'ब्राह्मण और वैश्य की' भाजपा अब 'दलितों और पिछड़ों की' पार्टी!
लखनऊ। सूबे में विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने दलितों के प्रति हिमायत का राग काफी पहले ही अलाप दिया था। 3 मार्च 2014 को बिहार के मुजफ्फरपुर की एक चुनावी जनसभा में लोक जनशक्ति पार्टी शामिल करते हुए बतौर पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने कहा था कि ब्राह्मण और बनियों की पार्टी कही जाने वाली भाजपा अब दलितों और पिछड़ों की पार्टी बन गई है। दरअसल यह एक संकेत था देश, दलित और उत्तर प्रदेश को एक साथ अपने खेमे में लाने का।
UP Assembly Election 2017: BJP ने बढ़ाईं माया-मुलायम और शीला की मुश्किलें!
दलित के चक्कर में बुरी फंस रही है बीजेपी
दूरगामी सोच के साथ मोदी के बयान लोगों पर खासा प्रभाव छोड़ गए। लेकिन फिलवक्त बीजेपी के सामने सबसे बड़ी चुनौती लोकसभा चुनावों के वक्त मोदीमय माहौल में हासिल 24 प्रतिशत दलित वोट को अपने साथ जुटाए रखने की है। क्योंकि उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों की सभी 17 सीटों पर दबदबा बनाते हुए लोकसभा की 84 में से 39 सीटों पर कमल खिल गया था। साथ ही हिंदी पट्टी में भाजपा को 34 फीसदी दलित वोट मिले थे। लेकिन उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा के लिहाज से आंकड़ें एकदम उलट नजर आ रहे हैं।
दो किश्तियों में बीजेपी के राजनीतिक कदम
मौजूदा वक्त में जहां बीजेपी के सामने दलितों को अपने खेमे में रखने की मजबूत चुनौती है वहीं सवर्ण वर्ग भाजपा से खुद को नजरंदाज करने की बात को लेकर नाराज है। चुनावी अनुभव के आधार पर देखा जाए तो भाजपा के 2009 के मतों से इस बार 25 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई। उत्तर प्रदेश में 2009 में उसे 17.5 प्रतिशत वोट और 10 सीटें मिली थी।
25 प्रतिशत वोट भाजपा को कहां से मिले?
इस बार 42.3 प्रतिशत और 71 सीटें मिली हैं। आखिर यह 25 प्रतिशत वोट भाजपा को कहां से मिले? जाहिर सी बात है कि सपा-बसपा और कांग्रेस के पारंपरिक मतों ने भाजपा से संभावनाएं जाहिर की थीं। लेकिन मौजूदा वक्त को देखते हुए दलित भाजपा से नाराज नजर आ रहा है। साथ ही हिन्दुत्व के नाम पर जो लोकसभा में ध्रुवीकरण हुआ था, अन्य दलों से भाजपा में शामिल हो रहे नेताओं....एवं पिछड़े वर्ग पर पूरा फोकस रखने की वजह से माना जा रहा है कि इस बार भाजपा का पारंपरिक वोट खिसक जाएगा। हां गर यूपी में सीएम कैंडिडेट के रूप में किसी तेज-तर्रार नेता को तवज्जो दी गई तो परिणाम बदल भी सकते हैं।
बनाया और फिर कहीं बिगाड़ न दें
आपको बताते चलें कि ''तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार'' के नारे के साथ अपनी राजनीति का श्रीगणेश करने वाली बसपा सुप्रीमो मायावती को अपने इस बयान की वजह से जमकर फजीहत झेलनी पड़ी। लेकिन मौके की नजाकत को समझते हुए उन्होंने इस बयान से अपना हाथ खींचकर नया नारा दिया 'हाथी नहीं गणेश है, ब्रह्मा, विष्णु, महेश हैं।'
बसपा को सवर्णों के वोट की अहमियत पता चल चुकी थी
दरअसल बसपा सुप्रीमों को सवर्णों के वोट की अहमियत पता चल चुकी थी, इसी के चलते मायावती के साथ ज्यादा कार्यक्रमों में सतीश चंद्र मिश्रा भी साथ नजर आते थे। कहने का आशय साफ है कि महज एक वर्ग को लेकर सियासत में कद हासिल करना टेढ़ी खीर है। कमोबेश मायावती ने अपनी पुरानी गलती को अपने बयान कि हमारे मसीहा अंबेडकर हैं, राम नहीं...के जरिए फिर से दुहरा दिया है। जिसकी वजह से माना जा रहा है कि बहुजन समाज पार्टी को फिर से खामियाजा भुगतना पड़ सकता है।
वेंकैय्या ने दिया इशारा
सियासी प्यादों को दलित खेमे की मजबूती में प्रयोग कर रही भाजपा अब अपने सवर्ण वोटबैंक को खिसकता देख गंभीर जरूर हुई है। जिसे केंद्र में मंत्री वेंकैया नायडू के बयान कि तिलक, तराजू और तलवार को जूते मारने वाली पार्टी हमें नसीहत न दे, से समझा जा रहा है। लेकिन कयास यह भी लगाए जा रहे हैं कि ये महज वेंकैया की जुबान है या समूची भाजपा की। बाकी यूपी विधानसभा चुनावों के लिए रणनीति में भाजपा की फेहरिस्त में दलित प्रेम ही है या फिर सवर्ण भी शामिल हैं ये तो आगे आने वाला वक्त ही तय करेगा।