भारत से क्यों है दलाई लामा को इतना प्यार, जानिए उन्हीं की जुबानी
शिमला। नोबेल से पुरुस्कृत तिब्बती धर्मगुरू दलाई लामा को लेकर अक्सर सवाल उठते हैं कि वे भारत में ही ज्यादा समय बिताना क्यों पसंद करते हैं और भारत को ही उन्होंने इसके लिये क्यों चुना? तो इसका जवाब दलाई लामा ने मुंबई यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम के दौरान चीनी व कुछ अमेरिकी पत्रकारों को दिया है। पत्रकारों द्वारा दलाई से पूछा गया था कि आप कैसे भारत के बेटे हो सकते हैं?
इसके जवाब में अपने हल्के-फुल्के अंदाज में हंसते हुए दलाई लामा ने भारत के प्रति अपने प्रेम को बखूबी बयान किया। कहा कि वह शारीरिक रूप से भले ही तिब्बती हों, लेकिन मानसिक तौर पर भारतीय ही हैं।
दलाई लामा ने कहा कि मेरा दिमाग नालंदा के विचारों से भरा है। मेरा शरीर भारतीय व्यंजन दाल-चपाती और डोसे पर निर्भर है, इसलिए मैं दिमाग और शरीर दोनों तरह से इस देश का हूं, यही सब मुझे भारत का बेटा बनाते हैं। इससे पहले तिब्बती अध्यात्मिक नेता दलाई लामा ने कहा था कि वह शारीरिक रूप से तिब्बती हैं मगर, उनका दिमाग भारतीयों की तुलना में अधिक भारतीय हो सकता है। साथ ही उन्होंने कहा कि प्राचीन भारतीय ज्ञान वर्तमान दुनिया के लिए बहुत प्रासंगिक है।
नालंदा
विश्वविद्यालय
के
शिक्षक
महान
थे
दलाई
लामा
ने
कहा,
"आप
प्राचीन
भारतीय
ज्ञान
की
सराहना
नहीं
भी
कर
सकते
हैं।
मगर,
मैं
इसी
से
प्रशिक्षित
हुआ
हूं।
नालंदा
विश्वविद्यालय
अब
खंडहर
में
है,
पर
अध्ययन
की
जो
परम्पराएं
वहां
फली-फूलीं
उन्हें
शांतरक्षित
ने
8वीं
शताब्दी
में
तिब्बत
में
स्थापित
किया।
वह
एक
महान
विद्वान
और
तर्कज्ञ
थे,
साथ
ही
विशुद्ध
भिक्षु
थे
और
उन्होंने
हमें
जो
कुछ
भी
सिखाया
उसे
हमने
जीवित
रखा।"
चीन
दुश्मन
क्यों
मानता
है?
तिब्बतियों
के
83
वर्षीय
अध्यात्मिक
नेता
दलाई
लामा
को
चीन
हमेशा
ही
नापसंद
करता
रहा
है।
वह
हमेशा
से
तिब्बत
पर
अपना
दावा
पेश
करता
आया
है।
वहीं,
दलाई
लामा
को
हमेशा
से
भारत
के
प्रति
प्रेम
की
भावना
रही
है,
लेकिन
चीन
हमेशा
से
उनसे
चिढ़ता
आया
है।
दलाई
लामा
जिस
भी
देश
जाते
हैं,
चीन
उसपर
आपत्ति
दर्ज
कराता
है।
दरअसल,
चीन
दलाई
लामा
को
अलगाववादी
मानता
है,
वह
सोचता
है
कि
दलाई
लामा
उसके
लिए
समस्या
हैं।
चीन
ने
किया
था
तिब्बत
पर
कब्जा
तेहरवें
दलाई
लामा
ने
1912
में
तिब्बत
को
स्वतंत्र
घोषित
कर
दिया
था।
मगर,
14वें
दलाई
लामा
के
चुनने
की
प्रक्रिया
के
दौरान
चीन
के
लोगों
ने
तिब्बत
पर
आक्रमण
कर
दिया।
तिब्बत
को
इस
लड़ाई
में
हार
का
सामना
करना
पड़ा।
वहीं,
कुछ
सालों
बाद
अपनी
संप्रभुता
की
मांग
उठाते
हुए
तिब्बत
के
लोगों
ने
भी
चीनी
शासन
के
खिलाफ
विद्रोह
कर
दिया,
हालांकि
विद्रोहियों
को
इसमें
सफलता
नहीं
मिली।
जब
दलाई
लामा
को
लगा
कि
वह
चीनी
चंगुल
में
बुरी
तरह
से
फंस
जाएंगे,
तब
उन्होंने
भारत
का
रुख
किया।
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साल 1959 में दलाई लामा के साथ भारी संख्या में तिब्बती भी भारत आए थे। भारत में दलाई लामा को शरण मिलना चीन को अच्छा नहीं लगा, उस वक्त चीन में माओत्से तुंग का शासन था। दलाई लामा और चीन के बीच शुरू हुआ विवाद अभी तक खत्म नहीं हुआ है। हालांकि दलाई लामा को दुनियाभर से सहानुभूमि मिली, इसके बावजूद वे निर्वासन की ही जिंदगी जी रहे हैं। दलाई लामा भी अब खुद को भारत का पुत्र बोलने में पीछे नहीं रहते। यहीं कारण है कि दलाई लामा के भारत में रहने से चीन से रिश्ते अक्सर खराब रहते हैं। 1989 में दलाई लामा को शांति का नोबेल सम्मान मिला था.