बिन्यामिन नेतन्याहू: इसराइल की राजनीति के 'जादूगर' को कैसे याद करेगी दुनिया
बिन्यामिन नेतन्याहू 12 साल तक इसराइल के प्रधानमंत्री रहे, इस दौरान राजनीतिक उठापटक भी जम कर हुए और विवादों ने भी उनका पीछा नहीं छोड़ा.
बिन्यामिन नेतन्याहू की इसराइल के प्रधानमंत्री के पद से विदाई हो गई है.
वह पिछले 12 सालों से इसराइल के प्रधानमंत्री थे. नई गठबंधन सरकार के पक्ष में बहुमत होने के चलते उन्हें अपना पद छोड़ना पड़ा है.
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13 जून को नई गठबंधन सरकार ने शपथ ग्रहण किया. इसी के साथ ही दक्षिणपंथी राष्ट्रवादी नेता नेफ़्टाली बैनेट ने इसराइल के नए प्रधानमंत्री का पद संभाल लिया है.
नेतन्याहू सबसे लंबे समय तक इसराइल के प्रधानमंत्री रहे हैं. वे पाँच बार इसराइल के प्रधानमंत्री चुने गए. पहली बार वे 1996 से 1999 तक प्रधानमंत्री रहे, इसके बाद 2009 से 2021 तक वे लगातार सरकार का नेतृत्व करते रहे.
इसराइल में पिछले तीन चुनावों में स्पष्ट जनादेश ना आने के बावजूद नेतन्याहू प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहे. सत्ता में बने रहने के लिए उन्होंने सबसे बड़े प्रतिद्वंद्वी बेनी गैंट्ज़ को अपना मुख्य सिपहसालार बना लिया. हालाँकि उनका अंतिम कार्यकाल छोटा रहा.
नेतन्याहू को एक सख़्त राजनीतिज्ञ और पॉलिटिकल सर्वाइवर के रूप में जाना जाता है. वह इसराइल की राजनीति में 'जादूगर' के नाम से भी लोकप्रिय हैं.
नेतन्याहू इसराइल के पहले प्रधानमंत्री रहे, जिन पर उनके कार्यकाल के दौरान ही भ्रष्टाचार के मुक़दमे चले और इसके बावजूद वह प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बने रहे.
नई सरकार
इसराइल के नए प्रधानमंत्री नेफ़्टाली बैनेट ने कहा है कि वह ध्रुवीकरण शासन शैली को समाप्त करना चाहते हैं, जो नेतन्याहू के शासन की पहचान थी.
इस नई गठबंधन सरकार में नेफ़्टाली बेनेट की अपनी पार्टी (यामिना पार्टी) के महज़ छह सांसद हैं, लेकिन गठबंधन ने उन्हें अपना नेता चुना है.
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नेफ़्टाली को बिन्यामिन नेतन्याहू और विपक्षी नेता येर लेपिड के साथ प्रधानमंत्री का पद साझा करने का प्रस्ताव दिया गया था. आख़िरकार दक्षिणपंथी नेफ़्टाली ने मध्यमार्गी येर लेपिड के साथ जाने का फ़ैसला किया जबकि दोनों में विचारधारा के स्तर पर काफ़ी दूरियाँ हैं.
दोनों दलों में हुए समझौते के मुताबिक़ नेफ़्टाली सितंबर, 2023 तक इसराइल के प्रधानमंत्री रहेंगे और इसके बाद अगले दो साल की कमान येर लेपिड के हाथों में होगी.
वहीं दूसरी ओर बिन्यामिन नेतन्याहू लंबे समय से इस नए गठबंधन को ख़तरा बताते रहे. उन्होंने कई बार ट्वीट करके गठबंधन सरकार बनाने के प्रयासों को "सदी का सबसे बड़ा छल" बताया था और चेतावनी दी थी कि इससे इसराइल की सुरक्षा और भविष्य पर ख़तरा खड़ा हो जाएगा.
