बीजिंग ओलंपिक : आखिर भारत और अभिनव क्यों नहीं पैदा कर सकता (विशेष लेख)
नई दिल्ली, 11 अगस्त (आईएएनएस)। अभिनव बिंद्रा की स्वर्णिम सफलता पर देश भले ही खुशी मना रहा हो, लेकिन निशानेबाज, खासतौर पर मेरे जैसे पूर्व निशानेबाज अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसी स्थिति में जबकि व्यक्तिगत तौर पर खिलाड़ियों को अपने संसाधनों के भरोसे छोड़ दिया जाता हो, इस महंगे खेल में चमत्कार कर पाना कतई आसान नहीं।
नई दिल्ली, 11 अगस्त (आईएएनएस)। अभिनव बिंद्रा की स्वर्णिम सफलता पर देश भले ही खुशी मना रहा हो, लेकिन निशानेबाज, खासतौर पर मेरे जैसे पूर्व निशानेबाज अच्छी तरह जानते हैं कि ऐसी स्थिति में जबकि व्यक्तिगत तौर पर खिलाड़ियों को अपने संसाधनों के भरोसे छोड़ दिया जाता हो, इस महंगे खेल में चमत्कार कर पाना कतई आसान नहीं।
भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) हालांकि निशानेबाजों के लिए विदेशी कोच नियुक्त करता है और प्रतिभाशाली खिलाड़ियों के लिए शिविर भी आयोजित करता है, लेकिन इसके बावजूद कुछ एक खिलाड़ी ही शीर्ष स्तर पर नाम कर पाते हैं।
मेरा ही मामला लीजिए। राष्ट्रीय चैंपियनशिप में रजत पदक जीतने के बाद मेरे पास निशानेबाजी में करियर बनाने का अच्छा मौका था, लेकिन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर पिस्टल चोरी होने के बाद मेरे हाथ से यह मौका निकल गया।
उस समय मैं 15 वर्ष की थी। मैं मेरठ के सेंट सोफिया गर्ल्स स्कूल में पढ़ती थी और उत्तर प्रदेश की निशानेबाजी टीम की सदस्य थी। मैं राष्ट्रीय स्तर पर नाम कमाना चाहती थी, लेकिन पिस्टल चोरी होने के कारण मेरा सपना टूट गया। वह पिस्टल मध्यम वर्ग से ताल्लुक रखने वाले मेरे पिता ने 65 हजार रुपये में खरीदी थी।
मेरे पिता के पास दूसरा पिस्टल खरीदने के लिए पैसे नहीं थे, लिहाजा मेरा करियर शुरू होते ही खत्म हो गया। खेल मंत्रालय खिलाड़ियों की मदद के लिए कोष जारी करता है, लेकिन इसका बड़ा हिस्सा विदेशी कोचों के ऊपर खर्च कर दिया जाता है। हॉकी खिलाड़ियों की तरह निशानेबाजों को मुफ्त में खाने और रहने की सुविधा के अलावा कोचों से थोड़ी बहुत राय मिल जाती है।
अगर किसी निशानेबाज के पास बंदूक नहीं है या फिर उसने उसे गवां दिया है, तो उसकी मदद करने वाला कोई नहीं। दिल्ली के कर्णी सिंह शूटिंग रेंज में बंदूकें किराए पर मिलती हैं, लेकिन ओलंपिक के लिहाज से ये किसी काम की नहीं होतीं।
एक ऐसे खिलाड़ी के लिए जो आर्थिक रूप से मजबूत नहीं होने के बावजूद मन में कई महत्वकांक्षाएं पाले हुए है, ये बातें वाकई मायने रखती हैं। चार साल पहले जब मैंने निशानेबाजी छोड़ी थी, तब एयर राइफल और पिस्टल में उपयोग में लाई जाने वाली पिलेट्स (गोलियां) का एक डिब्बा 500 रुपये में आता था।
ऐसे में जब गोलियां इतनी महंगी हों, गांव से आए एक गरीब निशानेबाज के लिए अभ्यास के दौरान रोजाना 20 राउंड फायरिंग करना कितना महंगा पड़ सकता है, आप समझ सकते हैं। इससे कम अभ्यास में आप अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ नहीं कर सकते।
अभिनव चंडीगढ़ के एक अमीर परिवार से ताल्लुक रखते हैं। उनके पिता ने घर के पिछवाड़े ही एक शूटिंग रेंज बना रखा है। घर में शूटिंग रेंज होने का यह मतलब हरगिज नहीं कि उनके सिर भारत के लिए पहला स्वर्ण जीतने का सेहरा नहीं बंधना चाहिए। उनमें साहस, संकल्प और जीतने की ललक थी तभी उन्होंने यह जीत हासिल की है।
जीत के बाद बिंद्रा पर धन की वर्षा होने लगी है और आने वाले कई दिनों तक होती रहेगी। खिलाड़ियों के लिए पुरस्कार बहुत जरूरी हैं, लेकिन इन सबके बीच एक सवाल हर बार अधूरा रह जाता है। वह सवाल है कि आखिर सरकार ऐसे प्रतिभाशाली निशानेबाजों पर पैसे खर्च करने से क्यों बचती रहती है, जिनमें शीर्ष स्तर पर चमक बिखेरने का माद्दा है। आखिर कब तक प्रतिभाशाली खिलाड़ी कोष और सुविधाओं के अभाव में अपने करियर को असमय काल के गाल में समाते देखते रहेंगे?
(लेखिका आईएएनएस की पत्रकार हैं। इन्होंने 2000 में अहमदाबाद में आयोजित राष्ट्रीय पिस्टल चैंपियनशिप में रजत पदक जीता था। इनसे ईमेल-पुपुल डॉट डी एट आईएएनएस डॉट इन- पर संपर्क किया जा सकता है।)
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।
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