SC/ST मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला पलटे जाने के बाद एक बार फिर से हाईकोर्ट करने जा रही है सुनवाई
इलाहाबाद। एससी-एसटी एक्ट पर जमानत न मिलने के केन्द्र सरकार के फैसले के बाद पूरे देश में महाबहस छिड़ी हुई है और अब उसी क्रम में मामला इलाहाबाद हाईकोर्ट की तीन जजों वाली पूर्ण पीठ में भी पहुंच चुका है। एससी एसटी एक्ट का मुकदमा दर्ज होने के बाद आरोपी की गिरफ्तारी तो तय है। लेकिन, उसे जमानत मिलेगी या नहीं ? इस पर एक बार फिर से चर्चा शुरू हो गई है। मामले में इलाहाबाद हाईकोर्ट में अधिवक्ता विष्णु बिहारी तिवारी द्वारा जनहित याचिका दाखिल की गई है। जिसमें एससी एसटी एक्ट के अंतर्गत जमानत न दिए जाने को असंवैधानिक बताते हुए इसे रद्द करने की मांग की गई है। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने याचिका को स्वीकार कर लिया है और केंद्र सरकार को नोटिस जारी करते हुए जवाब मांगा है।
संविधान
के
दो
अनुच्छेद
का
हवाला
इलाहाबाद
हाईकोर्ट
में
दाखिल
याचिका
द्वारा
एससी-एसटी
एक्ट
की
धारा
14
ए(2)
एवं
धारा
14
ए
(3)
के
परंतुक
(स्पष्टीकरण)
दो
की
संवैधानिकता
को
चैलेंज
किया
गया
है।
याची
की
ओर
से
दलील
दी
गई
है
कि
संविधान
में
भारत
के
नागरिकों
को
अनुच्छेद
14
के
अंतर्गत
समता
का
अधिकार
दिया
है।
जो
समान
संरक्षण
से
संबंधित
है।
उसमें
साफ
उल्लेख
है
कि
भारत
के
राज्य
क्षेत्र
में
किसी
व्यक्ति
को
विधि
के
समक्ष
समता
से,
विधियों
के
समान
संरक्षण
से
वंचित
नहीं
किया
जाएगा।
ऐसे
में
एससी-एसटी
एक्ट
द्वारा
संविधान
इस
मौलिक
अधिकार
का
उल्लंघन
किया
जा
रहा
है।
जो
पूरी
तरह
से
असंवैधानिक
है।
कोर्ट
में
दी
गई
दलील
में
आर्टिकल
21
का
भी
जिक्र
किया
गया
और
बताया
गया
कि
संविधान
ने
हमें
अनुच्छेद
21
के
तहत
प्राण
और
दैहिक
स्वतंत्रता
का
अधिकार
दिया
है।
यानी
हमें
गरिमा
के
साथ
जीने
का
अधिकार
मिला
हुआ
है।
लेकिन,
एससी
एसटी
एक्ट
का
जमानत
ना
देने
का
प्रावधान
हमारी
गरिमा
के
साथ
जीने
के
अधिकार
को
प्रतिबंधित
कर
देता
है
और
हमारी
प्राण
और
दैहिक
स्वतंत्रता
पूरी
तरह
से
खत्म
कर
दी
जा
रही
है।
इसलिए
एससी
एसटी
एक्ट
में
जमानत
ना
देने
का
प्रावधान
पूरी
तरह
से
असंवैधानिक
है
और
इसे
रद्द
किया
जाना
चाहिए।
मुख्य
न्यायाधीश
की
डबल
बेंच
में
सुनवाई
अधिवक्ता
विष्णु
बिहारी
तिवारी
की
जनहित
याचिका
पर
सुनवाई
मुख्य
न्यायाधीश
डी.
बी.
भोसले,
न्यायमूर्ति
रमेश
सिन्हा
और
न्यायमूर्ति
यशवंत
वर्मा
की
पूर्ण
पीठ
ने
की
और
हाईकोर्ट
में
अपर
सालिसिटर
जनरल
कार्यालय
व
अटॉर्नी
जनरल
नई
दिल्ली
को
नोटिस
जारी
की
है।
इस
मामले
की
अगली
सुनवाई
30
अगस्त
को
होनी
है
और
इसी
दिन
केंद्र
सरकार
को
इस
मामले
पर
अपना
पक्ष
रखना
है।
इलाहाबाद
हाईकोर्ट
ने
इस
याचिका
को
इस
तरह
की
पहले
से
ही
दाखिल
अन्य
याचिकाओं
के
साथ
संबंध
करने
का
भी
आदेश
दिया
है
और
अब
सभी
याचिकाओं
पर
एक
साथ
सुनवाई
की
जाएगी
सरकार
के
लिए
आसान
नहीं
होगा
जवाब
देना
सुप्रीम
कोर्ट
द्वारा
जब
एससी
एसटी
एक्ट
को
लेकर
आदेश
दिया
गया
और
यह
कहा
गया
कि
जांच
के
बाद
ही
गिरफ्तारी
होनी
चाहिए।
तब
केंद्र
सरकार
द्वारा
अध्यादेश
लाकर
सुप्रीम
कोर्ट
के
आदेश
को
पलट
दिया
गया।
लेकिन,
अब
एक
बार
फिर
से
हाईकोर्ट
में
मामला
जाने
के
बाद
सरकार
के
लिए
इस
तरह
के
प्रावधान
को
लागू
करने
पर
जवाब
देना
मुश्किल
होगा।
क्योंकि
संविधान
द्वारा
प्रदत्त
मौलिक
अधिकार
इस
प्रावधान
से
पूरी
तरह
प्रतिबंधित
हो
रहे
हैं
और
मिनर्वा
मिल्स
के
केस
में
सुप्रीम
कोर्ट
ने
पहले
ही
यह
साफ
कर
दिया
है
कि
सरकार
कोई
ऐसा
संशोधन
नहीं
कर
सकती
जिससे
कि
संविधान
का
मूल
ढांचा
प्रभावित
हो।
ऐसे में अगर सरकार SC ST को लेकर संविधान संशोधन पर आगे कायम रहेगी तो वह न्यायिक पुनर्विलोकन के दायरे में अवश्य आएगा। हालांकि सरकार नौवीं अनुसूची में इसे डालकर इस मामले से एक अलग रास्ता जरूर खोज सकती है। लेकिन, ऐसा करना उसके लिए फिलहाल संभव नहीं दिखाई पड़ रहा है। बहरहाल 30 अगस्त को सरकार का पक्ष सामने आएगा और संविधान के आर्टिकल 14 व आर्टिकल 21 के तहत भारत के हर नागरिक को मिले मौलिक अधिकारों के हनन पर अपना जवाब दाखिल करना होगा। फिलहाल एक बात तो तय है कि एससी एसटी एक्ट में जमानत मिलेगी या नहीं मिलेगी ? इसका फैसला एक बार फिर से न्यायपालिका द्वारा ही किया जाएगा। बहरहाल कयी ऐतिहासिक फैसले दे चुकी इलाहाबाद हाईकोर्ट पर एक बार फिर से पूरे देश पूरे देश की नजरें होगी और 30 अगस्त को होने वाली सुनवाई बेहद ही अहम मानी जा रही है।