नीतीश कुमार ने 16 साल से नहीं लड़ा कोई चुनाव, 2004 की उस हार से टूटा दिल
कहा जाता है कि नीतीश कुमार बिहार में सबसे दमदार चुनावी चेहरा हैं। यह भी कहा जाता है कि नीतीश कुमार का बिहार में कोई विकल्प नहीं है। जब नीतीश के नाम और काम को जीत की गारंटी माना जाता है तो फिर वे खुद चुनाव क्यों नहीं लड़ते ? 1985 के बाद उन्होंने कोई विधानसभा चुनाव नहीं लड़ा है। आखिर क्यों ? लालू यादव को भी बिहार में मजबूत जनाधार वाला नेता माना जाता है। उनके बारे में धारणा है कि वे जिसे चाहे उसे जिता दें। अगर लालू यादव का इतना ही पराक्रम है तो राबड़ी देवी चुनाव क्यों नहीं लड़तीं ? राबड़ी देवी ने 2010 के बाद विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा है। नीतीश हों या राबड़ी देवी, विधान परिषद का सदस्य बन ही अपनी राजनीति पारी को आगे बढ़ा रहे हैं। क्या बड़े नेता हार से डरते हैं ? क्या वे इस बात से घबराते हैं कि अगर हार गये तो उनकी फलती-फूलती राजनीति विरासत नष्ट हो जाएगी ?
नीतीश ने आखिरी चुनाव 2004 में लड़ा था
नीतीश कुमार ने 1985 में पहली बार विधानसभा का चुनाव जीता था। इसके बाद वे सांसद रहे। अब 2006 से वे बिहार विधान परिषद के सदस्य बने हुए हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने विधानसभा का कोई चुनाव नहीं लड़ा है। नीतीश ने आखिरी चुनाव 2004 में लड़ा था। 2004 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार दो जगह से खड़े हुए थे। बाढ़ और नालंदा दो सीटों से उन्होंने चुनाव लड़ा था। 1999 का लोकसभा चुनाव नीतीश ने बाढ़ से जीता था। लेकिन 2004 में उन्हें बाढ़ की राजनीतिक फिजां कुछ बदली हुई लगी। तब उन्होंने अपने गृह जिले नालंदा की याद आयी। नालंदा के सीटिंग सांसद जॉर्ज फर्नांडीस थे। नीतीश ने जॉर्ज को मुजफ्फरपुर शिफ्ट कर नालंदा से नॉमिनेशन कर दिया। नीतीश की आशंका सच साबित हुई। 2004 में नीतीश बाढ़ में राजद के विजय कृष्ण से चुनाव हार गये। नालंदा सीट पर उनकी विजय हुई जिससे उनकी सांसदी बची रह गयी। बाढ़ की हार से नीतीश को बहुत सदमा पहुंचा था। बाढ़ लोकसभा क्षेत्र के बख्तियारपुर से उनका जज्बाती रिश्ता रहा है। उनका बचपन यहीं गुजरा है। यहीं पढ़ कर ही वे पढ़ाई में अव्वल आये तो इंजीनियर बने। उन्होंने एक बार कहा भी था कि मैं कहीं भी रहूं, दिल मेरा बाढ़ में बसता है। नीतीश कुमार केन्द्रीय मंत्री रहते चुनाव हार गये थे। इस हार ने उन्हें विचलित कर दिया था।
2005 में जब नीतीश मुख्यमंत्री चुने गये थे तब सांसद थे
2004 में वाजपेयी सरकार की करारी हार हुई। नीतीश मंत्री की बजाय केवल सांसद रह गये। बिहार में राबड़ी देवी की सरकार चल रही थी। यह समय नीतीश का संक्रमण काल था। उस समय तक नीतीश, लालू यादव की तुलना में पीछे थे। लालू केंद्र में रेल मंत्री थे तो उनकी पत्नी राबड़ी देवी बिहार की मुख्यमंत्री थीं। यहां से नीतीश को एक नया रास्ता बनाना था। 2000 में वे सात दिन का मुख्यमंत्री बन कर आलोचना का पात्र बन चुके थे। इसके बाद नीतीश मजबूत इरादों के साथ मैदान में उतरे। उन्होंने भाजपा के साथ मिल राबड़ी सरकार को उखाड़ फेंकने का बिगुल फूंका। नीतीश ने भाजपा के सहयोग से 2005 का विधानसभा चुमनाव जीत लिया। इस चुनाव में नीतीश खुद खड़े नहीं हुए थे क्यों कि उस समय वे सांसद थे। मुख्यमंत्री बनने के लिए नीतीश ने सांसदी से इस्तीफा दे दिया। अब उन्हें छह महीने के अंदर बिहार विधान मंडल के किसी सदन का सदस्य बनना था। नीतीश ने चुनाव लड़ने का जोखिम नहीं लिया। उन्होंने विधान परिषद का सदस्य बनने का फैसला किया। 2006 में वे बिहार विधान परिषद के सदस्य बने। इसके बाद से नीतीश कुमार अभी तक विधान परिषद के ही सदस्य हैं। मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश ने खुद कोई चुनाव नहीं लड़ा है।
