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द्रौपदी मुर्मु: जन्मदिन पर मिला जीवन का सबसे बड़ा उपहार

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यह एक अजब संयोग ही है कि अपने जन्मदिन पर द्रौपदी मुर्मू को वह समाचार मिला जिससे वो भारत के सर्वोच्च प्रशासनिक पद पर नियुक्त होने के लिए सत्ताधारी दल की संयुक्त उम्मीदवार घोषित की गयीं। 20 जून द्रौपदी मुर्मू का जन्मदिन होता है और 21 जून को ही भाजपा की अगुवाई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन ने उन्हें अपना राष्ट्रपति उम्मीदवार घोषित कर दिया।

presidential election Draupadi Murmu get greatest gift of life on her birthday

लेकिन द्रोपदी मुर्मू के साथ सह पहला संयोग नहीं है। और भी कई संयोग जुड़े हैं। जैसे इस बार राष्ट्रपति चुनाव की राजनीति के केंद्र में आदिवासी राज्य झारखंड आ गया है। विपक्ष के खेमे में जा सकने वाले नवीन पटनायक का रास्ता द्रौपदी के उम्मीदवार घोषित होते ही बंद हो गया। पटनायक की पार्टी बीजू जनता दल अपनी पहली सरकार की प्रतिभाशाली मंत्री रहीं द्रौपदी के अलावा किसी और को वोट दे ही नहीं सकती। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा सरकार के लिए कुंआ और खाई की नौबत पैदा हो गई है। विपक्ष के साथ द्रौपदी मुर्मू के खिलाफ जाना आत्मघाती हो सकता है। लिहाजा पहली बार एक आदिवासी, वह भी महिला, भारत की राष्ट्रपति बनने जा रही हैं।

ओडिशा की द्रौपदी मुर्मू संथाल जनजाति से हैं। मयूरभंज के उपरबेड़ा गांव में उनका जन्म 20 जून 1958 को हुआ। वहीं पर उनकी शिक्षा दीक्षा हुई। आदिवासी परिवार में पैदा होने के बावजूद उन्होंने रामादेवी महिला कालेज भुवनेश्वर से ग्रेजुएशन किया। इसके बाद उन्होंने 1979 से 1983 तक बिजली तथा सिंचाई विभाग में नौकरी भी किया। राजनीति में प्रवेश करने से पहले 1994 से 1997 तक अरविन्दो इंटीग्रल कॉलेज रैरंगपुर में अध्यापन भी किया। इसके बाद बतौर पार्षद उनके राजनीतिक जीवन की शुरुआत होती है, जो आज राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवारी तक पहुंचती है।

साल 2000 से वो रैरंगपुर से विधायक रही हैं, और नवीन पटनायक सरकार में भाजपा कोटे से मंत्री भी रही हैं। सरकार के अलावा वो भाजपा के राज्य स्तर पर तथा केन्द्रीय स्तर जनजाति मोर्चे की पदाधिकारी भी रही हैं। विधानसभा में उनके कामकाज को देखते हुए उडीसा विधानसभा द्वारा 2007 में सर्वश्रेष्ठ विधायक का नीलकंठ पुरस्कार भी दिया गया।

भाजपा की खास रणनीति के तहत 2015 में उन्हें झारखण्ड का राज्यपाल बनाकर सबको चौंकाया था। सार्वजनिक जीवन में मंत्री और राज्यपाल होने के बाद भी उनकी छवि साफ सुथरी है। महज़ दस लाख की घोषित संपदा है। निजी जीवन में दो वयस्क पुत्रों और पति के निधन का कठोर आघात झेला है। मृदुभाषी और कई भाषाओं की जानकार हैं। मातृभाषा संथाली के साथ हिंदी, ओड़िया,बंगाली बेबाकी से बोलती हैं। बीजेपी की कर्मठ कार्यकर्ता, विधायक, मंत्री और नेता रही हैं।

