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स्वतंत्र भारत की अर्थव्यवस्था के 75 साल: नेहरु युग से मोदी युग तक

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15 अगस्त 1947 को जब देश आजाद हुआ तब भारत के सामने बहुत बड़ी आर्थिक चुनौती थी। आबादी 36 करोड़ थी, पर दो वक्त की रोटी देना कठिन था। अर्थव्यवस्था मात्र 2.7 लाख करोड़ की थी। उद्योग धंधे नहीं थे। देश में मात्र 22 लाख टन सीमेंट और नौ लाख टन लोहा पैदा हो रहा था। बिजली 1362 मेगावाट तक सीमित थी।

75 Years of Independent India Economy Jawaharlal Nehru to narendra modi Era

एक ऐसा भारत था, जहां औसत उम्र 32 साल थी। अन्न का संकट था। कृषि उत्पादन 5 करोड़ टन वार्षिक था और हमें विदेशों से गेहूं आयात करना पड़ा था। बंगाल, बिहार, उड़ीसा आदि राज्यों में भयंकर अकाल था। देश के सामने आर्थिक सामर्थ्य निर्माण के साथ साथ बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और स्वास्थ्य की गंभीर चुनौती थी।

उस समय दुनिया में प्रचलित दो आर्थिक मॉडल थे। पूंजीवाद और समाजवाद। ऐसे में प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू ने दोनों के बीच एक मिश्रित अर्थव्यवस्था का मॉडल अपनाया। नेहरू जी ने जो मॉडल अपनाया उसने निजी पूंजीवाद की जगह सरकारी पूंजीवाद को बढ़ावा दिया जिसमें सत्ता पोषित सरकार लगातार उत्पादन के साधनों पर बैठती गई और देश में लालफीताशाही, कोटा, राशनिंग, इंस्पेक्टर राज के दुष्प्रभावों की नींव तैयार होती गई। आम व्यापारी वर्ग को उनकी प्रतिभा के हिसाब से उन्नति का मौका नहीं मिला और नेताओं व अधिकारियों के ख़ास लोगों, जिनकी सांठगांठ सरकारी तंत्र में ज्यादा रही, उनका ही विकास हुआ।

उस समय आर्थिक सामर्थ्य निर्माण के लिए सबसे जरुरी था मानव संसाधन को स्वस्थ रखना। मलेरिया, टीबी, कुष्ठ रोग, प्लेग और चेचक जैसी महामारी पूरे देश में फैली हुई थीं। देश में सिर्फ 19 मेडिकल कॉलेज थे तब भी मद्रास में प्रयोगशाला और टीका दोनों बना। चेचक पर नियंत्रण पाया गया । पुणे में नेशनल वायरोलोजी इन्स्टीट्यूट खड़ा किया गया। इस तरह टीबी, चेचक, मलेरिया, प्लेग से लड़ते लड़ते भारत का स्वास्थ्य ढांचा खड़ा हुआ।

भारत के औद्योगिक सामर्थ्य निर्माण हेतु देश में राष्ट्रीय उद्योगों को स्थापित करना भी बड़ी चुनौती थी। बड़े उद्योगों की स्थापना और आपूर्ति सामर्थ्य के लिये निजी क्षेत्र को पूंजी व प्रोत्साहन की जरुरत थी लेकिन नेहरू ने सरकारी नियंत्रण में उद्योगों की स्थापना के साथ राष्ट्रीय क्षमता निर्माण के लिये पंचवर्षीय योजना की नींव रखी। राष्ट्रीय महत्व के कई सरकारी, तो कई निजी संस्थान स्थापित हुए। इन सब संस्थानों ने भारत के औद्योगिक, तकनीकी और विज्ञान के विकास में नींव के पत्थर की भूमिका निभाई।