अपने विरोधियों पर आरोपों को दोहराते हुए नेतन्याहू ने नई सरकार को ख़तरनाक वामपंथी सरकार कहा है. उन्होंने इस नव-निर्मित सरकार को बहुत जल्द ही उखाड़ फेंकने की कसम भी खायी है.
नेतन्याहू- एक परिचय
71 साल के नेतन्याहू इसराइल में सबसे लंबे समय तक सत्ता में रहने वाले नेता हैं और इसराइल की राजनीति में एक पूरे दौर में उनका दबदबा रहा है. उनके कुछ समर्थक उन्हें 'किंग बीबी' के नाम से भी पुकारते हैं.
नेतन्याहू का जन्म तेल-अवीव में हुआ था और इसके बाद उन्होंने कई साल अमेरिका में गुज़ारे. बतौर युवा उन्होंने यहीं से अपनी पढ़ाई भी की और साथ ही एक अच्छी कमांडो यूनिट में सैन्य सेवा भी दी.
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उनके भाई जोनाथन का नाम नेशनल हीरो के तौर पर लिया जाता है. साल 1976 में युगांडा के एंतेबे में एक अपहृत विमान से इसराइली बंधकों के रेस्क्यू ऑपरेशन के दौरान उनकी मौत हो गई थी.
नेतन्याहू फ़र्राटेदार अंग्रेज़ी बोलते हैं. उनके उच्चारण में अमेरिकी अंग्रेज़ी का प्रभाव साफ़ तौर पर नज़र आता है. उनकी इस ख़ूबी के कारण ही अमेरिकी टीवी चैनलों पर वो इसराइल और अमेरिका के मुद्दों को बेहतर ढंग से रखते रहे.
नेतन्याहू साल 1984 में संयुक्त राष्ट्र में इसराइल के राजदूत रहे, लेकिन इससे पहले वह वॉशिंगटन में भी इसराइली दूतावास में भी मिशन के डिप्टी-प्रमुख के तौर पर कार्यरत थे.
उन्होंने साल 1988 में दक्षिणपंथी लिकुड पार्टी के सदस्य के तौर पर इसराइली संसद में क़दम रखा. लिकुड पार्टी के अध्यक्ष बनने से पहले वे विदेश उप मंत्री भी रहे. साल 1993 में फ़लीस्तीन लिबरेशन ऑर्गेनाइज़ेशन के साथ जब ओस्लो समझौता हुआ, उस समय नेतन्याहू विपक्ष का नेतृत्व कर रहे थे.
नेतन्याहू ने इस समझौते की तीखी आलोचना की, जिसके बाद उन पर भी आरोप लगे. उनके प्रतिद्वंदियों ने उन पर इसराइल में हिंसा को भड़काने का आरोप लगाया. जिसके कारण साल 1955 में इस समझौते का विरोध करने वाले एक यहूदी चरमपंथी ने तत्कालिक प्रधानमंत्री यित्ज़ाक राबिन की हत्या कर दी.
प्रधानमंत्री यित्ज़ाक राबिन की हत्या के बाद वर्ष 1996 में हुए चुनाव में नेतन्याहू इसराइल के प्रधानमंत्री बने.
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ओस्लो समझौते के कुछ बिंदुओं पर फिर से बातचीत करने के बाद नेतन्याहू ने एक समझौता किया, जिसके तहत वेस्ट शहर हब्रोन के 80 फ़ीसदी हिस्से को फ़लीस्तीनी प्रशासन को सौंप दिया और साथ ही इस क्षेत्र से वापसी के लिए भी सहमति दे दी. जिसकी काफ़ी आलोचना भी हुई.
साल 1999 में हुए एक चुनाव में हार गए. उन्हें हराने वाले लेबर पार्टी के नेता और आईडीएफ़ में उनके पूर्व कमांडर रहे एहूद बराक थे. इसके बाद नेतन्याहू ने लिकुड पार्टी के नेता के रूप में इस्तीफ़ा दे दिया और अरियल शेरॉन के उत्तराधिकारी बने, जो साल 2001 में प्रधानमंत्री चुने गए थे.
