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नेपाल में चुनाव के बाद भारत के लिए चुनौतियां

By Staff
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नई दिल्ली, 21 अप्रैल (आईएएनएस)। नेपाल में 10 अप्रैल को संपन्न हुए संविधान सभा चुनावों के परिणामों ने नेपाल के साथ ही भारत के सामने भी कई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं।

नई दिल्ली, 21 अप्रैल (आईएएनएस)। नेपाल में 10 अप्रैल को संपन्न हुए संविधान सभा चुनावों के परिणामों ने नेपाल के साथ ही भारत के सामने भी कई चुनौतियां खड़ी कर दी हैं।

नेपाल की संविधान सभा के लिए हुए इन चुनावों में निर्वाचित असेंबली के सदस्य अगले दो वर्षो में देश में एक नए संविधान का निर्माण करेंगे। भविष्य में नेपाल इस नए संविधान के प्रावधानों के अनुसार ही संचालित होगा। लेकिन यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि नेपाल के नए संविधान में किस तरह की शासन प्रणाली का प्रावधान किया जाता है।

माओवादी इन चुनावों में सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में उभरे हैं। उन्होंने अपने राजनैतिक प्रतिद्वंदियों नेपाली कांग्रेस और नेपाल की एकीकृत कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्‍सवादी लेनिनवादी (यूएमएल)की तुलना में काफी अधिक सीटें जीती हैं। अगर यही रूझान कायम रहा तो माओवादी नेपाली असेंबली (संसद)की 601 सीटों में से 40 फीसदी पर विजय हासिल कर सकते हैं। लेकिन माओवादी अकेले दो तिहाई बहुमत नहीं जुटा सकते हैं जो कोई भी महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए आवश्यक है। उनको सरकार बनाने के लिए भी अन्य दलों का सहारा लेना ही पड़ेगा।

चुनावों से पहले माओवादियों और अन्य राजनैतिक दलों में हुए युद्ध विराम समझौते में यह सहमति हुई थी कि सभी महत्वपूर्ण निर्णय असेंबली में दो तिहाई बहुमत से लिए जाएंगे।

माओवादियों और नेपाल के अधिकांश राजनैतिक दलों ने नेपाल को संवैधानिक राजशाही से गणतंत्र में बदलने के समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इसी शर्त पर माओवादी गिरिजा प्रसाद कोइराला के नेतृत्व वाली अंतरिम सरकार में शामिल हुए थे।

चुनावों के बाद अब यह साफ हो गया है कि राजा के रूप में ज्ञानेंद्र का भविष्य समाप्त हो गया है। लोगों के दिमाग में इस बात को लेकर बहुत कम संदेह है कि आने वाले दिनों में नेपाल की राजनीति में राजा की कोई भूमिका होगी। राजा बिना किसी विशेषाधिकार और शक्ति के आम नागरिक की तरह नेपाल में रह सकते हैं,या किसी अन्य देश में जा सकते हैं।

माओवादियों ने राजा को महल छोड़ने के लिए एक महीने का समय दिया है। उनक ो गद्दी से हटाने की निश्चित तिथि की घोषणा सभी चुनाव परिणामों के आने के बाद की जाएगी। नई असेंबली का सबसे पहला कार्य राजा को हटाने के बारे में निर्णय लेना है। एक बार इसकी घोषणा हो जाने के बाद नेपाल औपचारिक रूप से गणतंत्र हो जाएगा।

लेकिन इसके बाद नेपाल के लिए नए प्रकार की समस्याएं खड़ी हो सकती हैं। अंतरिम सरकार अगले दो वर्षो तक नए संविधान का निर्माण और अन्य मामलों को देखेगी। नेपाल में नए चुनाव अब केवल संविधान निर्माण के बाद ही हो पाएंगे।

सभी दल यदि चाहें तो संविधान सभा का कार्यकाल दो वर्ष से आगे भी बढ़ा सकते हैं।

सबसे पहली समस्या तो अंतरिम सरकार के गठन में ही सामने आएगी। माओवादियों की अन्य दलों पर सरकार बनाने के लिए निर्भरता सरकार में मतभेदों और अंतर्विरोधों को बढ़ा सकती है। सरकार में महत्वपूर्ण पदों के वितरण में काफी परिपक्व ता और अनुभव की जरूरत होगी। जब माओवादी निश्चय ही सभी महत्वपूर्ण पद खुद लेना चाहेंगे तो वह यह नहीं सोच सकते कि दूसरी पार्टियां टुकड़ों से संतुष्ट हो जाएंगी। जब सभी साझेदारों में मंत्रिपदों का संतुलित बंटवारा हो जाएगा और सरकार स्थिर हो जाएगी तभी माओवादी शुरूआती बाधा पार करने में सफल माने जाएंगे।

पिछली अंतरिम सरकार में माओवादियों ने अपनी कई मांगे पूरी करवाई थीं। प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला से वह कई रियायतें पाने में सफल रहे थे। लेकिन अब सरकार चलाने का जिम्मा संभालने के बाद माओवादियों को दूसरे दलों की उम्मीदों के प्रति भी सकारात्मक रूख रखना होगा।

