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अभी भी बाकी है 'खिलौना' का सुरूर

By Staff
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नई दिल्ली, 16 जून (आईएएनएस)। कई बार प्रचलन से बाहर हो जाने के बाद भी कुछ चीजों के प्रति लागों का लगाव बना रहता है। मशहूर उर्दू मासिक 'खिलौना' के प्रति इसके पाठकों का लगाव भी कुछ इसी तरह का है।

नई दिल्ली, 16 जून (आईएएनएस)। कई बार प्रचलन से बाहर हो जाने के बाद भी कुछ चीजों के प्रति लागों का लगाव बना रहता है। मशहूर उर्दू मासिक 'खिलौना' के प्रति इसके पाठकों का लगाव भी कुछ इसी तरह का है।

खिलौना का प्रकाशन वर्ष 1987 में ही बंद हो गया था, लेकिन युवाओं में इसकी लोकप्रियता का आलम यह था कि इसके दीवाने कुछ पाठक अब भी इसकी प्रतियों की तलाश रद्दी के दुकानों में करते पाए जाते हैं।

उर्दू बाजार में कुत्ब खाना-ए-रहिमिया के मालिक शाहिद-उर-रहमान ने आईएएनएस से कहा, "पुराने लोगों में 'खिलौना' की लोकप्रियता बहुत ज्यादा थी।" उन्होंने कहा कि खिलौना के पुराने अंक हमेशा महंगे दामों में बिकते हैं।

रहमान ने कहा कि प्रकाशन बंद हो जाने के बाद खिलौना के पाठकों में इसकी प्रतियां जमा करने की होड़ मच गई थी। उन्होंने कहा कि खिलौना उर्दू संस्कृति और विरासत के खजाने के समान है। इस पत्रिका से जितनी संख्या में उम्रदराज लोग जुड़े हुए थे उतनी ही संख्या में बच्चे भी जुड़े थे।

उर्दू समाचार पत्र राष्ट्रीय सहारा के संयुक्त संपादक अजीज बर्नी भी खिलौना के पाठक रहे हैं। वे तनाव से राहत पाने के लिए यह पत्रिका पढ़ते थे। खिलौना के बारे में उनका कहना है, "यदि आप दुनिया की परवाह नहीं करते तो आप आसानी से अपने बचपन के दिनों में लौट सकते हैं।"

अपने दौर के सबसे लोकप्रिय मासिक खिलौना शुरुआत में मात्र 50 पैसे में बिकता थी। 1960 के दशक में इसकी कीमत 62 पैसे हो गई। इसके बाद 1980 के दशक में इसकी कीमत 75 पैसे हुई।

वर्ष 1987 में बंद होने से पहले फरवरी में प्रकाशित इस पत्रिका के 168 पृष्ठों वाले वार्षिक अंक की कीमत 2.50 रखी गई थी।

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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