शेरॉन सरकार के दौरान नेतन्याहू ने बतौर विदेश मंत्री काम किया और वह वित्त मंत्री भी रहे. लेकिन बाद में उन्होंने ग़ज़ा पट्टी से सैनिको और वहाँ रहने वाले इसराइलियों की वापसी के विरोध में कैबिनेट पद से इस्तीफ़ा दे दिया.
इसके बाद उन्होंने दोबारा से लिकुड पार्टी का रुख़ किया और पार्टी का नेतृत्व हासिल किया. नेतृत्व वापस पाने के साथ ही वह साल 2009 में दूसरी बार प्रधानमंत्री चुने गए.
साल 2009 में वह फ़लीस्तीनियों के साथ शांति वार्ता को आगे बढ़ाने के लिए वेस्ट बैंक में इसराइली बस्तियों के निर्माण पर 10 महीने की रोक के लिए सहमत हुए और सार्वजनिक रूप से इसराइल के साथ ही एक फ़लीस्तीनी राष्ट्र की अपनी सशर्त स्वीकृति की घोषणा भी की, लेकिन यह सबकुछ साल 2010 में विफल हो गया.
इसके बाद साल 2015 में उन्होंने चुनावों से ठीक पहले फ़लीस्तीनी राष्ट्र की अपनी प्रतिबद्धता को छोड़ते हुए कहा कि अग वह प्रधानमंत्री चुने जाते हैं, तो फ़लस्तीनी राष्ट्र की स्थापना नहीं होगी.
फ़लीस्तीनी मुद्दों को लेकर तत्कालिक अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के साथ नेतन्याहू के संबंध तनावपूर्ण रहे. उनके बीच ईरान को लेकर भी मतभेद भी थे. साल 2015 में जब उन्होंने कांग्रेस को संबोधित किया और ईरान के साथ उनकी परमाणु डील की आलोचना की. उन्होंने इसे एक बेहद ख़राब डील कहा था. अपने संबोधन में उन्होंने कहा था कि इससे ईरान को परमाणु हथियार प्राप्त करने की अनुमति मिल जाएगी.
लेकिन उसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साथ उनके रिश्ते बेहतर रहे. डोनाल्ड ट्रंप की नीतियों के कारण नेतन्याहू और उनके बीच निकटता रही. इस दौरान उन्हें राजनीतिक और कूटनीतिक लाभ भी मिले.
उनकी नीतियों और निकटता के कारण यरुशलम को इसराइल की राजधानी के रूप में मान्यता और क़ब्ज़े वाले गोलन हाइट्स पर इसराइल की संप्रभुता को मान्यता मिली और इसके साथ कई दूसरे राजनीतिक लाभ भी.
इस निकटता के तहत ही साल 2020 में नेतन्याहू ने इसराइल और फ़लीस्तीनियों के बीच शांति के लिए प्रस्तावित ट्रंप के प्रस्ताव का भी स्वागत किया.
उन्होंने अमेरिका के ईरान के साथ परमाणु समझौते से ख़ुद को अलग करने और ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाने के ट्रंप प्रशासन के फ़ैसले की भी काफी सराहना की थी.
उसी साल, ट्रंप प्रशासन ने इसराइल, संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के बीच मध्यस्थता भी की. जिसे नेतन्याहू ने मध्य-पूर्व में शांति-बहाली के प्रयासों के तौर पर एक बड़ी सफलता कहा था. बाद में मोरक्को और सूडान को लेकर भी ऐसे ही समझोचे किए गए.
नेतन्याहू पर एक लंबे समय से भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे. एक लंबी जाँच प्रक्रिया के बाद साल 2019 नवंबर में उन पर रिश्वत लेते, धोखाधड़ी और धांधली के तीन अलग-अलग मामलों में आरोप तय किए गए. उन पर महंगे उपहार लेने और अपने पक्ष में मीडिया कवरेज कराने के बदले फ़ेवर देने के भी आरोप हैं.
