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निपाह वायरस: जानलेवा संक्रमण जिसकी वैक्सीन नहीं, क्या ये बन सकता है अगली महामारी की वजह?

दुनिया का ध्यान इस वक्त कोविड-19 महामारी पर है. वहीं कुछ वैज्ञानिक अगली महामारी को रोकने के लिए दिन रात मेहनत में लगे हैं. क्या वो आने वाली अगली महामारी को रोकने में कामयाब हो पाएंगे?

By BBC News हिन्दी
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निपाह वायरस
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निपाह वायरस

वो 3 जनवरी 2020 का दिन था. सुपापोर्ण वकाराप्लेसादी डिलीवरी मिलने का इंतजार कर रहीं थीं. दुनियाभर में ख़बर फैल चुकी थी कि चीन के वुहान में रहस्यमयी वायरस की वजह से लोगों में सांस लेने की बीमारी फैल रही है.

चीन में नव वर्ष की छुट्टियां होने वाली थीं और बहुत से चीनी पर्यटक जश्न मनाने के लिए थाइलैंड आने वाले थे. सावधानी बरत रही थाइलैंड सरकार ने वुहान से आने वाले पर्यटकों को एयरपोर्ट पर स्क्रीन करना शुरू कर दिया था. उनसे लिए गए सैंपल को चुनिंदा लैब में भेजा जा रहा था.

सुपापोर्ण की लैब भी इनमें शामिल थी. उनका काम था सैंपल को प्रोसेस करना और समस्या का पता लगाना.

सुपापोर्ण एक सुपर वायरस हंटर हैं. वो बैंकॉक में थाई रेड क्रॉस इमरजिंग इंफेक्सियस डिसीज़ हेल्थ सेंटर चलाती हैं. वो बीते सालों से प्रेडिक्ट कार्यक्रम से जुड़ी हैं जिसका काम भविष्य की महामारियों का पता लगाना और उन्हें रोकना है.

उनकी टीम ने कई प्रजातियों के सैंपल लिए हैं लेकिन उनका मुख्य काम चमगादड़ों पर ही है. माना जाता है कि चमगादड़ों में कई तरह के कोरोना वायरस रहते हैं.

अपनी टीम से बात करतीं सुपापोर्ण
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अपनी टीम से बात करतीं सुपापोर्ण

उनकी टीम ने कुछ ही दिन में वायरस का पता लगा लिया और चीन के बाहर कोरोना संक्रमण के पहले मामले की पुष्टि की.

उन्हें पता चला कि ये नया वायरस अब तक इंसानों में नहीं था और ये उन कोरोना वायरस से मिलता जुलता हो सकता है जो उन्होंने पहले ही चमगादड़ों में खोजे थे.

इतनी जल्दी मिली जानकारी की वजह से सरकार संक्रमितों को क्वारंटीन कर पाई और आम लोगों को सही सलाह दे पाई.

थाइलैंड की आबादी क़रीब सात करोड़ है. इसके बावजूद 3 जनवरी 2021 तक थाइलैंड में कोरोना संक्रमण के सिर्फ़ 8955 मामले सामने आए हैं और यहां इस संक्रमण की वजह से सिर्फ़ 65 मौतें ही हुई हैं.

महामारी
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महामारी

अगला बड़ा ख़तरा?

दुनिया कोरोना संक्रमण के जाल से निकलने की कोशिश कर रही है और उधर सुपापोर्ण और उनकी टीम अगली महामारी की तैयारियां कर रहे हैं.

एशिया में संक्रामक रोक अधिक संख्या में हैं. गर्म वातावरण की वजह से यहां जीवों की प्रजातियां भी ज़्यादा हैं जिसका एक मतलब ये भी है कि यहां पैथोजेन (रोगज़नक़) भी बड़ी तादाद में हैं और इसी वजह से यहाँ नए वायरस के सामने आने का ख़तरा भी अधिक रहता है. बढ़ती आबादी और इंसानों और जानवरों के बीच बढ़ते संपर्क से जानवरों से वायरस के इंसानों में आने का ख़तरा भी बढ़ा है.

सुपापोर्ण और उनकी टीम ने बड़ी तादाद में चमगादड़ों पर परीक्षण किए हैं. उन्होंने हज़ारों चमगादड़ों के सैंपल लिए हैं. इस दौरान उन्होंने कई वायरस भी खोजे हैं. इनमें से अधिकतर कोरोना वायरस हैं. कुछ ऐसे ख़तरनाक रोग भी हैं जो जानवरों से इंसानों में आ सकते हैं.

इनमें निपाह वायरस भी शामिल है. फ्रुट बैट्स या चमगादड़ों में ये प्राकृतिक तौर पर मिलता है.

चमगादड़
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चमगादड़

सुपापोर्ण कहती हैं, 'सबसे बड़ी चिंता की बात ये है कि इसका कोई इलाज नहीं है.'

सुपापोर्ण के मुताबिक इस वायरस से संक्रमित लोगों में 40 से 75 फ़ीसदी तक की मौत हो जाती है. ये इस बात पर निर्भर करता है कि संक्रमण कहाँ फैला है.

निपाह के ख़तरे को लेकर सिर्फ़ सुपापोर्ण ही चिंतित नहीं हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन हर साल उन पैथोजेन की समीक्षा करता है जो बड़ी महामारी का कारण बन सकते हैं. ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि रिसर्च के फंड को सही जगह लगाया जा सके और ख़तरनाक वायरस पर पहले ही शोध किया जा सके.

