मिड-डे मील के अनकहे किस्से
भोपाल से बंगलौर लौट रहा था। मना करते-करते भी पत्नी ने चार परांठे बनाकर रख दिए । परांठे बेटे के स्कूल टिफिन में थे। इस टिफिन से कितनी बातें अचानक याद आ गईं। बेटा,उसका स्कूल,उसके स्कूल की बातें। वहां से मैं अपने बचपन में पहुंच गया।
हम कभी स्कूल टिफिन नहीं ले गए। उस समय कम से कम सरकारी स्कूल में टिफिन ले जाने का कोई चलन नहीं था। निजी स्कूलों में जरूर बच्चे टिफिन ले जाते रहे होंगे। निजी स्कूल भी इतने तब कहां थे। भूख लगती थी तो स्कूल के बाहर लगे ठेले पर पांच-दस पैसे की फुलकी यानी पानी पूरी खा लेते थे या फिर सूखे या उबले हुए बेर या मसाले वाले चने या ऐसा ही कुछ और। यह सूची लम्बी हो सकती है। छोटी जगहों पर अभी भी स्कूल के बाहर ऐसे ठेले देखे जा सकते हैं।
किस्से मिड-डे मील के
अब तो सरकार ने स्कूलों में मिड-डे मील बांटना शुरू कर दिया है। इसमें कोई शक नहीं है कि मिड-डे मील का अपना महत्व है। बच्चे उसके बहाने स्कूल आते हैं, और उन्हें तथाकथित पोषक तत्वों वाला खाना मिलता है। आंकड़े बताते हैं कि इससे स्कूलों में बच्चों की उपस्थिति में उल्लेखनीय अंतर आया है। सच तो यह है कि मिड-डे मील के आंकड़े और भी बहुत कुछ कहते हैं।
मिड-डे मील के अपने किस्से हैं। ताजा किस्सा भोपाल का है जहां एक स्कूल में मिड-डे मील में मेंढक महाशय निकल आए। छिपकली, काकरोच भी निकलते ही रहे हैं। चर्चा चली तो एक साहब बताने लगे कि अमुक स्कूल के मीनू में एक दिन बच्चों को पूड़ी दी जाती है। जिसे खाना बनाने के लिए रखा है,उसे पूड़ी बनानी नहीं आती। अब यह काम मास्टर जी को खुद करना पड़ता है।
मास्टर जी को पूड़ी बनाने में जितना आनंद आता है उतना पढ़ाने में नहीं आता। सो मास्टर जी पूड़ी वाले दिन का इंतजार करते हैं। और शायद बच्चे भी। मास्टर जी का बस चले तो वे रोज पूडी ही बनाएं।
मैंने मिड-डे मील पर एक दूसरे पहलू से विचार किया। एक तो मसला यही है कि स्कूल के मास्टर या मास्टरनी पर आपने एक काम और लाद दिया है। वह पहले से काम के बोझ से दबे हुए हैं। इसमें बच्चों को पढ़ाना तो अतिरिक्त काम है। कुछ स्कूलों में वहां के शिक्षकों ने इसे ही अपना मूल काम मान लिया है।
दूसरा पहलू यह है कि सब बच्चों को एक-सा खाना दिया जाता है। उनकी अपनी संस्कृति की कोई झलक उसमें नहीं मिलती। मेरी सब्जी चख कर देख, या मेरी चटनी चाट कर देख । मेरी मां ने आलू का परांठा बनाया है। ये जुमले शायद अब स्कूलों में सुनाई नहीं देते।
टिफिन की सामाजिकता
बच्चों को अपने आसपास की विविध संस्कृति का परिचय सहज तरीके से कराने का एक आसान तरीका हमने लगभग खो दिया है। बच्चे मिलबांटकर खाते थे और एक नई सामाजिकता सीखते थे। कोई बच्चा अगर किसी कारण से टिफिन नहीं लाया है तो उसके साथी उसे साथ बिठाकर खिलाते थे।
बच्चे अपने घर जाकर एक-दूसरे के घर की बनी चीजों की बातें करते थे। अपने घर में वैसी चीजें बनाने की मांग करते थे। इस बहाने बच्चे अपने दोस्तों से उस व्यंजन को बनाने की विधि जानने की कोशिश करते थे। इस बहाने एक नया व्यंजन घर में पहुंचता था। इस बहाने पता नहीं और क्या-क्या होता था, जो शायद हम नहीं जानते।
लेकिन अब जो होता है वह लगभग हर जगह एक-सा होता होगा। बच्चे रोज शायद कहानियां लेकर पहुंचते होंगे कि स्कूल में आज खाने में इल्ली निकली,काकरोच निकला,कंकड़ निकला। या कि रोटी कच्ची थी या जल गई थी। दाल में नमक ज्यादा था या सब्जी में आलू सड़ा था। सब बच्चों के पास एक ही तरह की कहानियां होती होंगी। हां उनके पालकों के पास मिड-डे मील से जुड़े अलग स्तर के अलग किस्से होंगे। तो मुझे नहीं पता कि हमें इस परिवर्तन को किस रूप में देखना चाहिए। आप क्या सोचते हैं।
[लेखक शिक्षा के समकालीन मुद्दों से सरोकार रखते हैं। वे शिक्षा में काम कर रही संस्थाओं से जुड़े हैं।]