क्यों अनिल परब, शिवसेना और उद्धव ठाकरे के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं ? ED का शिकंजा अच्छा संकेत नहीं है
मुंबई, 26 मई: महाराष्ट्र की सत्ताधारी शिवसेना की जान बीएमसी में बसती है। लेकिन, इसी साल होने वाले देश के कई छोटे राज्यों से बड़े बजट वाली बीएमसी के चुनाव में पार्टी को इसबार भारतीय जनता पार्टी से कड़ी चुनौती मिलने की संभावना है। ऐसे में प्रवर्तन निदेशालय का राज्य के ट्रांसपोर्ट मंत्री और शिवसेना नेता अनिल परब पर शिकंजा कसना, मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की पार्टी के बीएमसी में फिर से चुनाव जीतने की योजना में पलीता लगा सकता है। ईडी के अधिकारियों ने गुरुवार को परब से जुड़े सात ठिकानों पर छापेमारी की है, जिनके बारे में कहा जाता है कि मुंबई की राजनीति की समझ, पकड़ और दबदबे की वजह से ही वह आज पार्टी के महत्वपूर्ण चुनावी रणनीतिकार बन चुके हैं।
कौन हैं अनिल परब ?
1965 में जन्मे महाराष्ट्र के मौजूदा ट्रांसपोर्ट मंत्री और शिवसेना नेता अनिल परब को शुरू में दिवंगत शिवसेना नेता मधुकर सरपोत्दार ने आगे बढ़ाया, जो उन्हीं की तरह बांद्रा ईस्ट में रहते थे। यह वही इलाका है, जहां उद्धव का पुश्तैनी घर मातोश्री भी है। बाद में परब राज ठाकरे की अगुवाई वाले शिवसेना की युवा इकाई भारतीय विद्यार्थी सेना में काफी सक्रिय भी रहे। इस दौरान उनपर शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे की नजर पड़ी और उन्होंने उनको आगे के लिए तैयार करना शुरू किया। परब अक्सर यह कहते हुए नहीं थकते कि कैसे एक बार एक प्रदर्शन के बाद पुलिस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने उन्हें पकड़ लिया था, तो बाल ठाकरे उस अफसर पर भड़क गए थे।
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बीजेपी ने अनिल परब के बारे में क्या कहा ?
अनिल परब पर ईडी का शिकंजा उद्धव ठाकरे को कितना परेशान कर सकता है, यह बीजेपी नेता किरीट सोमैया के बयान में पढ़ा जा सकता है। उन्होंने कहा है, 'अनिल परब का जेल जाना अवश्यंभावी है, क्योंकि वे कई तरह के आपराधिक केस में शामिल हैं। महाराष्ट्र पुलिस, सीबीआई, ईडी, एनआईए समेत विभिन्न प्रादेशिक और केंद्रीय एजेंसियों को परब के द्वारा किए गए अपराध की जांच करनी है।'
अनिल परब कैसे बने शिवसेना के प्रमुख चुनावी रणनीतिकार ?
1990 के दशक में मुंबई में ही नहीं पूरे भारत में केबल टेलीविजन का बिजनेस बूम करना शुरू हुआ था और परब सेना के केबल टीवी ऑपरेटर्स यूनियन के प्रमुख थे। यह ऐसा काम था, जिसमें स्थानीय स्तर पर पैसे, ताकत और स्थानीय दबदबे की आवश्यकता होती थी। मातोश्री के आशीर्वाद ने परब को इसमें पारंगत बना दिया। एक शिवसेना नेता के मुताबिक, 'इससे शहर की राजनीति पर उन्हें गहरी पकड़ बनाने में मदद मिली, क्योंकि वे जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं और बाहुबलियों के संपर्क में थे। इसके चलते उन्हें शिवसेना के चुनावी रणनीतिकार के रूप में उभरने में सहायता मिली।'
उद्धव ठाकरे के खासम खास कैसे बने अनिल परब ?
