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रोज घरों से दूर सोते हैं उत्तराखंड के इन गांवों के लोग

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नई दिल्ली, 28 जुलाई। उत्तराखंड के उत्तरकाशी से करीब 5 किलोमीटर दूर कठिन पहाड़ी पर बसा है एक छोटा सा गांव: धांसड़ा. कोई 200 लोगों की आबादी वाला धांसड़ा पिछले कई सालों से लगातार दरक रहा है.

Provided by Deutsche Welle

हालात ऐसे कि मॉनसून या खराब मौसम में यहां लोग रात को अपने घरों में नहीं सोते बल्कि गांव से कुछ किलोमीटर ऊपर पहाड़ी पर छानियां यानी अस्थायी टैंट लगा लेते हैं क्योंकि पहाड़ से बड़े-बड़े पत्थरों के गिरने और भूस्खलन का डर हमेशा बना रहता है. इसलिये जब लोग जान बचाकर ऊपर पहाड़ी पर भागते हैं तो रात के वक्त गांव में बहुत बीमार या बुज़ुर्ग ही रह जाते हैं क्योंकि वे पहाड़ पर नहीं चढ़ सकते.

असुरक्षित गांवों की लम्बी लिस्ट

उत्तराखंड में धांसड़ा अकेला ऐसा गांव नहीं है. यहां सैकड़ों असुरक्षित गांव हैं जहां से लोगों को हटाया जाना है और ये बात सरकार खुद मानती है. धांसड़ा के पास ही भंगोली गांव की रहने वाली मनीता रावत कहती हैं कि यहां कई गांवों में खौफ है. भंगोली के ऊपर पहाड़ काट कर सड़क निकाली गई है लेकिन अवैज्ञानिक तरीके से हुए निर्माण का खमियाजा गांव के लोगों को भुगतना पड़ रहा है.

तस्वीरों मेंः नदियों पर मार

रावत के मुताबिक, "सड़क से सारा पानी बहकर हमारे घरों में आता है. पत्थर, मिट्टी और गाद बहकर यहां जमा हो जाती है, सो अलग. गांव को लोगों को अपनी मदद खुद ही करनी पड़ती है. हमें अपने रास्ते भी खुद बनाने पड़ते हैं. यहां कोई सरकार नहीं है."

सामाजिक कार्यकर्ता चारु तिवारी बताते हैं कि कुछ साल पहले सरकार ने उत्तराखंड में 376 संकटग्रस्त गांवों की लिस्ट बनाई लेकिन असल में इन गांवों की संख्या कहीं अधिक है. असुरक्षित कहे जाने वाले करीब 30 गांव तो चमोली जिले में ही हैं जिन पर आपदा का खतरा बना रहता है. यहां फरवरी में ऋषिगंगा में बाढ़ आई तो इसके किनारे बसे रैणी – जो पहले ही असुरक्षित माना जाता था – में लोग गांव छोड़कर ऊपर पहाड़ों पर चले गये.

इसी तरह चमोली का ही चाईं गांव भी संकटग्रस्त है और असुरक्षित माना जाता है. यहां हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट के लिये की गई ब्लास्टिंग और टनलिंग (सुरंगें खोदने) से गांव दरकने लगे हैं और लोग असुरक्षित महसूस कर रहे हैं. इस गांव में कभी रसीले फलों की भरमार थी जो फसल अब पानी की कमी के कारण नहीं होती. जानकार कहते हैं कि विस्फोटों से पहाड़ों की हाइड्रोलॉजी पर असर पड़ रहा है और जल-स्रोत सूख रहे हैं.

आपदाओं की बढ़ती मार

बाढ़ आना, बादल फटना और भूस्खलन तो हिमालयी क्षेत्र में आम है लेकिन इनकी मारक क्षमता और ऐसी घटनाओं की संख्या अब लगातार बढ़ रही है. जहां एक ओर असुरक्षित और बेतरतीब निर्माण को लेकर कई विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं तो कई जानकार मानते हैं कि जंगलों के कटने और जलवायु परिवर्तन के बढ़ते प्रभाव का भी असर है. कई बार आपदाओं में छोटे बच्चे भी शिकार हो रहे हैं और अक्सर मीडिया में इसकी रिपोर्टिंग भी नहीं होती.

देखिएः दुनिया की टॉप 10 चोटियां

ग्रामीण बताते हैं कि 2013 की केदारनाथ आपदा के बारे में अखबारों में खूब लिखा गया लेकिन रुद्रप्रयाग जिले के ही उखीमठ में इस घटना के एक साल पहले यानी 2012 में भूस्खलन से 28 लोग मरे थे. ये हादसा चुन्नी-मंगोली नाम के गांव में हुआ जहां उस घटना के बाद वहां लोग आज भी दहशत में हैं. इसी तरह साल 2010 में बागेश्वर के सुमगढ़ गांव में एक प्राइमरी स्कूल के 18 बच्चे बादल फटने के बाद हुए भूस्खलन में दब कर मर गये. मरने वाले सभी बच्चों की उम्र 10 साल से कम थी.

