पंजाब विधानसभा चुनाव: सुखबीर बादल की प्रधानगी में अकाली दल को तय करना होगा 15 से 58 सीटों तक का सफर
चंडीगढ़। पंजाब में शिरोमणि अकाली दल 22वें प्रधान सुखबीर बादल के नेतृत्व में मैदान में है। इस बार फर्क इतना है कि सुखबीर बादल को भाजपा नहीं बल्कि बसपा का सहारा है, जिसके जरिए वह अनुसूचित जाति वोट व सीटों को अपनी तरफ खींचने की तैयारी कर रहे हैं। 2017 में महज 15 सीटों पर सिमटने वाले शिरोमणि अकाली दल बादल को बसपा के सहारे 58 का आंकड़ा क्रास करने की उम्मीद है।
2017 के पंजाब विधानसभा चुनाव में मिली करारी हार के बाद बादल के साथी रहे जत्थेदार रंजीत सिंह ब्रह्मपुरा ने सुखबीर बादल की कार्यप्रणाली को लेकर विद्रोह कर दिया था। ब्रह्मपुरा ने पूर्व मंत्री सेवा सिंह सेखवां, पूर्व सांसद डॉ. रतन सिंह अजनाला व पूर्व मंत्री अमरपाल सिंह बोनी सहित कुछ बादल विरोधी अकालियों को साथ लेकर शिअद (टकसाली) का गठन किया। ब्रह्मपुरा ने 2019 के लोकसभा चुनाव में बादल विरोधी दलों के साथ समझौता कर अपने उम्मीदवार खड़े किए लेकिन कोई भी नहीं जीत सका।
मैनेजमेंट
के
माहिर
हैं
सुखबीर
बादल
पंजाब
में
एक
ही
पार्टी
है,
जो
दो
बार
लगातार
चुनाव
जीती
है
और
वो
है
अकाली
दल
बादल।
2007
व
2012
में
लगातार
दो
बार
सरकार
बनाने
में
सुखबीर
बादल
की
मैनेजमेंट
ही
काम
आई।
लेकिन
2017
में
उनकी
इतनी
बुरी
हार
होगी,
इसका
अंदाजा
किसी
को
नहीं
थी।
117
सीटों
में
से
पार्टी
केवल
15
सीटों
पर
सिमट
कर
रह
गई।
इतनी
पुरानी
पार्टी
को
मुख्य
विपक्ष
का
तमगा
भी
नहीं
मिला।
सुखबीर
बादल
मैनेजमेंट
के
माहिर
रहे
हैं
और
2012
में
उन्होंने
इस
ढंग
से
मैनेजमेंट
की
कि
पंजाब
में
बसपा
को
कई
सीटों
पर
काफी
वोट
मिला
और
कांग्रेस
महज
1.5
फीसदी
वोट
के
अंतर
से
सरकार
बनाने
से
चूक
गई।
1996
का
इतिहास
दोहराने
की
उम्मीद
बसपा
के
साथ
गठबंधन
के
माध्यम
से
अकाली
दल
की
नजर
पंजाब
के
करीब
33
फीसदी
अनुसूचित
जाति
वोट
बैंक
पर
है
और
बहुजन
समाज
पार्टी
को
ज्यादातर
वो
सीटें
दी
जा
रही
हैं
जहां
पर
एससी
मतदाता
हार
और
जीत
का
फैसला
करते
हैं।
इससे
पहले
अकाली
दल
और
बीएसपी
1996
लोकसभा
चुनाव
में
भी
गठबंधन
कर
चुके
हैं
और
अब
25
सालों
बाद
फिर
से
साथ
आ
गए
हैं।
1996
लोकसभा
चुनाव
में
इस
गठबंधन
ने
पंजाब
की
13
में
से
11
लोकसभा
सीटों
पर
जीत
हासिल
की
थी।
बीएसपी
चुनाव
में
सभी
तीन
सीटों
और
अकाली
दल
10
में
से
8
सीटों
पर
जीती
थी।
2017 के विधानसभा चुनावों में अकाली और बसपा दोनों का सफाया हो गया था। अकाली का वोट शेयर 2012 में 36.6 प्रतिशत से गिरकर 25.2 प्रतिशत रह गया था, जबकि बीएसपी का वोट शेयर 4.3 प्रतिशत से गिरकर सिर्फ 1.5 प्रतिशत हो गया था। इन चुनाव में सबसे ज्यादा फायदा कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) को हुआ था।
हालांकि, 2019 के लोकसभा चुनाव में अकाली और बीएसपी की हालत थोड़ा बेहतर हुई। जिसमें अकाली दल को 27.8 फीसदी और बीएसपी को 3.5 फीसदी हासिल हुआ था। तब भाजपा व अकाली दल में गठबंधन था। अकाली दल को फिरोजपुर और बठिंडा सीट पर जीत हासिल हुई थी जबकि बीएसपी ने तीन सीटें, जालंधर में 20 प्रतिशत, आनंदपुर साहिब में 13.5 प्रतिशत और होशियारपुर में 13 प्रतिशत सीटों पर प्रभावशाली प्रदर्शन किया था। अकाली दल पंजाब डेमोक्रेटिक अलायंस का भी हिस्सा थी, जिसमें पंजाबी एकता पार्टी, लोक इंसाफ पार्टी और वामपंथी दल शामिल थे। खास तौर से इस गठबंधन का प्रभाव दोआबा क्षेत्र में काफी रहा, जिसमें अनुसूचित जाति वर्ग की आबादी ज्यादा है।