2005 में पूर्व मुख्यमंत्री और मौजूदा केंद्रीय मंत्री नारायण राणे ने पार्टी के तत्कालीन कार्यकारी अध्यक्ष उद्धव के साथ संघर्ष की वजह से शिवसेना छोड़ दी। वह ऐसा वक्त था, जब पहली बार राणे समर्थकों की वजह से शिवसेना के कार्यकर्ताओं को मुंबई में भागना पड़ा, जिसका कि बाल ठाकरे की वजह से मायानगरी की सड़कों पर एकाधिकार कायम था। एक साल बाद पारिवारिक सत्ता संघर्ष में पिछड़ने की वजह से राज ठाकरे ने भी पार्टी छोड़ दी और एमएनएस बना ली। यही वह वक्त था,जब परब को पार्टी की चुनावी रणनीति बनाने का मौका मिला। उन्हें विधान परिषद के लिए भी नामित किया गया और मुंबई सेंट्रल लोकसभा क्षेत्र के विभाग प्रमुख होने के नाते उन्हें मातोश्री के और ज्यादा करीब पहुंचने का अवसर मिल गया। यहीं से उनकी उद्धव ठाकरे के करीबियों में गिनती शुरू हो गई। 2007 में बीएमसी का चुनाव था और शिवसेना, बीजेपी के साथ गठबंधन में चुनाव लड़ रही थी। पार्टी के सामने कांग्रेस की चुनौती बड़ी हो गई थी, क्योंकि राणे भी उसमें शामिल हो चुके थे। उधर राज ठाकरे की पार्टी अलग ताल ठोक रही थी। लेकिन, परब की जमीनी रणनीति काम आई और शिवसेना बीएमसी चुनाव में विपक्ष को हराने में सफल हो गई।
आदित्य ठाकरे के लिए भी आए उद्धव के काम
2019 के विधानसभा चुनाव आते-आते शिवसेना का रंग-ढंग बदलने लगा था। युवा सेना के प्रमुख आदित्य ठाकरे ने भी परिवार से पहली बार चुनावी राजनीति में दांव लगाने का फैसला किया। उनके लिए तीन सीटों से चुनाव लड़ने का विकल्प था- बांद्रा ईस्ट, ओस्मानाबाद और वर्ली। परब के प्रभाव से ही वर्ली सीट तय की गई और ठाकरे परिवार का पहला सदस्य चुनाव जीतकर विधानसभा में दाखिल हुआ। जब चुनावों के बाद उद्धव ने अपनी बड़ी सहयोगी बीजेपी को गच्चा देना तय किया और महा विकास अघाड़ी सरकार में ट्रांसपोर्ट मिनिस्टर बनाकर उद्धव ने संकेत दे दिया कि परब पर उन्हें पूर्ण भरोसा है। शिवसेना के उस नेता का कहना है, 'वे बहुत ही अच्छे जमीनी संगठनकर्ता और रणनीतिकार हैं.....सेना सड़क की राजनीति के लिए जानी जाती रही है और उसे ऐसे नेता की दरकार थी, जो कि सभी परिस्थितियों में बेहतर रणनीतिकार हो। राजनीति की समझ, शिक्षा और एक वकील के तौर पर प्रशिक्षित परब इस रोल में पूरी तरह से फिट बैठ गए। उन्होंने पार्टी के कानूनी मसलों को भी देखा और ठाकरे परिवार के बहुत ही करीबी और भरोसेमंद बन गए। खास बात ये है कि परब का अपना कोई बड़ा जनाधार नहीं है, जिससे उद्धव उन्हें अपने लिए कभी खतरा नहीं मानते, जिनके बारे में कहा जाता है कि वह ऐसे नेताओं के प्रति सचेत रहते हैं....' शायद उद्धव को एक पूर्ण रणनीतिकार चाहिए, प्रतिद्वंद्वी नहीं और इसमें अनिल परब पूरी तरह जम जाते हैं।