मुलायम की विरासत और बबुआ अखिलेश की सियासत, सपा को भारी न पड़ जाए बुआ से दोस्ती
नई दिल्ली। 2019 लोकसभा चुनाव के लिए सियासी बिसात बिछनी शुरू हो गई है। बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश और उत्तर प्रदेश से महाराष्ट्र तक सियासी गठबंधनों पर माथापच्ची जारी है। सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें उत्तर प्रदेश में हैं और यही इकलौता ऐसा राज्य है, जहां देश का सबसे बड़ा महागठबंधन पनप रहा है। अखिलेश यादव ने रविवार को भरी सभा में ऐलान कर दिया कि अगर गठबंधन के लिए दो-चार सीटों का समझौता भी करना पड़े तो वह तैयार हैं। अपने बबुआ के मुंह से ऐसी बात सुनकर बुआजी यानी मायावती को निश्चित ही खुशी हुई होगी। मोदी लहर से जूझने के लिए बबुआ अगर अपनी बुआ का हाथ पकड़कर चलना चाहता है तो इसमें हर्ज ही क्या है? ऐसे में बुआ का खुश होना जायज भी है, लेकिन बबुआ के पिताजी और पूरे देश के नेताजी जरूर इस बात से निराश हुए होंगे।
नेताजी मुलायम सिंह ने अमर सिंह, शिवपाल सिंह यादव, आजम खान जैसे कद्दावर नेताओं को दूध में से मक्खी की तरह निकालकर फेंका था, तब जाकर अखिलेश यादव को यूपी की सियासत में एक चमकते सितारे की तरह लॉन्च किया गया था। 2012 में अखिलेश जब मुलायम के बबुआ हुआ करते थे, तब सपा बंपर सीटों के साथ यूपी के सियासी आसमान पर छा गए थे। अखिलेश की सफलता से सिहाए पिता ने जीत का सेहरा बेटे के सिर बांधा और मुख्यमंत्री पद तोहफे में दिया। यूपी में 5 साल सपा की सरकार चली, लेकिन जीत के दो साल बाद ही अखिलेश यादव का सियासी बेड़ा मोदी की सुनामी से जा टकराया।
2014 में आई मोदी सुनामी ने सपाइयों की सारी सियासी फल उजाड़ दी। लोकसभा चुनावों की हार से मुलायम सिंह यादव व्यथित हुए, लेकिन बेटे से भरोसा डिगा नहीं। बीच-बीच में मुलायम बेटे अखिलेश को सार्वजनिक मंचों से 'पिता वाली डांट' लगाते रहे, लेकिन कुल मिलाकर सपा का कुनबा एक टेबल पर बैठकर खाना खता रहा है और मुलायम सिंह यादव बरसों पुराने अंदाज में हेड ऑफ द फैमिली की पोजिशन पर बने हुए थे। दूसरी ओर अखिलेश यादव चाचा शिवपाल की जगह दूसरे चाचा रामगोपाल के करीब आते-आते गए। इस बीच अमर सिंह वापस बड़े भैया मुलायम की गोद आकर बैठे तो काफी दिनों से चुपचाप तमाशा देख रहे अखिलेश ने सार्वजनिक मंचों से धीमे स्वर में बगावत कर डाली।
बात अब तक दबी थी, लेकिन धीरे-धीरे सपा कुनबे की आग पूरी समाजवादी पार्टी में फैल गई। विरासत की जंग शुरू हुई और अखिलेश यादव ने पिता की पार्टी की कमान पूरी तरह हाथों में ले ली। इस कहानी में कुछ किस्से ऐसे भी आए जब माइक छीने गए और मंच से ही चाचा-भतीजे में जंग हुई। मामला चुनाव आयोग तक पहुंचा, पार्टी अखिलेश की हुई और बाद में परिवार की बात दबाने के लिए मुलायम भरसक प्रयास करते दिखे, लेकिन भरपाई नहीं हुई। हां, पार्टी की सक्रिय राजनीति ये मुलायम सिंह यादव की विदाई जरूर हुई। 2017 विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव की करारी हार हुई। समाजवादी पार्टी का यूपी की सियासत में स्थान गिरा।
यादव कुनबे में जंग से बाहर आने के बाद अखिलेश यादव ने नरेंद्र मोदी-अमित शाह को टक्कर देने के लिए कई व्यूह रचे। गोरखपुर-फूलपुर, कैराना, नूरपुर समेत एक के बाद एक अखिलेश ने अमित शाह को यूपी में हार के दर्शन कराए। बीजेपी की इस हार में अखिलेश ने बुआ मायावती का आशीर्वाद लिया, जो जीवन भर मुलायम की धुर विरोधी रहीं। हालांकि, कुछ समय मुलायम और मायावती सत्ता के साझीदार भी रहे, लेकिन गेस्ट हाउस कांड के बाद से दोनों की राजनीति नॉर्थ पोल और साउथ पोल की तरह रही। बहरहाल, अखिलेश यादव ने वो काम कर दिखाया जो उनके पिता नहीं कर सके। मायावती के साथ सत्ता का संतुलन बिठा पाना कोई बच्चों का खेल नहीं, लेकिन सवाल सबसे अहम यह है कि क्या अखिलेश यादव इस प्रकार से पिता की विरासत को आगे ले जा सकेंगे?
यूपी में कम सीटें लेकर क्या सपा अपनी ताकत नहीं खोएगी? उपचुनावों में मनोवैज्ञानिक दबाव तक तो मामला ठीक है, लेकिन क्या मायावती के साथ जाकर वो समाजवादी पार्टी विस्तार की राह पर जा सकेगी, जिसकी जिम्मेदारी अखिलेश यादव की बनती है। मुलायम ने जिस समाजवादी पार्टी को अपने दम पर सत्ता में लाने का रास्ता दिखाया क्या वो सपा अब मायावती की बैसाखी के सहारे निर्भर नहीं हो जाएगी? गठबंधन से मोदी की राह तो रोकना आसान है, लेकिन क्या उससे सपा की ताकत कम नहीं होगी? अखिलेश यादव को इन सवालों के जवाब देने होंगे, क्योंकि चुनाव से पहले जब टिकट बांटे जाएंगे तब अखिलेश भैया से बरसों पुराने कार्यकर्ता टिकट मांगते वक्त कुछ ऐसे ही सवाल पूछेंगे।