सौ
साल
पहले
बना
था
अकाली
दल
100
साल
पहले
गठित
हुए
अकाली
दल
के
इतिहास
को
पलट
कर
देखा
जाए
तो
संघर्ष
इस
पार्टी
का
अभिन्न
अंग
रहा
है।
गुरुद्वारा
सुधार
लहर
से
दल
का
गठन
हुआ
जो
ब्रिटिश
शासन
के
अधीन
थे।
यही
वजह
थी
कि
अकालियों
को
गुरुद्वारों
की
स्वतंत्रता
में
देश
की
स्वतंत्रता
की
भी
झलक
दिखती
थी।
ननकाना
साहिब
को
आजाद
करवाने
के
लिए
बड़ी
लड़ाई
लड़ी
गई,
जिसमें
130
अकाली
शहीद
हो
गए।
गुरुद्वारों
पर
अपना
प्रबंध
बनाने
के
लिए
1925
में
गुरुद्वारा
एक्ट
पास
करवाया
गया।
चाहे
आजादी
की
लड़ाई
हो
या
पंजाबी
सूबा
बनाने
की।
पंजाब
के
पानी
की
लड़ाई
हो
या
दिल्ली
सिख
गुरुद्वारा
प्रबंधक
कमेटी
की
स्थापना
की
शिरोमणि
अकाली
दल
के
पांव
कभी
डगमगाए
नहीं।
पार्टी के 21वें प्रधान पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल का सिख राजनीति पर दबदबा है। बादल ने 25 वर्ष तक प्रदेश में राज किया। उनके बेटे सुखबीर बादल व बहू हरसिमरत कौर बादल ने केंद्र में भी मंत्री पद की जिम्मेदारी निभाई। बादल की कार्यप्रणाली के विरोध में अकाली दल कई बार टूटा। हर बार बादल का अकाली दल हावी रहा और किसी अन्य अकाली दल को पंजाब की आवाम ने तरजीह नहीं दी।
2007 के विधानसभा चुनाव से पहले पंजाब विधानसभा के पूर्व स्पीकर रवि इंदर सिंह ने भी शिअद (1920) का गठन किया था। विधानसभा चुनाव में रवि इंदर सिंह का दल न केवल पिट गया, बल्कि उनका समर्थन कर रहे उग्र विचारधारा के समर्थक भी चुनाव में बुरी तरह विफल हो गए। 2014 में दमदमी टकसाल से जुड़े भाई मोहकम सिंह ने पंजाबी व सिख उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए 'यूनाइटेड अकाली दल' के नाम से एक नए अकाली दल का गठन किया था। लेकिन संगत ने इस दल को भी नकार दिया।
24
साल
पुराना
गठबंधन
टूटा,
भाजपा
का
ऑफर
हम
बड़े
भाई
की
भूमिका
में...
1992
में
पंजाब
में
हुआ
विधानसभा
चुनाव
भाजपा
व
अकाली
दल
ने
अलग-अलग
लड़ा
था
लेकिन
सरकार
बनाने
के
लिए
दोनों
ने
हाथ
मिला
लिया।
इसके
बाद
भाजपा
और
अकाली
दल
1996
में
मोगा
डेक्लरेशन
समझौते
पर
हस्ताक्षर
कर
एक
साथ
हो
गए
और
1997
का
चुनाव
एक
साथ
लड़ा।
दोनों
पार्टियों
के
गठबंधन
ने
2007
से
2017
तक
पंजाब
में
सरकार
भी
बनाई।
इन
27
वर्षों
में
कई
बार
उतार-चढ़ाव
आए
लेकिन
गठबंधन
बना
रहा।
2020 में कृषि बिलों को लेकर दोनों का नाता टूट गया। अब भाजपा पुरानी स्थिति में नहीं है। भाजपा पंजाब में 23 सीटों पर चुनाव लड़ती आई है। अब भाजपा के पंजाब प्रदेश प्रभारी दुष्यंत गौतम ने साफ कहा है कि हम इस बार बड़े भाई की भूमिका में होंगे, यानी भाजपा खुद बड़ी पार्टी बनकर अकाली दल को 23 सीट देने का समझौता करने के लिए तैयार है। भाजपा केंद्र में सत्तासीन है और पार्टी ने पंजाब में अपनी ताकत झोंकने की तैयारी शुरू कर दी है।
पंजाब चुनाव से पहले अकाली दल को झटका, मनजिंदर सिंह सिरसा ने ज्वाइन की बीजेपी