बिहार में जातियों को लुभाने का खेल शुरू, क्या नीतीश का विकास का मॉडल खोखला है?
नई दिल्ली। क्या विकास का नीतीश मॉडल खोखला है ? क्या नीतीश को अपने काम और गुड गवर्नेंस पर भरोसा नहीं ? अगर है तो फिर वे बार-बार जातीय कार्ड क्यों खेल रहे हैं ? नीतीश कुमार ने चुनाव से ऐन पहले घोषणा की है कि किसी दलित की हत्या पर उसके आश्रित को सरकारी नौकरी दी जाएगी। नीतीश की इस घोषणा को चुनावी चाल कहा जा रहा है। विरोधी दलों का सवाल है कि अगर नीतीश को दलितों की इतनी ही चिंता थी तो उन्होंने इसे 2015 में क्यों नहीं लागू किया ? अब जब विधानसभा का चुनाव होना है तो वे वोट के लिए दांव खेल रहे हैं। नीतीश के विकास का दावा ढकोसला है, जातिवाद के नाम पर ही उनकी राजनीति चलती है। विरोधी दल नीतीश पर ये आरोप तो लगा रहे हैं लेकिन वे खुद उसी राह पर चल रहे हैं। नीतीश ने दलित कार्ड खेला तो तेजस्वी ने ओबीसी का पत्ता फेंक दिया। तेजस्वी ने कहा कि अगर ओबीसी या सामान्य वर्ग के व्यक्ति की हत्या होती तो उनके आश्रितों को क्यों नहीं सरकारी नौकरी मिलनी चाहिए ? सरकार ने दलितों के लिए जो घोषणा की है वह एक तरह से उनकी हत्या के लिए प्रेरित करने वाली बात होगी। तेजस्वी के मुताबिक, अगर हमारी सरकार बनी तो साढ़े चार लाख लोगों को नौकरी देंगे। चुनाव के पहले जातियों को लुभाने का खेल शुरू है।
नीतीश का विकास बनाम जातिवाद
नीतीश कुमार ने जातिवाद की जमीन पर ही अपनी स्वतंत्र पहचान कायम की है। 1993 में नीतीश ने अतिपिछड़ी जातियों के हक का मुद्दा उठा कर लालू यादव का विरोध शुरू किया था। उस समय आरोप लगा था कि पिछड़े वर्ग के आरक्षण का फायदा सबसे अधिक यादव समुदाया को मिला है। अतिपिछड़े वर्ग के लोगों को इसका बहुत कम लाभ मिला। तब नीतीश ने आरक्षण में कोटा के अंदर कोटा का समर्थन किया जैसा कि कर्पूरी ठाकुर के समय था। उसमें पिछड़ों और अतिपिछड़ों के लिए अलग-अलग हिस्सा निर्धारित किया गया था। इस मुद्दे पर नीतीश की जब लालू यादव से लड़ाई बढ़ गयी तो 1994 में नीतीश लालू से अलग हो गये। लालू से अलग होने के लिए नीतीश ने कुर्मी चेतना महारैली के मंच का इस्तेमाल किया था।
कुर्मी चेतना महारैली से नीतीश को मिला मंच
12 फरवरी 1994 को पटना के गांधी मैदान में कुर्मी चेतना महारैली का आयोजन हुआ था। उस समय नीतीश कुमार जनता दल के सांसद थे और वे एक बड़े कुर्मी नेता के रूप में उभर रहे थे। तब बिहार में लालू यादव मुख्यमंत्री थे। नीतीश, लालू यादव की छत्रछाया में ही राजनीति कर रहे थे। कुर्मी चेतना रैली का आयोजन सीपीआइ के पूर्व विधायक सतीश कुमार ने किया था जिसे सभी कुर्मी नेताओं का समर्थन हासिल था। नीतीश कुमार को भी इसमें शामिल होने का न्योता मिला था। लालू यादव कुर्मी चेतना महारैली पर भड़के हुए थे क्यों कि वे इसे अपने लिए चुनौती मान रहे थे। नीतीश और लालू की दूरियां हद से ज्यादा बढ़ गयी थीं। लालू इस बात से डरे हुए थे कि अगर नीतीश इस रैली में गये तो कुर्मी जमात को एक मजबूत