मेघायल की 'हत्यारिन नदी' को सुधारने में मिली बड़ी कामयाबी
नई दिल्ली, 03 दिसंबर। राज्य के पूर्व जयंतिया जिले की लुखा नदी को बांग्लादेश में लुबाचारा के रूप में जाना जाता है. लुखा नदी अपने प्रदूषित पानी के लिए कोई एक दशक से भी लंबे समय से सुर्खियों में रही है.बढ़ती इंसानी गतिविधियों के कारण राज्य में नदियों और जंगल पर बेहद प्रतिकूल असर होने की खबरों के बीच यह एक सकारात्मक खबर है.
स्थानीय भाषा में लुखा को मछलियों का जलाशय कहा जाता है. वर्ष 2007 से ही इसका पानी इतना जहरीला हो गया था कि मछलियों की कई दुर्लभ प्रजातियां धीरे-धीरे खत्म हो गई थीं. वर्ष 2012 में मेघालय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अपनी रिपोर्ट में कोयला खदानों और सीमेंट फैक्टरियों से निकलने वाले जहरीले कचरे को इसके लिए जिम्मेदार बताया था. मेघालय और इलाके के दूसरे राज्यों के पर्यावरणविद लंबे समय से लुखा के प्रदूषण के मुद्दे पर आवाज उठाते रहे हैं. अक्सर इस नदी में भारी मात्रा में मरी हुई मछलियां नजर आती रही हैं और नदी का पानी भी नीला या पीला हो जाता है.
लुखा नदी और आजीविका
यह नदी मेघालय के पूर्व जयंतिया पर्वतीय जिले में है. राज्य के अधिकतर अवैध कोयला खदान, चूना पत्थर के खदान और सीमेंट फैक्ट्रियां भी इसी जिले में हैं. मेघालय और इलाके के दूसरे राज्यों के पर्यावरणविद लंबे समय से लुखा के प्रदूषण के मुद्दे पर आवाज उठाते रहे हैं. बीते साल भी नदी में भारी मात्रा में मरी हुई मछलियां पाई गई थीं.
लुनार नदी समेत कई दूसरी सहायक नदियां भी लुखा में मिलती हैं. उसके बाद यह नदी सोनारपुर गांव से होते हुए बांग्लादेश की सूरमा घाटी में जाती है. नदी के पानी के जहरीले होने का असर पर्यटन पर भी पड़ा है. यह नदी इलाके के हजारों लोगों की आजीविका का भी साधन थी. लोग मछली पकड़ कर अपना परिवार चलाते थे. लेकिन नदी का प्रदूषित होने के साथ ही मछलियां मरने या गायब होने लगीं और ऐसे लोगों का रोजगार छिन गया.
इस नदी से करीब एक किमी दूर पर्यटकों के लिए आधा दर्जन ढाबे बने हैं. इनमें से एक ढाबा मालिक टैकमैन बताते हैं, "दूर-दूर से आने वाले पर्यटक मछली की विभिन्न किस्मों का स्वाद लेने यहां रुका करते थे. लेकिन हम लुखा नदी की मछली पर निर्भर नहीं रह सकते. पहले रोजाना एक हजार से ज्यादा ग्राहक आते थे. अब यह तादाद घटकर 50 रह गई है. शायद नदी का चेहरा बदलने से पुराने दिन लौट सकें."
लुखा नदी को उसके पुराने स्वरूप में लौटाने की मांग में लंबे अरसे से आंदोलन करने वाले खासी छात्र संघ (केएसयू) के स्थानीय नेता के.सुचियांग कहते हैं, "नदी के किनारे की बस्तियों में रहने वाले करीब 60 फीसदी से ज्यादा लोग आजीविका के लिए लुखा पर ही निर्भर थे. उन लोगों को इससे रोजाना औसतन एक हजार रुपये की आय होती थी."
पायलट परियोजना
वन और पर्यावरण मंत्री जेम्स संगमा बताते हैं, "शैवाल की सहायता से नदी के पानी से जहरीले पदार्थों को निकालने की पायलट परियोजना कामयाब रही है. पानी को विषाणु मुक्त करने की इस प्रक्रिया को फाईकोरमेडिएशन कहा जाता है. इसके तहत सूक्ष्म शैवाल की खेती की जाती है." उनका कहना है कि फाईकोरमेडिएशन से नदी के प्रमुख हिस्से में पीएच स्तर में सुधार आया है. अब लुखा के बाकी हिस्सों के साथ ही दूसरी नदियों की सफाई के लिए भी इस प्रक्रिया को अपनाया जाएगा.
मंत्री संगमा बताते हैं कि नदी के पानी में पीएच स्तर कम होने और इससे जलीय जीवन पर प्रतिकूल असर पड़ने की खबरों के बाद वर्ष 2019 में परीक्षण के तौर पर एक पायलट परियोजना शुरू की गई थी. विभाग इसके लिए अमेरिका और इजरायल के विशेषज्ञों से भी लगातार संपर्क में है. वह कहते हैं, "सरकार आर्थिक विकास और टिकाऊ पर्यावरण प्रणाली के बीच संतुलन बनाए रखने की पक्षधर है. लुखा नदी को उसके स्वाभाविक स्वरूप में लौटाने की जिम्मेदारी दिल्ली के एक संस्था को सौंपी गई थी."
प्रदूषण पर आरोप-प्रत्यारोप
केएसयू नेता के.सुचियांग बताते हैं, "इस नदी के पानी में मछलियों की मौत अच्छा संकेत नहीं है. इस नदी में सैकड़ों प्रजातियां रहती हैं. लेकिन यह नदी हत्यारिन हो गई है." उनका आरोप है कि इलाके के सीमेंट संयंत्र ही नदी के पानी के जहरीले होने की प्रमुख वजह हैं. नदी के जहरीले पानी की वजह से इलाके की जैव-विविधता भी तेजी से नष्ट हो रही है.
हालांकि सीमेंट कंपनियों की दलील रही है कि उनके कचरे से नदी का पानी विषैला नहीं हुआ. लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि चूना पत्थर की खदानों से निकलने वाले कैल्शियम कार्बोनेट के कचरे की वजह से नदी का पानी नीला हो जाता है.
मेघालय के एक पर्यावरणविद जे.टी. मावलांग कहते हैं, "लुखा में पहले पारंपरिक नौका दौड़ आयोजित की जाती थी. लेकिन नदी में प्रदूषण बढ़ने के बाद वह परंपरा भी दम तोड़ गई. ऐसे सामूहिक आयोजन बंद होने की वजह से स्थानीय पनार भाषा भी विलुप्ति के कगार पर पहुंच गई है."
वह बताते हैं कि नदी का पानी जहरीला होने की वजह से लोगों के सामने पीने का पानी का संकट तो पैदा ही हो गया था, इस पानी से सिंचाई के कारण उनके खेत भी अनुपजाऊ हो गए थे. मावलांग कहते हैं कि सरकार की यह पहल अच्छी है. लेकिन इस परियोजना को बड़े पैमाने पर लागू करना जरूरी है. राज्य की तमाम नदियां प्रदूषण से जूझ रही हैं.
Source: DW