याद आ गई मायावती की वो 'कालिख' रात
अजय
मोहन
दिल्ली
की
एक
प्रेस
कॉन्फ्रेंस
में
बाबा
रामदेव
के
चेहरे
पर
एक
व्यक्ति
ने
कालिख
फेंक
दी।
72
घंटे
के
भीतर
खबर
आयी
कि
दिल्ली
स्थित
कांग्रेस
मुख्यालय
के
सामने
सोनिया
गांधी
के
पोस्टर
पर
किसी
ने
कालिख
पोत
दी
है।
इन
दोनों
घटनाओं
को
मीडिया
ने
जमकर
उछाला,
टीवी
चैनलों
ने
ब्रेकिंग
न्यूज
के
रूप
में
टीआरपी
बढ़ाने
के
हर
संभव
प्रयास
किये।
मीडिया
के
इस
तेवर
को
देख
मुझे
11
सितंबर
2007
का
वो
दिन
याद
आ
गया
जब
लखनऊ
में
यूपी
की
मुख्यमंत्री
मायावती
के
पोस्टरों
पर
कालिख
पोती
गई
थी।
खास
बात
यह
है
कि
उस
समय
न
तो
किसी
अखबार
ने
और
न
ही
किसी
टीवी
चैनल
ने
यह
खबर
चलायी।
और
खबर
दब
गई।
यह दबी हुई खबर आज एक घाव के रूप में एक बार फिर से ताज़ा हो गई, जब समाजवादी छात्रसभा के लखनऊ नगर अध्यक्ष व क्रिश्चियन पीजी कॉलेज के पूर्व छात्रसंघ अध्यक्ष फखरुल हसन उर्फ चांद मियां ने फेसबुक प्रोफाइल पर अपना दर्द बयां किया। उन्होंने अपने पोस्ट में लिखा, "समय रात लगभग 2 बजे, 10, 11 सितम्बर 2007, मायावती सरकार द्वारा छात्रसंघ चुनाव पर प्रतिबंध लगाये जाने के विरोध में लखनऊ शहर में मायावती की सभी होर्डिंगों पर कालिख पोती गयी। छात्र नेता फखरुल हसन चाँद, मनीष यादव, पवन पाण्डेय, राजपाल कश्यप, राजेश यादव, रामसिंह राणा, अभितेंद्र सिंह राठौरे, राजन नायक और विष्णु पाण्डेय समेत कई छात्र नेताओं पर यूपी पुलिस ने मुकदमें दर्ज किये। सभी मुकदमे लखनऊ के चार थानों में दर्ज हुए, वो भी संगीन धाराओं के साथ जिसमें गैंगेस्टर एक्ट भी लगाया गया। पुलिस ने इस कदर हिस्ट्री शीट खोली कि पता नहीं हमने कितना बड़ा अपराध कर दिया है। लेकिन पिछले दिनों बाबा रामदेव पर और फिर सोनिया गांधी की होर्डिंग पर कालिख फेकने के मामलों पर मामूली धाराओ में मुकदमा हुआ और लोकतंत्र को जिंदा रखने का डंका पीटा गया। यह फर्क क्यों?"
यह तो महज एक पोस्ट है, जो सपा के नेता ने लिखा है, लेकिन असलियत सुन कर आपके भी होश उड़ जायेंगे। 10-11 सितंबर की उस रात मैं लखनऊ के एक प्रसिद्ध अखबार के फोटोग्राफर के साथ था। वह फोटोग्राफर उस रात जैसे ही घर पहुंचा, उसके पास एक ऑटो वाले का फोन आया कि हजरतगंज चौराहे पर कुछ लड़के मायावती के पोस्टरों पर कालिख पोत रहे हैं। फोटोग्राफर तुरंत निकल पड़ा और रात भर घूम-घूम कर फोटो खींचे। शुरुआत में कुछ छात्र नेता कालिख पोत रहे है।
जैसे जैसे तस्वीरें आगे बढ़ीं, तो होश उड़ा देने वाली तस्वीरें सामने आयीं। उन तस्वीरों में डीएम, एसएसपी समेत कई बड़े अधिकारी सरकारी मुलाजिमों और पुलिसकर्मियों के साथ कालिख साफ करते दिखे। पूरी रात चली इस एक्सरसाइज में कालिख तो मिट गई, लेकिन खबर छपने का डर हर अधिकारी को था। उस फोटोग्राफर ने जब दूसरे दिन अपने संपादक के सामने तस्वीरें रखीं, तो अखबर ने फोटो-फीचर छापने की पूरी प्लानिंग कर ली। लेकिन ऐन वक्त पर ऊपर से फोन आया और खबर रूक गई। अगले दिन वो तस्वीरें बाकी सभी अखबारों तक पहुंच गईं, लेकिन फिर भी कोई भी फोटो नहीं छाप सका। कुछ छोटे अखबारों ने सिंगल कॉलम खबर छापकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर दी।
इस वाक्ये को पढ़कर आप अंदाजा लगा सकते हैं कि मायाराज में मीडिया भी कितना दबा कुचला रहा है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस वाक्ये के बाद जब पुलिस ने सपा के छात्रनेताओं को उनके घरों से उठाया और लाठी-डंडों से पीटा, तो अखबारों में उसके पीछे कई अन्य कारण छापे गये। खैर हम यहां किस पार्टी विशेष या मीडिया के खिलाफ चर्चा करने नहीं बैठे हैं, लेकिन अगर देश में लोकतंत्र को सर्वोपरि समझा जाता है, तो हमारी पुलिस सभी के साथ एक जैसा सुलूक क्यों नहीं करती। एक जैसे मामलों में अलग-अलग रवैया क्यों अपनाती? ये वो सवाल हैं जिनके जवाब शायद पुलिस आलाकमान के पास भी नहीं होंगे, क्योंकि अपनी कुर्सी बचाये रखने के लिए उन्हें भी रोज कुआं खोदना पड़ता है।