इन सब प्रयासों के बाद भी 1951 से 1979 तक भारत की औसत आर्थिक विकास दर 3.1 प्रतिशत थी। प्रति व्यक्ति विकास दर 1.0 % थी। पश्चिम परस्त वामपंथी अर्थशास्त्रियों द्वारा इसे "हिन्दू ग्रोथ रेट" कह कर बदनाम किया गया। इस दरम्यान भारत को आर्थिक चुनौतियों में कृषि मे संस्थागत कमियाँ, कम तकनीकी विकास, अर्थव्यवस्था का दुनिया के अन्य देशों से जुड़ाव न होना, युद्ध, पाकिस्तान और बंग्लादेशी शरणार्थी, चार बड़े सूखे, वित्तीय संस्थानों का पिछ्ड़ा होना, विदेशी पूंजी निवेश पर रोक, शेयर बाज़ार में घपले, कम साक्षरता दर, बड़ी जनसंख्या वृद्धि दर का भी एक के बाद एक सामना करना पड़ा।

लाल बहादुर शास्त्री द्वारा अपने प्रधानमंत्री कार्यकाल में कृषि विकास हेतु प्रारंभ की गयी हरित क्रांति और दूध उत्पादन बढ़ाने हेतु प्रारंभ की गयी श्वेत क्रांति काफी सफल रही। इस क्षेत्र में सहकारी डेयरी को बढ़ावा देकर लगभग सभी प्रदेशों ने अमूल का मॉडल अपनाया और आज पूरी दुनिया का 22 प्रतिशत दूध हम पैदा कर रहे हैं।

फिर आया इंदिरा गांधी का दौर। अर्थव्यवस्था पर सरकारी नियंत्रण के मामले में वह नेहरू से भी आगे निकल गयीं। उन्होंने 14 बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और एलआईसी को भी सार्वजनिक क्षेत्र में शामिल कर लिया। हालांकि हरित क्रांति का विस्तार उनके शासनकाल में हुआ और खाद्यान्न के मामले में भारत आत्मनिर्भर हुआ। साठ के दशक में हमने हाइब्रिड बीजों और खाद का प्रयोग करने के साथ ही आधुनिक खेती की तकनीक भी अपनाई। इससे हरियाणा और पंजाब में कृषि उत्पादन बढ़ा और समृद्धि आई।

सरकार ने उत्पादन क्षमता बढ़ाने हेतु सार्वजनिक क्षेत्र के उद्योगों में भारी निवेश तो किया लेकिन सरकारी भ्रष्टाचार और अकुशलता के कारण उनकी उत्पादकता कम थी और वे घाटे, बजट अनुदान और कर्ज में धंसते रहे। देश का आयात बढ़ता गया और खाद्यान्न और मशीनों आदि के आयात पर विदेशी मुद्रा की बड़ी राशि खर्च हो रही थी और 1990 तक स्थिति सोना गिरवी रखने तक आ गई।

जिस नेहरू की अर्थनीति की शुरू के वर्षो में सराहना की जा रही थी वह समय की कसौटी पर अपने आपको कस नहीं पा रही थी। 1991 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव और डॉ. मनमोहन सिंह ने वैश्वीकरण और उदारीकरण का दरवाजा खोला। जिनसे हमें अगले कई वर्षों में बड़ी सफलताएं मिलीं, लाइसेंस परमिट राज खत्म हुआ, ऐसी नीतियां बनी जिनसे सॉफ्टवेयर और फार्मास्यूटिकल जैसे निर्यातोन्मुखी उद्योगों का विस्तार हुआ।

आज हम जेनेरिक दवाइयों और वैक्सीन के दुनिया के सबसे बड़े निर्माता हैं। जेनेरिक दवाइयां बनाने वाली दुनिया की पांच में से दो सबसे बड़ी कंपनियां भारतीय हैं और भारत दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन निर्माता है। आज यदि हम कोविड-19 पर ठीक से काबू पा सके हैं, तो उसकी यही वजह है।

1991 में आए आर्थिक सुधारों ने देश में टेलीकॉम क्रांति को भी जन्म दिया। 1991 के बाद तीन और बड़े परिवर्तन आए-शेयरों का डिमैटेरियलाइजेशन या अमूर्तिकरण, नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की स्थापना और शेयर मार्केट के नियामक सेबी का गठन। इनकी वजह से भारत दुनिया का सबसे तेजी से बढ़ने वाला शेयर मार्केट बन गया।

