मदर्स डे स्पेशल: अपने मेहनतकश बेटों के लहू से लथपथ सिसक रही है भारत मां
पुत्रो अहं पृथिव्या: । (अथर्ववेद)
अर्थात भूमि मेरी माता है और मैं उनका पुत्र हूं।
मातृ दिवस पर धरती माता को नमन। माता अपने करोड़ों पुत्रों को धारण करती हैं, उनका लालन-पालन करती हैं और अपनी ममता के आंचल में आश्रय देती हैं। लेकिन आज धरती मइया का मन विचलित है। उनकी ममता का आंचल पुत्रों के लहू से लाल है। माता कैसे नमन स्वीकार करें ? परसों की ही तो बात है। औरंगाबाद में कामराड के पास माता के 16 बेटे अकाल काल के गाल में समा गये। लखनऊ की अदब वाली माटी भी रक्तरंजित हो गयी। माता के असहाय पुत्र और पुत्री अचानक मृत्यु का ग्रास बन गये। कोरोना यमराज बन कर सामने खड़ा है। उससे प्राण रक्षा के लिए ये घर से बाहर क्या निकले काल के क्रूर पंजों ने उन्हें दबोच लिया। यह सब देख कर धरती मां का कलेजा छलनी है। वे व्यथित हैं। उनके दुख के कई कारण हैं। जिन करोड़ों पुत्रों ने उनकी ममता के आंचल में आश्रय लिया है, वे भी तो सुरक्षित नहीं हैं। कोरोना ने ऐसा रौद्र रूप धारण कर लिया है कि उनका जीवन संकट में है। आज मातृ दिवस पर माता का मन करूणा के अथाह सागर में डूबा हुआ है। कोरोना न होता तो दर्द का ये दरिया भी न होता। कोरोना न होता तो मौत का ये मंजर भी न होता। मौत इस तरह रूप बदल कर आएगी, कभी सोचा भी न था।
कोरोना के दुख भरे दिन
महाराष्ट्र का जालना शहर। इस शहर में भारत की पहली रुई धुनाई फैक्ट्री खुली थी। ये 1863 की बात है। 157 साल बाद जालना अब औद्योगिक शहर बन गया है अब यहां रुई धुनाई की कई फैक्ट्री खुल गयीं हैं। इसके अलावा यहां कई स्टील फैक्ट्री और सोयाबीन तेल की फैक्ट्री भी हैं। इन फैक्ट्रियों में कई हजार मजदूर काम करते हैं। जालना मध्यप्रदेश की सीमा से सटा हुआ है इसलिए यहां मध्य प्रदेश के लोग रोजगार के लिए आते रहे हैं। मध्य प्रदेश के 20 मजदूर जालना की एक स्टील फैक्ट्री में काम करते थे। वे फैक्ट्री में लोहा पीटते थे। लॉकडाउन लागू होने के बाद करीब 45 दिनों से ये फैक्ट्री बंद थी। इनकी रोजी-रोटी खत्म हो गयी। पेट काट कर जो थोड़ा पैसा बचाया था वो 45 दिनों में स्वाहा हो गया। जब उन्होंने सुना कि भुसावल से मध्य प्रदेश के कुछ जिलों के लिए ट्रेन खुल रहीं हैं तो इन्होंने घर जाना ही बेहतर समझा। इन्हें जालना से मध्य प्रदेश के शहडोल और उमरिया जाना था। उन्होंने योजना बनायी कि 7 मई की शाम को जालाना से भुसावल के लिए पैदल ही निकल जाना है।
बिछौना धरती को कर के अरे आकाश ओढ़ ले...