हालांकि नेतन्याहू अपने ऊपर लगने वाले हर तरह के आरोप से इनक़ार करते हैं. उनका कहना है कि उन पर लगाए गए आरोप राजनीति से प्रेरित हैं. वे दावा करते हैं कि उनके विरोधियों ने तख़्तापलट के उद्देश्य से ऐसे आरोप लगाए.
मई 2020 में उनके ख़िलाफ़ लगे आरोपों पर कार्रवाई शुरू हुई. वह ऐसे पहले इसराइली प्रधानमंत्री बने, जिन पर सत्ता में रहने के दौरान भ्रष्टाचार के आरोपों के तहत कार्रवाई हुई.
नेतन्याहूपर आरोप और उनका जवाब
ओबामा प्रशासन के शांति वार्ता को दोबारा से शुरू करने के प्रयासों के तहत नेतन्याहू ने साल 2009 में अपने एक भाषण में फ़लीस्तीनी राष्ट्र को सशर्त स्वीकार कर लिया था.
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उन्होंने कहा था, "अगर असैन्यीकरण की गारंटी मिलती है और इसराइल की आवश्यकता के अनुरूप सुरक्षा व्यवस्था मिलती है और अगर फ़लीस्तीनी इसराइल को एक यहूदी लोगों के राष्ट्र के तौर पर स्वीकार करते हैं, तो हम भविष्य में शांति समझौते के तहत समाधान तक पहुँचने के लिए तैयार होंगे."
हालाँकि साल 2015 में चुनाव से ठीक पहले नेतन्याहू अपने बयान से पीछे हट गए.
https://www.youtube.com/watch?v=AMwyyfCioaU
ओबामा के प्रयासों पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने बाद में कहा था- मुझे लगता है कि जो कोई भी फ़लीस्तीनी राष्ट्र की स्थापना करने जा रहा है और क्षेत्र से पीछे हट रहा है, वो इसराइल के ख़िलाफ़ हमले के लिए चरमपंथी इस्लाम को एक ज़मीन प्रदान कर रहा है.
साल 2019 में अपने ख़िलाफ़ लगे भ्रष्टाचार के आरोपों पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था- हम एक प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ एक साज़िश के तहत की जा रही जाँच प्रक्रिया के आधार पर तख़्तापलट की कोशिश को साफ़ देख पा रहे हैं. मैं किसी क़ीमत पर झूठ को जीतने नहीं दूँगा.
उन्होंने कहा था, "हम सभी की सुरक्षा और भविष्य की ज़िम्मेदारी के तहत मैं देश का नेतृत्व करना जारी रखूँगा. इस झूठी जाँच प्रक्रिया में वो कोई सच्चाई नहीं खोज रहे उनका मक़सद सिर्फ़ मेरे पीछे पड़ना है."
नेतन्याहू के बारे में दूसरे क्या कहते हैं?
हारेत्ज़ अख़बार के राजनीतिक विश्लेषक योसी वर्तर नेतन्याहू की विदाई पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, "आज शाम को शपथ लेने वाली सरकार पूरी तरह से नेतन्याहू के कामों, विफलताओं, उनके अहंकार और धोखे का परिणाम है. सिर्फ़ नेतन्याहू ही ऐसे विरोधाभासी चममपंथियों को एक उद्देश्य के लिए एकजुट कर सकते हैं. उनकी विदाई के बाद वो सामान्यता बहाल हो सके जो हमने खो दी थी, राजनीतिक स्थिरता बहाल हो सके और एक बुरे दौर से बाहर आ सकें."
नई गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री बने अति-राष्ट्रवादी नेफ़्टाली बेनेट ने गठबंधन पर सहमति बनने के बाद अपने एक बयान में नेतन्याहू को संबोधित करते हुए कहा था, "जाने दें, देश को आगे बढ़ने दें. लोगों को सरकार बनाने के पक्ष में वोट डालने की अनुमति है. अपने पीछे एक बंजर धरती को छोड़कर मत जाइए. आपके कार्यकाल के दौरान आपने जो भी बेहतर काम किया देश उसे याद रखना चाहेगा ना कि एक ख़राब माहौल को."
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