ताज नगरी से गायब हो रही शाही सवारी तांगा
नब्बे के दशक तक तांगा मोटरवाहनों के बीच बिना किसी मुश्किल के सडको पर अपना स्थान बनाये रहा। किन्तु बाद का समय उसके लिये माफिक नहीं रहा।
ईको फ्रेडली होना भी काम नहीं आया
इस ‘ईको फ्रेंडली' सवारी को हटाये जाने वालों ने इस तथ्य को भी दरकिनार कर दिया कि विदेशी पर्यटक ही नहीं भारतीय सैलानियों तक के लिये तांगा खास आकर्षण रखते हैं। 2005 से तांगों की संख्या में तेजी के साथ गिरावट का जो क्रम चला अब तक जारी है।
ताजमहल से आगरा किले के बीच यह अब भी चल तांगा रहा है किन्तु इसके लिये अनुमतियों के नाम पर तांगेवालों को काफी दिक्कतों का सामना करना पडता है।
महंगाई
ने
भी
निकाली
तांगा
चालकों
की
दम
तांगे
भले
ही
मुख्य
मार्गों
पर
प्रतिबंधित
हो
गये
हो
कन्तु
शहर
के
एक
बडे
भाग
में
उनका
उपयोग
जारी
रखा
जा
सकता
है।लेकिन
महंगाई
ने
तांगा
चालकों
की
कमर
तोड
दी
है।चने
और
खली
का
दाम
तेजी
के
साथ
बढा
है,
तेल
भी
चिकनाई
के
रूप
में
घोडों
की
खुराक
में
शामिल
होता
है।
इसके
अलावा
सफाई,
मालिश
और
खुरों
में
ठुंकी
नालों
की
नियमित
जांच
परख
भी
हर
महीने
लगभग
एक
हजार
रुपये
से
अधिक
की
बैठती
है।
आगरा नगर निगम के लिये किये गये एक सर्वेक्षण के अनुसार एक घोडागडी (तांगा) को सही प्रकार से रखने में घोडे के खर्च सहित 9 से 11 हजार मासिक का खर्च बैठता है।अगर तांगा मालिक खुद घोडा हांकने का काम नहीं करता तो तांगा चालक की तन्खा अलग। इस प्रकार न्यूनतम एक हजार रूपये तांगे से कमाये जा सकने पर ही तांगा चालक के पिरवार की गुजर बसर संभव है।
शासन की नीति
सरकार हैरीटेज टूरिज्म के बढते चलन से अब तांगे का महत्व तो जरूर स्वीकार करने लगी है किन्तु इनको बचाने के लिये कोई नीति या कार्यक्रम नहीं बना सकी है। बदले रनजरिये के फलस्वरूप अब जब भी शहरी ट्रांसपोर्ट व्यवस्था पर विचार होता है तो तांगों को नहीं नकारा जाता।वाराणसी, इलहाबाद ,लखनऊ और आगरा में तो पर्यटक आकर्षण के रूप में भी स्वीकारा जाता है।