "अपमानजनक और दुख पहुँचाने वाला था," वे कह रहे हैं कि वे एनडीए में रहेंगे या नहीं इसका फ़ैसला बाद में किया जाएगा.
आज की तारीख़ में 18 सांसदों वाली शिवसेना और 16 सांसदों वाली टीडीपी से रिश्ते ख़राब हो चुके हैं लेकिन सवाल यहीं ख़त्म नहीं होते हैं. पंजाब में पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के अमरिंदर सिंह की शानदार जीत और सत्ताधारी भाजपा-अकाली गठबंधन की शिकस्त से दोनों के रिश्तों में खटास घर कर चुकी है.
बिहार में भले ही भाजपा ने नीतीश-लालू गठबंधन टूटने के बाद सरकार में भागीदारी बना ली हो, लेकिन 2014 के आम चुनाव में पार्टी ने नीतीश के ही ख़िलाफ़ लड़कर 22 सीटें जीतीं थीं.
भाजपा अगर 2019 में उन्हीं नीतीश कुमार के साथ वोट मांगने जाती है तो वह केंद्र और राज्य दोनों में 'एंटी-इनकम्बेंसी' का सामना कर रही होगी यानी उसे पिछली बार जितनी सीटें नहीं मिल पाएँगी इसमें बहुत संदेह है.
जीतन राम मांझी जैसे 2014 के सहयोगी बीजेपी पर 'मौक़ापरस्ती' के आरोप लगाकर पहले ही किनारे हो चुके हैं.
नीतीश कुमार के एनडीए में आने के बाद से बिहार के दूसरे साझीदार राष्ट्रीय लोक समता पार्टी के नेता उपेंद्र कुशवाहा भी नाखुश बताए जाते हैं, हाल में उनकी एक रैली में लालू की पार्टी के कई नेता नज़र आए थे जिसके बाद से उनके पाला बदलने के कयास लगाए जा रहे हैं.
भारत प्रशासित जम्मू-कश्मीर में भाजपा नेतृत्व एनडीए ने महबूबा मुफ़्ती के साथ पीडीपी की गठबंधन सरकार तो बना रखी है लेकिन उनमें मतभेद अनेक हैं.
ऐसे में सवाल उठना लाज़मी है कि एनडीए में रह-रह कर शिकायत या विरोध के स्वर उठते क्यों रहते हैं?
ख़ासतौर पर तब, जब प्रमुख दल भाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी ने कई नए राज्यों में सरकार भी बनाई हैं और पूर्वोत्तर तक अपनी पहुँच भी.
अगर एनडीए के इतिहास को देखिए तो ऐसे एक गठबंधन की शुरुआत अटल बिहारी वाजपेयी के केंद्र में आने के पहले शरू हुई थी.
उस समय एनडीए संयोजक का पद बेहद अहम माना था जिसे एक लंबे समय तक जॉर्ज फर्नांडिस ने संभाला था. सहयोगियों से मन-मुटाव तब भी होता था और मौजूदा एनडीए में आज भी होता है.
फ़र्क यही है कि इन दिनों मोदी सरकार वाली एनडीए में कोई संयोजक नहीं है, नीतीश कुमार के एनडीए में लौटने के बाद फुल-टाइम कनवीनर शरद यादव का रोल ख़त्म हो गया.
बीच-बचाव का काम भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की 'निगरानी' में ही होता है. आख़िरकार, घूम-फिरकर जो सवाल सबके मन में है वो यही कि क्या 2019 के चुनावों में एनडीए की शक्ल वही रहेगी जो 2014 में थी?
जवाब सहयोगियों से ज़्यादा खुद भारतीय जनता पार्टी को तलाशने होंगे, या तो पार्टी नरेंद्र मोदी की छवि के दम पर 2014 के नतीजे अकेले दोहराने का भरोसा रखे. अगर नहीं, तो फिर पुराने सहयोगियों पर ध्यान देना ही पड़ेगा.
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