लालू और नीतीश की तुलना
लालू यादव जब 1990 में मुख्यमंत्री बने थे तब वे भी सांसद ही थे। उन्होंने भी सांसदी छोड़ कर बिहार के सीएम पद की शपथ ली थी। तब लालू ने भी विधान परिषद का सदस्य बन कर ही सीएम की कुर्सी बरकरार रखी थी। लेकिन लालू यादव ने मुख्यमंत्री बनने के बाद विधानसभा का चुनाव लड़ा था। 1995 में लालू यादव ने वैसे तो विधानसभा चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया था लेकिन अंदर ही अंदर वे हार को लेकर डरे हुए थे। उस समय लालू पिछड़ों के मसीहा बन चुके थे। उनकी राजनीतिक ताकत का बोलबाला कायम हो गया था। इसके बाद भी उन्हें हार का डर सता रहा था। राजनीति भविष्य की सुरक्षा के लिए लालू ने 1995 में दो सीटों, राघोपुर और दानापुर, से चुनाव लड़ा। दोनों सीट से जीते। दानापुर में उन्हें केवल 23 हजार वोट से जीत मिली थी इसलिए लालू ने यह सीट छोड़ दी। उनको लगा कि पिछड़ों के सबसे बड़े नेता को इतने कम वोटों से जीत क्यों मिली। लालू यादव कहते थे कि शेरदिल नेता को विधानसभा का चुनाव लड़कर राजनीति करनी चाहिए, विधान परिषद का सदस्य बन कर नहीं। लेकिन जब समय आया तो वे अपनी बात ही भूल गये।
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राबड़ी देवी चुनाव क्यों नहीं लड़तीं?
लालू यादव चूंकि चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित हो चुके हैं इसलिए संसदीय राजनीति से दूर हैं। भविष्य की राजनीति के लिए ही लालू यादव ने 1997 में राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बनाया था। अगर राबड़ी देवी ने लालू यादव की विरासत संभाल ली होती तो आज राजद में न नेतृत्व संकट होता और न विवाद होता। राबड़ी देवी ने 2014 का लोकसभा चुनाव हारने के बाद कोई चुनाव नहीं लड़ा। 2015 के विधानसभा चुनाव वे दूर रहीं। 2019 के लोकसभा चुनाव के समय पुरजोर चर्चा थी कि राबड़ी देवी छपरा सीट से चुनाव लड़ेंगी। तेज प्रताप की बगावत को बेअसर करने के लिए राबड़ी देवी पर चुनाव लड़ने का बहुत दबाव था। लेकिन कहा जाता है कि राबड़ी देवी ने यह चुनाव इसलिए नहीं लड़ा कि अगर वे हार गयी तो राजद की शक्ति और प्रतिष्ठा पर सवाल खड़ा हो जाएगा। अगर वे चुनाव नहीं लड़ेंगी तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा लेकिन हार गयी तो लालू और राजद की राजनीति खत्म हो जाएगी। आखिरकार राबड़ी ने छपरा से चुनाव नहीं लड़ा। लालू के समधी चंद्रिका राय ने वहां से चुनाव लड़ा जिसमें उनकी हार हुई। दरअसल राबड़ी देवी की 2010 और 2014 की चुनावी हार से लालू परिवार का आत्मविश्वास डगमगा गया था। 2010 के विधानसभा चुनाव में राबड़ी देवी ने दो सीटों पर चुनाव लड़ा था और दोनों जगह हार गयी थीं। राघोपुर में उन्हें जदयू के एक नौजवान कार्यकर्ता सतीश कुमार ने हराया था तो सोनपुर में वे भाजपा के विनय सिंह से पराजित हुई थीं। 2014 के लोकसभा चुनाव में राबड़ी देवी लालू के गढ़ छपरा में हार गय़ी थीं। उन्हें भाजपा के राजीव प्रताप रुढी ने हराया था। राबड़ी देवी ने भी सुरक्षित राजनीति के लिए विधान परिषद का सदस्य बनना ही बेहतर समझा। 2012 में वे दूसरी बार विधान परिषद का सदस्य बनीं। फिर 2018 में तीसरी बार एमएलसी चुनी गयीं। राबड़ी देवी 1998 में तब पहली बार एमएलसी बनी थीं जब वे 1997 में बिना किसी सदन का सदस्य रहे मुख्यमंत्री बन गयीं थीं। लालू यादव को चारा घोटाला मामले के कारण 1997 में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। अब राबड़ी देवी राजनीति तो कर रही हैं लेकिन विधान पार्षद बन कर।