भूगर्भ विज्ञानियों ने दी है चेतावनी

सभी हिमालयी राज्य भूकम्प की दृष्टि से अति संवेदनशील जोन में हैं. फरवरी में चमोली में आई बाढ़ के बाद जिला प्रशासन ने आपदा प्रबंधन विभाग से रैणी क्षेत्र का भूगर्भीय और जियो-टेक्निकल सर्वे करने को कहा. इस सर्वे के लिये उत्तराखंड डिजास्टर रिकवरी इनीशिएटिव के तीन जानकार वेंकटेश्वरलु (जियोटेक एक्सपर्ट), जीवीआरजी आचार्युलू (भूगर्भविज्ञानी) और मनीष सेमवाल (स्लोप स्टैबिलाइजेशन एक्सपर्ट) शामिल थे.

इन विशेषज्ञों ने सर्वे के बाद सरकार को जो रिपोर्ट दी है उसमें साफ कहा है, "रैणी गांव अपने मौजूदा हाल में काफी असुरक्षित है और इसके स्लोप स्टैबिलाइजेशन (ढलानों को सुरक्षित बनाने) की जरूरत है." रिपोर्ट में कहा है कि ऋषिगंगा और धौलीगंगा का संगम उस पहाड़ी की तलहटी (बिल्कुल नीचे) पर है जिस पर रैणी गांव बसा है.

रिपोर्ट चेतावनी देती है कि नदी के बहाव के कारण कमजोर पहाड़ का टो-इरोज़न (नदी के पानी से आधार का क्षरण) हो रहा है. इससे आने वाले दिनों में फिर आपदा आ सकती है. इसलिये या तो यहां के ढलानों को ठीक किया जाये या इस गांव को खाली कराया जाये.

देखिएः पर्वतारोहियों को डराने वाली चोटियां

जानकारों ने नदी के बहाव को माइक्रोपाइलिंग टेक्नोलॉजी (छोटे-छोटे पत्थर लगाकर प्रवाह को काबू करना) से नियंत्रित करने और इस जगह कुछ मीटर की दूरी पर दो तीन चेक डैम बनाने की सलाह की है.

रिपोर्ट के आखिर में कहा गया है कि सरकार रैणी गांव के लोगों को कहीं दूसरी जगह बसाये. विशेषज्ञों ने इसके लिये आसपास कुछ जगहों की पहचान भी की है जहां पर विस्थापितों का पुनर्वास किया जा सकता है लेकिन यह काम इतना आसान नहीं है.

बसावट के लिये जमीन कहां?

उत्तराखंड में समस्या ये है कि असुरक्षित इलाकों से हटाकर लोगों के पुनर्वास के लिये बहुत जमीन नहीं है. यह भी एक सच है कि किसी गांव के लोग विस्थापित को अपने यहां बसाना नहीं चाहते क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे पहले से उपलब्ध सीमित संसाधनों पर दबाव बढ़ेगा.

चमोली की जिलाधिकारी स्वाति भदौरिया ने डीडब्लू को बताया, "रैणी गांव के पास अपनी कोई सुरक्षित जमीन नहीं है इसलिये वहां गांव वालों को नहीं बसाया जा सकता. पड़ोस के जिस गांव सुभाईं में हम लोगों को बसाना चाहते हैं वहां के लोग अभी अपने गांव में इनके (रैणीवासियों के) पुनर्वास के लिये तैयार नहीं हैं. इस तरह की अड़चन पुनर्वास में आती ही है. हम पहले भी इस समस्या का सामना कर चुके हैं."

हालांकि भदौरिया कहती हैं कि इससे पहले उनके जिले में 13 गांवों का विस्थापन कराया गया है लेकिन यह बहुत आसान नहीं है. दूसरे अधिकारी कहते हैं कि ग्रामीण जमीन खरीदें और सरकार उनका पैसा दे दे यह एक विकल्प जरूर है लेकिन सवाल है कि अगर सुरक्षित जमीन उपलब्ध नहीं होगी तो ग्रामीण जमीन खरीदेंगे कहां.

एक पहलू ये भी है कि पलायन के कारण बहुत से गांव खाली हो चुके हैं जिन्हें भुतहा गांव कहा जाता है. कुछ सामाजिक कार्यकर्ता इन गांवों में लोगों को बसाने की बात करते हैं लेकिन इसमें कई व्यवहारिक और कानूनी अड़चनें हैं.

चारु तिवारी कहते हैं कि जमीन और विस्थापन की समस्या विकास योजनाओं और वन संरक्षण की नीति से जुड़ी हुई है. उनके मुताबिक वन भले ही 47% पर हों लेकिन आज 72% ज़मीन वन विभाग के पास है. वह याद दिलाते हैं कि भूस्खलन और आपदाओं के कारण लगातार जमीन का क्षरण हो रहा है और सरकार के पास आज उपलब्ध जमीन का कोई प्रामाणिक रिकॉर्ड नहीं है.

तिवारी कहते हैं, "1958-64 के बीच आखिरी बार राज्य में जमीन की पैमाइश हुई. उसके बाद से पहाड़ में कोई पैमाइश नहीं हुई है. ऐसे में न्यायपूर्ण पुनर्वास कैसे कराया जा सकता है?"

Source: DW

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English summary
himalayan villages of uttrakhand under threat
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