आदिवासियों के बीच ईसाई मिशनरियों का पुराना काम है। द्रौपदी मुर्मू गोत्र परंपरा से बंधे संथालियों के बीच की कर्मकांडी हिंदू हैं। इसके बड़े मायने हैं। गैर आदिवासियों यानी दिक्कुओं में संथाल जिद पालने के लिए विख्यात है। बांग तो बांग, हे तो हे। 'बांग' का हिंदी मतलब नहीं और 'हे' का मतलब हां। किसी संथाली के मुंह से 'हे' निकल गया, तो आंधी आए या तूफान, जिद्दी संथाल अपने संकल्प को हर हाल में पूरा करके मानेगा। अगर बांग निकल गया, तो आप लाख मिन्नतें कर लीजिए। वह बड़ा से बड़ा नुकसान उठा लेगा पर न जो बोल दिया, तो नहीं ही करेगा। इसी कर्मठता ने संथाल नायक चांद, भैरो, सिद्धो, कान्हो को इतिहास में खास जगह दे रखी है।

1819 में संथाल विद्रोह से घबरा कर अंग्रेज प्रशासकों ने भागलपुर प्रमंडल से अलग 'दामिन ए कोह' नाम से संथाल और पहाड़िया जनजाति के लिए अलग प्रांत बनाने की सहमति बना ली। दुमका, गोड्डा, राजमहल अनुमंडलों को मिलाकर 1932-33 में ब्रिटिश इंडिया की सरकार ने प्रशासनिक तौर पर ' दामिन ए कोह' क्षेत्र की स्थापना की, जो संथाल परगना जिले के लगभग 1338 वर्ग मील में फैला हुआ था।

'दामिन ए कोह' का पर्वतीय भाग आज विलुप्त होने के कगार पर फंसी पहाड़िया जनजाति के लिए आवंटित किया गया। जबकि पर्वतीय भू-भाग के आगोश में फैला लगभग पांच सौ वर्ग मील का मैदानी क्षेत्र संथाल जनजाति के बसाव के लिए निर्धारित किया गया। यहां आज के बांग्लादेश, असम, त्रिपुरा से लेकर ओडिशा तक में फैले संथाल जनजाति आकर बस गए। अभिलेखागार के दस्तावेज बताते हैं कि 1851 ई. तक 'दामिन-ए-कोह' प्रदेश के 1473 गाँवों में लगभग 82,795 संथाल रहने लगे थे।

यह सब तथ्य जानना इसलिए भी जरूरी है ताकि यह समझा जा सके कि अगर भाजपा ने संथाल आदिवासी द्रौपदी मूर्मू को देश के सर्वोच्च पद के लिए अपना उम्मीदवार बनाया है तो उसके क्या मायने हो सकते हैं। राष्ट्रपति के लिए एनडीए उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू तकनीकी तौर पर ओडिशा की मूलवासी हैं, पर संथाली जनजाति से हैं जिसका डीह झारखंड के संथाल परगना में है। इनमें संथाल परगना का बेहद क्रेज है। इसी क्रेज ने छोटानागपुर के हजारीबाग ज़िला के शिबू सोरेन को दूरस्थ दुमका खींच लिया था। उन्होंने अस्सी के दशक में संथाल परगना के रामगढ़ प्रखंड से महाजनों के खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंका था और संथालों के बीच दिशाम गुरु बनकर राज करने लगे।

झारखंड में संथाल जनजाति का क्या महत्व है इसे ऐसे समझा जा सकता है कि राज्य गठन के 22 साल तक झारखंड में संथाल नेताओं की ही चली है। पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी संथाल होने की वजह से ही करिया मुंडा की जगह बीजेपी के पसंद बने थे। उनके कार्यकाल के बाद झारखंड ने संथाल नेता शिबू सोरेन के वंशवाद को ही देखा है। उनके तीनों पुत्र स्व. दुर्गा सोरेन, हेमंत सोरेन व बसंत सोरेन और एक पुत्रवधू सीता मुर्मू विधायक बने। दिशाम गुरु खुद और पत्नी रूपा सोरेन सांसद बनी। पिता और पुत्र हेमंत मुख्यमंत्री रहे। सब पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप हैं।

ऐसे में एक स्वच्छ छवि की संथाल महिला नेता को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाकर भाजपा ने जहां देश विदेश में ये संदेश देने का प्रयास किया है कि भारत का लोकतंत्र अब एक परिपक्व अवस्था में आ चुका है, वही आदिवासी बहुल राज्यों की राजनीति में भी अपनी भावी पैठ को मजबूत कर लिया है।

यह भी पढ़ें: इंडिया गेट से: राष्ट्रपति चुनाव में राजनीति और नैतिकता

(इस लेख में व्यक्त विचार, लेखक के निजी विचार हैं. आलेख में दी गई किसी भी सूचना की तथ्यात्मकता, सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है. इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं।)

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