Indian Secularism: भारतीय संस्कृति के अपमान की जमीन पर क्यों खड़ा है भारतीय सेक्युलरिज्म का भवन?
भारत में सेक्युलरिज्म को इस तरह से परिभाषित कर दिया गया है कि अगर आप भारतीय धर्म, समाज और संस्कृति का अपमान करते हैं तो आप प्रगतिशील हैं। मकबूल फिदा हुसैन से लेकर लीना मणिमेकलाई तक बार बार यही बात दोहराई गयी है।
Indian Secularism: बीते शुक्रवार को सुप्रीम कोर्ट ने फिल्म निर्माता लीना मणिमेकलाई को राहत प्रदान कर दी। अपनी डॉक्यूमेन्ट्री 'काली' में प्रतीकात्मक रूप से देवी काली का अपमानजनक पोस्टर जारी करने वाली लीना के खिलाफ उत्तर भारत के कई राज्यों में एफआईआर दर्ज करवायी गयी थी। इन एफआईआर के खिलाफ लीना सुप्रीम कोर्ट गयी थीं जहां चीफ जस्टिस चंद्रचूड ने स्वयं इस मामले को देखा। लीना मामले में सुनवाई करते हुए उनके खिलाफ होने वाली पुलिस कार्रवाई पर रोक तो लगाया ही, लुक आउट नोटिस को भी निरस्त कर दिया।
यहां तक तो कानूनी और तकनीकी पहलू है। कोई पीड़ित व्यक्ति सुप्रीम कोर्ट पहुंचता है तो कोर्ट अपने विवेक के अनुसार जैसा चाहे वैसा फैसला दे सकता है। लेकिन ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणियां चर्चा का विषय बन जाती है। जैसे नूपूर शर्मा के मामले में सुप्रीम कोर्ट के जजों ने कहा था कि वो "देश में आग लगाना चाहती हैं।" नुपुर शर्मा ने इस्लामिक पैगंबर के जीवन से जुड़ी एक बात सार्वजनिक रूप से कह दी थी जिसे मुस्लिम समुदाय ने अपने नबी के अपमान के तौर पर प्रचारित कर दिया था।
नुपुर शर्मा के मामले में संभवत: सुप्रीम कोर्ट के जजों ने अपनी टिप्पणी से ये संदेश देने की कोशिश की थी कि अभिव्यक्ति की आजादी का अर्थ यह नहीं कि आप दूसरे का अपमान करना शुरु कर दें। लेकिन लीना मणिमेकलाई के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर ऐसी टिप्पणी की है जो किसी भी धर्मप्राण व्यक्ति के लिए अस्वीकार्य है। सुप्रीम कोर्ट ने लीना को राहत देते हुए काली पोस्टर मामले में कहा कि "वो काली को सर्वसमावेशी रूप में दिखाना चाहती हैं।"
अर्थात अगर कोई काली को सिगरेट पीते हुए, एलजीबीटी का पोस्टर हाथ में लिए, रोमांटिक अंदाज में दिखाता है तो वह काली के रूप का विस्तार करता है लेकिन कोई किसी के पैगंबर के जीवन की सच्चाई बता देता है तो इससे वह 'आग लगाने वाला' बन जाता है। लीना के मामले में मौखिक टिप्पणी करके सीजेआई डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा की पीठ ने यही संदेश दिया है।
देश की सर्वोच्च न्यायालय में न्याय होता है। इस बात में कोई संदेह जैसी बात नहीं है लेकिन इस न्याय को समाज अपनी तरह से व्याख्यायित करता है। नुपुर शर्मा के मामले में यही सुप्रीम कोर्ट कोई और रूख क्यों अपना लेता है जबकि लीना के मामले में देवी के अपमान को अपराध मानने की बजाय सर्वसमावेशी रूप में दिखाने की कोशिश बता देता है।
भारत में सेक्युलर कहा जाने वाला वर्ग ऐसे पक्षपात से बहुत खुश होता है और इसे ही 'न्याय' कहता है। इसलिए जो मीडिया में बहसें हैं उसमें मकबूल फिदा हुसैन से लेकर लीना मणिमेकलाई के कर्म 'अभिव्यक्ति की आजादी' के दायरे में चले जाते हैं जबकि धर्म समाज की बात करने वाला 'नफरत फैलाने वाला' कह दिया जाता है। अपनी बात कहने की जो आजादी किसी मकबूल फिदा हुसैन और लीना को चाहिए, वह आजादी कमलेश तिवारी और नुपूर शर्मा के पास क्यों नहीं है?