गौरतलब है कि माओवादियों ने प्रधानमंत्री पद के लिए बाबूराम भट्टराई का नाम प्रस्तावित करने का संकेत दिया है। प्रचंड खुद नेपाल का राष्ट्रपति बनने की अपनी इच्छा जाहिर कर चुके हैं। यह सब इस बात पर निर्भर करेगा कि नया संविधान किस तरह बनाया जाता है और उसमें राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री पद के लिए क्या भूमिका और शक्तियां निर्धारित की जाती हैं।

इसमें संदेह नहीं है कि नेपाल के चुनावों में जनसमर्थन माओवादियों के पक्ष में गया है। लेकिन यदि अपनी विजय से माओवादी अहंकारी हो जाएंगे तो नेपाल के विभिन्न समुदायों में से उनके खिलाफ विरोध के स्वर उठने लगेंगे। कई माओवादी नेता नेपाल के महत्वपूर्ण जातीय समूह मधेशियों के खिलाफ अपने राजनैतिक मतभेदों का इजहार कर चुके हैं।

यह सही है कि मधेशी न केवल भारतीय मूल के लोग हैं बल्कि वह सीमा पार के अपने रिश्तेदारों के संपर्क में बराबर बने रहते हैं। लेकिन वह तराई के इलाकों में काफी प्रभावी हैं जो नेपाल की जीवन रेखा माना जाता है। माओवादियों को मधेशी लोगों के असंतोष को कम करके नेपाली समाज में उनकी आशाओं के लिए जगह बनानी होगी।

नेपाल में नए प्रबंध केवल तभी सुचारू ढंग से काम कर सकते हैं जब बड़ी राजनैतिक पार्टियां विशेषकर नेपाली कांग्रेस और यूएमएल माओवादियों के साथ सहयोग करें। इस बात को लेकर थोड़ा संदेह है कि नेपाली सेना और राजतंत्र समर्थक नए शासन को अस्थिर करने की संभावना के लिए अवसर तलाश रहे हैं। वह केवल तभी सफल हो सकते हैं जब नेपाल के बड़े राजनैतिक दल खुलकर उनका समर्थन करें।

दूसरे मायनों में यदि दोनों बड़े राजनैतिक दलों ने गंभीरतापूर्वक नेपाल के नए भविष्य के लिए माओवादियों के साथ सहयोग किया तो अस्थिरता फैलाने की कोशिश करने वालों को निराश किया जा सकता है।

भारत की सरकार नेपाल के चुनावों से चिंतित है क्योंकि परिणामों से दूसरे लोगों की तरह वह भी अचंभित है। भारत के हित नेपाल में बहुत अधिक हैं। भारत के लिए इन चुनाव परिणामों को स्वीकार करना काफी मुश्किल है। अब भारत को यह स्वीकार करना होगा कि माओवादियों की जीत की संभावना का आकलन करने मेंउससे चूक हुई है।

काफी समय से भारत की नेपाल नीति 'संवैधानिक राजशाही' और 'बहुदलीय लोकतंत्र' के दो स्तम्भों पर आधारित रही है। नेपाल के राजनैतिक परिदृश्य में माओवादियों के उदय ने भारत की नेपाल नीति को अस्तव्यस्त कर दिया है। अब भारत के लिए यह सोचना अक्लमंदी नहीं होगा कि कुछ समय बाद फिर नेपाल पुराने ढर्रे पर लौट आएगा।

भारत को नेपाल के प्रति अपने दृष्टिकोण में मूलभूत बदलाव की आवश्यकता है। उसे स्वीकार करना होगा कि नेपाल एक 'संप्रभु' देश है और जो भारत से स्वतंत्र निर्णय ले सकता है। इसमें कई निर्णय भारत के पक्ष में नहीं भी हो सकते हैं। लेकिन नेपाल के नए नेताओं के साथ नजदीकी सहयोग और विश्वास बढ़ाकर उन्हें आश्वस्त करने की आवश्यकता है कि भारत का हित केवल शांतिपूर्ण, स्थिर, समृद्ध और सबसे महत्वपूर्ण स्वतंत्र नेपाल की स्थापना है। केवल इसी से नेपाल के साथ संबंधों में परिवर्तन आ सकता है।

भारत सरकार का नेपाल की राजनैतिक पार्टियों पर काफी अधिक प्रभाव है। उसे अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके यह सुनिश्चित करना चाहिए कि नेपाली कांग्रेस, यूएमएल और दूसरे जिनमें सेना के वरिष्ठ अधिकारी शामिल हैं नए शासन को स्थापित करने के लिए काम करें। केवल एक सुरक्षित और स्थिर नेपाल ही भारत के हितों के लिए उपयोगी हो सकता है।

(लेखक आईएएनएस में कूटनीतिक मामलों के संपादक हैं)

इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।

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