अटल बिहारी वाजपेयी ने भी कनेक्टिविटी और कम्युनिकेशन के क्षेत्र में में बड़े निर्णय और बड़े सुधार किये। हाईवे और ग्रामीण सड़कों पर बड़ा निवेश किया और स्पेशल इकोनॉमिक जोन (सेज) की स्थापना की और निजी क्षेत्र की भूमिका बढ़ाई। भारतीय अर्थव्यवस्था पहली बार तेज गति से बढ़ी। अटल बिहारी वाजपेयी ने जीडीपी को 4.2 फीसदी से 8.3 प्रतिशत तक पहुंचाया। 2000 से 2010 के दशक में 27.1 करोड़ भारतीय गरीबी की रेखा से ऊपर आ गए। भारत के इतिहास में गरीबी इतनी तेजी से कभी नहीं घटी।

मनमोहन सिंह ने अपने वित्तमंत्री रहते आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की जो नीति बनाई थी 2004 में प्रधानमंत्री बनने के बाद उसी पर वह चलते रहे और अमेरिका से परमाणु समझौता उनके काल की महत्वपूर्ण उपलब्धि रही। लेकिन उनके दूसरे टर्म में अर्थव्यवस्था गिरने लगी। महंगाई, घाटे में वृद्धि, बेरोजगारी और भ्रष्टाचार ने अर्थव्यवस्था को सुस्त किया। विकास दर नौ प्रतिशत से पांच प्रतिशत तक आ गई।

जब 2014 में नरेंद्र मोदी सत्ता में आये तो उन्होंने आर्थिक सुधारों को नई दिशा दी। आयात हो रही वस्तुओं को भारत में ही बनाने के लिए उन्होंने "मेक इन इंडिया" की नींव रखी, ताकि भारत मैन्युफैक्चरिंग हब बने। डिफेन्स और टेलीकॉम इसका सबसे बड़ा उदाहरण बना। डिजिटल इकॉनमी पर जोर देकर देश और दुनिया को यूपीआई का मॉडल दिया जिसने डिजिटल इकॉनमी के साथ एमएसएमई को एक बेस दिया।

जनधन, आधार और मोबाइल (जैम) के संयोग से सरकारी योजनाओं का लाभ गरीबों को सीधे मिलने लगा है। सभी गांवों में बिजली व स्वच्छ पेयजल पहुँचाने, आवास और शौचालय के निर्माण करने और गरीब परिवारों को गैस सिलेंडर उपलब्ध करवा कर आम भारतीय के जीवन स्तर में प्रभावी सुधार किया है। मोदी ने सरकारी नियंत्रण के विरुद्ध उद्योगों और व्यवसाय के दरवाजे निजी क्षेत्रों के लिए खोले। जीएसटी जैसा कर सुधार लागू किया जिसका दूरगामी परिणाम अर्थव्यवस्था को शक्ति देगा।

कुल मिलाकर 75 वर्षों की इस यात्रा में कभी समाजवाद, कभी पूंजीवाद, तो कभी मिश्रित अर्थनीति के साथ चलते हुए भारत कुछ हद तक गरीबी को कम करने में सफल रहा है लेकिन बढ़ती जनसंख्या के लिए उपयुक्त व स्थायी रोजगार के साधनों की व्यवस्था करना सरकारों के लिए बड़ी चुनौती बनती जा रही है। भारत की तेज विकास दर भी बेरोजगारी को कम करने में अब तक विफल ही रही है। इसलिए भविष्य के लिए आर्थिक नीतियों में बदलाव की आवश्यकता भी अनुभव होने लगी है।

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(इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. लेख में प्रस्तुत किसी भी विचार एवं जानकारी के प्रति Oneindia उत्तरदायी नहीं है।)

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English summary
75 Years of Independent India Economy Jawaharlal Nehru to narendra modi Era 15
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