नेता मिल जाएगा। इसी शंका-आशंका के बीच लालू यादव ने एक दिन नीतीश को संदेशा भेजा कि अगर वे रैली में शामिल हुए तो इसे विद्रोह माना जाएगा। लालू इस रैली को अपनी सरकार के खिलाफ एक साजिश मान रहे थे। लेकिन नीतीश ने लालू की बात अनसुनी कर दी और वे रैली में गये। कुर्मी चेतना महरैली ने नीतीश को एक नया मंच दिया। जातीय भावना के ज्वार पर सवार हो कर नीतीश कुर्मी समाज का सबसे बड़ा नेता बन गये। इस रैली के दो महीने बाद ही नीतीश ने जनता पार्टी को तोड़ कर जनता दल जॉर्ज के नाम से एक अलग गुट बना लिया। बाद में यही जनता दल जॉर्ज, समता पार्टी के रूप में बदल गया।
दलित और महादलित की राजनीति
2010 में जब नीतीश कुमार और रामविलास पासवान की राहें अलग-अलग थी उसके पहले भी नीतीश ने जातीय कार्ड खेला था। उस समय नीतीश कुमार ने रामविलास पासवान को झटका देने के लिए पासवान जाति को छोड़ कर शेष 21 दलित जातियों को महादलित घोषित कर दिया था। तब पासवान ने नीतीश कुमार पर बांटो और राज करो का आरोप लगाया था। उस वक्त रामविलास पासवान ने कहा था, नीतीश कुमार ने पहले धोबी, पासी, रविदास और पासवान को छोड़ कर 18 दलित जातियों पिछड़ेपन के आधार पर महादलित घोषित किया था। फिर पासी, धोबी और रविदास को महादलित में शामिल कर लिया और पासवान को छोड़ दिया। नीतीश दलित समाज को बांट कर अपना राजनीतिक हित साधना चाहते हैं। उस समय यह आरोप लगा था कि नीतीश ने रामविलास पसवान की राजनीति को खत्म करने के लिए यह दांव खेला था। लेकिन जब 2017 में नीतीश और रामविलास पासवान एनडीए के एक मंच पर आये तो स्थिति बदल गयी। 2018 में नीतीश ने पासवान को भी महादलित वर्ग में शामिल कर रामविलास पासवान को खुश कर दिया। यानी नीतीश अपनी राजनीतिक सुविधा के हिसाब से जातीय कार्ड का इस्तेमाल करते हैं।
अतिपिछड़ों पर फोकस
नीतीश कुमार ने 2019 के लोकसभा चुनाव में अतिपिछड़ा कार्ड खेला था। पिछड़े वर्ग में अतिपिछड़ी जातियों की संख्या बहुत ज्यादा है। उन्होंने लोकसभा चुनाव में इस वर्ग के छह उम्मीदवार उतारे थे जो विजयी रहे। बिहार की राजनीति में आजतक अतिपिछड़े समुदाय को संसदीय राजनीति में इतनी अधिक हिस्सेदारी नहीं मिली थी। इसके बाद नीतीश ने अतिपिछड़ा एजेंडा को अपनी राजनीति का मुख्य आधार बना लिया। बाद में लालू यादव ने भी इस बात को स्वीकार किया कि अतिपिछड़ों की नीतीश के पक्ष में गोलबंदी से 2019 में उनकी करारी हार हुई थी। इस साल जनवरी में नीतीश ने इस समुदाय के लिए दो बड़ी घोषणाएं की थीं। उन्होंने सालाना ढाई लाख आय वाले अतिपिछड़े छात्रों को मैट्रिक के बाद की पढ़ाई के लिए स्कॉरशिप देने की घोषणा की थी। इसके अलावा इस वर्ग के उद्यमियों को पांच लाख तक का ब्याजमुक्त कर्ज देने एलान किया था। इन घोषणओं को भी चुनावी लाभ से जोड़ कर देखा गया था। इन्ही बातों के आधार पर कहा जा रहा है कि नीतीश अपनी चुनावी जीत के लिए विकास से अधिक जाति पर भरोसा करते हैं।
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