ये 20 श्रमिक 7 मई की शाम जालाना से भुसावल के लिए निकले। जालाना से भुसावल की दूरी 157 किलोमीटर है। इतनी दूरी पैदल तय करने में समय लगेगा। कई बार भूख भी सताएगी। इसलिए दिन में ही भरपूर भोजन तैयार कर लिया था। 20 लोगों के लिए 150 रोटियां, अचार और चटनी का टिफिन तैयार कर ये सफर पर निकल पड़े। सड़क से जाने पर टोका-टोकी का डर था, इसलिए रेलवे लाइन के किनारे- किनारे ही पैदल चलने लगे। करीब 45 किलोमीटर चलने के बाद रात हो चुकी थी। सभी पथिक थक गये थे। तब कुछ खा कर आराम करने पर सहमित बनी। जितनी भूख थी उतनी रोटी-चटनी खायी और जो बचा उसे अगले दिन के लिए रख लिया। उस समय वे औरंगाबाद के पास कामराड रेलवे स्टेशन से कुछ दूर थे। वहां आराम करने की कोई जगह तो थी नहीं। रेल पटरी के किनारे झाड़-झंखाड़ उगे हुए थे। तब रेल लाइन को ही तकिया बना कर कुछ देर आराम करने का विचार हुआ। उनके दिमाग में ये बात थी कि अभी तो कोई ट्रेन चल नहीं रही, इसलिए पटरी को सिरहना बनाने में खतरा नहीं है। धरतीपुत्रों ने धरती को बिछौना बना कर आकाश ओढ़ लिया। ठंडी हवा के झोंकों ने थके-मांदे शरीर को नींद के आगोश में पहुंचा दिया। नींद में सोये इन लोगों को क्या मालूम था कि एक मालगाड़ी यमराज बन कर आने वाली है। अहले सुब एक मालगाड़ी आयी और 16 मजदूरों को निर्ममतापूवर्क रौंदते हुए चली गयी। पसीने की कमाई हुई रोटी खून से सन गयी। इससे हृदयविदारक घटना कुछ और नहीं हो सकती।
लखनऊ की लाल हुई भूमि
छत्तीसगढ़ के कृष्णा कमाने-खाने के लिए लखनऊ आये थे। वे लखनऊ के जानकीपुरम इलाके की झोपड़पट्टी में रहते थे। कृष्णा और उनकी पत्नी को शहर में जहां काम मिलता वहां मजदूरी करते और अपने दो बच्चों का पेट पालते। लॉकडाउन लागू हुआ तो इनको काम मिलना बंद हो गया। जैसे-तैसे डेढ़ महीना काट लिया लेकिन उसके बाद पेट भरना मुश्किल हो गया। फिर कृष्णा ने घर लौटने का फैसला कर लिया। 7 मई की रात को कृष्णा ने अपनी पत्नी और दो बच्चों को साइकिल पर बैठाया और निकल पड़े छत्तीसगढ़ के लिए। लेकिन कृष्णा को ये मालूम न था कि जिस साइकिल को वे तारणहार समझ रहे हैं वही उनकी मौत का कारण बनने वाली है। परिवार के साथ एक साइकिल पर सवार कृष्णा जब जानकीपुरम से निकल कर शहीद पथ पर पहुंचे तो एक वाहन ने पीछे से ठोकर मार दी। ठोकर जोरदार थी। कृष्णा, उनकी पत्नी और दोनों बच्चे साइकिल से उछल कर सड़क पर आ गिरे। चारो बुरी तरह घायल हो गये। सड़क पर खून फैल गया। किसी राहगीर ने पुलिस को सूचना दी। पुलिस ने इन्हें अस्पताल पहुंचाया। इलाज के दौरान पति-पत्नी की मौत हो गयी। दोनों बच्चों का अभी भी अस्पताल में इलाज चल रहा है। कृष्णा गरीब परिवार से थे। लॉकडाउन ने उनके भाइयों को और गरीब बना दिया था। घटना की सूचना मिलने पर छोटे भाई राजकुमार लखनऊ तो पहुंच गये लेकिन उनके पास इतना भी पैसा नहीं था कि वे भाई- भाभी का अंतिम संस्कार कर सकें। ऐसे में कुछ मजदूरों ने चंदा कर के 15 हजार रुपये जुटाये तब जा कर कृष्णा और उनकी पत्नी का अंतिम संस्कार हुआ। ऐसे हादसों को देख-सुन कर किसका मन नहीं शोकसंतप्त हो जाएगा। धरती मइया तो धरती मइया हैं।
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