सिर्फ अपना मत व्यक्त करने के लिए कमलेश तिवारी का दिनदहाड़े गला काट दिया गया लेकिन सेक्युलर वर्ग इस गलाकाट प्रोग्राम पर मौन रहा। सिर्फ एक फेसबुक पोस्ट पर कन्हैयालाल को गला काटकर मारा गया तो इसे लॉ एण्ड आर्डर का विषय साबित किया जाने लगा। मीडिया के जरिए देश में माहौल बनाने वाले सेक्युलर समुदाय ने खुलकर इसका विरोध तक नहीं किया।
एक पत्रकार आलोक तोमर ने एक बार अपनी पत्रिका में मुसलमानों के पैगंबर का कोई ऐतिहासिक चित्र छाप दिया जो गूगल पर मौजूद था तो उन्हें जेल जाना पड़ा। कोई अभिव्यक्ति की आजादी वाला उनके साथ खड़ा नहीं हुआ। किसी ने उनके पक्ष में संपादकीय नहीं लिखे। कमलेश तिवारी को मुसलमानों के पैगंबर पर टिप्पणी के लिए जान देनी पड़ी। देश में कहीं यह बात बहस में नहीं आई कि कहे का जवाब कहा होना चाहिए। लिखे का जवाब, लिखा होना चाहिए।
हाल में कर्नल पुरोहित पर वितस्ता प्रकाशन से आई नयी किताब ''लेफ्टिनेंट कर्नल पुराहित, द मैन बिट्रेड' के विरोध में पूरा वामपंथी गिरोह पुणे (महाराष्ट्र) की सड़कों पर उतर आया। इसके प्रचार प्रसार को रूकवाने के लिए वे न्यायालय की शरण मेंं पहुंच गए। उन्हें इतनी सी बात समझ में नहीं आई कि कर्नल पुरोहित पर लिखी किताब के जवाब में वे एक किताब लिख दें। जबकि एसएम मुशरिफ की प्रोपेगेंडा वाली एक किताब 'हू किल्ड करकरे' का प्रचार वही समूह एक समय खूब कर चुका है जो आज 'लेफ्टिनेंट कर्नल पुराहित, द मैन बिट्रेड' का विरोध करने के लिए मैदान में उतरा है।
जब ऐसे सवालों का जवाब हम तलाशने जाते हैं तो इसके पीछे आजाद भारत के कथित सेक्युलर इंडिया' का इतिहास नजर आता है, जहां हिन्दू परंपराओं, देवी देवताओं का अपमान प्रगतिशील विचार है। ऐसे कवि, लेखक सेक्युलर इको सिस्टम से सम्मानित होते रहे हैं। जेएनयू की छात्रा रहीं शुभमश्री की तुकबंदी 'मिस वीणावादिनी, तुम्हारी जय हो बेबी' को वामपंथी समूह ने खूब सराहा और उन्हें भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित भी कराया। बिहार के तिलकामांझी से लेकर गुजरात ओएनजीसी तक में अपनी साहित्यिक प्रतिभा के दम पर उन्होंने नौकरी पाई और जिस कविता ने उन्हें हिन्दू विरोधी सेक्युलर इको सिस्टम में पहचान दी, उसमें वो विद्या की देवी सरस्वती का खुलेआम मजाक उड़ाती है। उन्हें चपटी नाक, मोटे अधर, सपाट उरोज और श्यामवर्ण योनि वाली बताती हैं और प्रगतिशील हो जाती हैं।
क्या ऐसी कविता किसी और मजहब के किसी चरित्र पर लिखी जा सकती है और किसी ने लिख दी तो उसको अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में रखा जा सकता है? लेकिन शुभमश्री की इस बेतुकी तुकबंदी को अभिव्यक्ति की आजादी बताकर सम्मानित भी कर दिया गया।
सेक्युलर इको सिस्टम के गढ़ जवाहरलाल नेहरू विवि में तिलक लगाना साम्प्रदायिक प्रतीकों की स्थापना थी, जिसे मिटाने के लिए जेएनयू का एसएफआई और आइसा जैसा लेफ्ट संगठन कृतसंकल्पित था। वहां पूजा करने वालों और तिलक लगाने वालों का सार्वजनिक बहिष्कार होता था। वहीं नमाज पढ़ने वालों के लिए पुस्तकालय के दरवाजे खोल दिए जाते थे।
इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि भारत में सेक्युलरिज्म की पूरी इमारत हिन्दू द्वेष की जमीन पर खड़ी है। मकबूल फिदा हुसैन से लेकर लीना मणिमेकलाई तक बहुत योजनाबद्ध तरीके से भारत के सांस्कृतिक प्रतीकों पर हमला करते हैं और संरक्षण पाते हैं। यह भारत का अपमान नहीं तो और क्या है? और कब तक इस अपमान को सहा जा सकता है?
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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं। लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)