सबसे ज़्यादा ध्यान उन वायरस पर दिया जाता है जो इंसानों के स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़ा ख़तरा होते हैं. जिनमें महामारी बनने की संभावना होती है और जिनका कोई इलाज नहीं होता.

निपाह वायरस डब्ल्यूएचओ के शीर्ष दस वायरस में शामिल है. एशिया में पहले ही वायरस के कई संक्रमण हो चुके हैं, ऐसे में ये भी नहीं कहा जा सकता है ये वायरस की सूची का अंत है.

निपाह के ख़तरनाक होने के कई कारण हैं. इसका इंक्यूबेशन पीरियड (संक्रामक समय) बहुत लंबा है, एक मामले में तो ये 45 दिन था. इसका मतलब ये है कि कई बार संक्रमित व्यक्ति, जिसे शायद पता ही ना हो कि वो संक्रमित है, अनजाने में इसे लोगों में फैला सकता है.

इससे जानवरों की कई प्रजातियां भी संक्रमित हो सकती हैं जिससे इसके और ज्यादा फैलने का ख़तरा बढ़ जाएगा. साथ ही ये वायरस सीधे संपर्क के अलावा दूषित भोजन करने से भी हो सकता है.

निपास से संक्रमित कुछ लोगों में सांस लेने में तकलीफ, खांसी, थकान और दर्द और एनसीफिलाइटिस जैसे लक्षण दिख सकते हैं. एनसीफिलाइटिस होने पर दिमाग में सूजन आने से मौत तक हो सकती है.

ख़तरा हर जगह है

उत्तर पश्चिमी कंबोडिया में सांगके नदी पर बसे बाटमबैंग शहर के एक बाज़ार में महिलाएं फल और सब्ज़ियां बेच रही हैं. पहली नज़र में ये सामान्य बाज़ार ही लगता है लेकिन ध्यान से देखने पर यहां वयारस का ख़तरा मंडराता दिखता है.

ऊपर पेड़ों पर शांति से फ्रूट बैट (चमगादड़) लटक रहे हैं. वो नीचे जा रहे लोगों पर बीट और पेशाब करते हैं. बाज़ार की दुकानों की छतों पर बीट इकट्ठा हो गई है.

वीएसना डांग कहते हैं कि आम लोग और गली के कुत्ते रोजाना यहां से गुजरते हैं और उन पर चमगादड़ के पेशाब के गिरने का ख़तरा बना रहता है.

डांग पनोम पेन में साइंटीफिक रिसर्च लैब के प्रमुख हैं और वो सुपापोर्न की लैब के साथ मिलकर काम करते हैं.

डांग ने कंबोडिया के ऐसे कई इलाकों की पहचान की है जहां जानवर और इंसान चमगादड़ों के सीधे संपर्क में आते हैं. बाटमबैंग बाज़ार उनमें से एक है.

उनकी टीम चमगादड़ों और इंसानों के बीच नज़दीकी संपर्क के हर मौके को वायरस फैलने के मौके के तौर पर देखती है. वो मानते हैं कि इस दौरान संक्रमण के फैलने की संभावना हमेशा बनी रहती है.

डांग कहते हैं, इस तरह का संपर्क वायरस को अपना रूप बदलने का मौका भी दे सकता है और इससे एक नई महामारी की शुरुआत हो सकती है.

ख़तरे के बावजूद चमगादड़ों और इंसानों के करीब आने के मौके के अनगिनत हैं.

डांग कहते हैं कि हम यहां (कंबोडिया) और थाइलैंड में फ्रूट बैट चमगादड़ों पर नजर रखते हैं. बाज़ारों, स्कूलों, धार्मिक स्थलों और अंकोर वाट जैसे पर्यटन स्थलों पर हमारी नज़र रहती है.

डांग कहते हैं, अंकोर वाट में तो चमगादड़ों की बड़ी कॉलोनियां हैं. एक सामान्य वर्ष में 26 लाख से अधिक पर्यटक अंकोर वाट आते हैं.

डांग कहते हैं, ऐसे में सिर्फ़ अंकोर वाट में ही निपाह वायरस के इंसानों में आने के 26 लाख मौके होते हैं. ये सिर्फ एक जगह का आंकड़ा है.

2013 से 2016 के बीच डांग और उनकी टीम ने चमगादड़ों और निपाह वायरस को समझने के लिए चमगादड़ों को जीपीएस डिवाइस के ज़रिए ट्रैक किया था.

उन्होंने कंबोडिया की चमगादड़ों को भारत और बांग्लादेश की चमगादड़ों के साथ तुलनात्मक अध्ययन भी किया.

बांग्लादेश और भारत दोनों में ही निपाह संक्रमण के मामले सामने आए हैं. दोनों ही जगह इस संक्रमण को खजूर का जूस पीने से जोड़कर देखा गया था.

रात में संक्रमित चमगादड़ खजूर के पेड़ पर फल खाने जाते थे और वहीं जूस इकट्ठा करने के लिए रखे गए बर्तन में पेशाब कर देते थे.

इस बात से अनभिज्ञ आसपास के लोग सड़क पर जूस बेच रहे लोगों से जूस पी लेते और संक्रमण उनमें पहुंच जाता.

साल 2001 से 2011 के बीच बांग्लादेश में निपाह संक्रमण के 11 मामले आए जिनमें 196 लोग संक्रमित हुए. इनमें से 150 की मौत हो गई थी.

खजूर का जूस कंबोडिया में भी खासा लोकप्रिय है. डांग और उनकी टीम ने पता लगाया है कि कंबोडिया में चमगादड़ फलों की तलाश में हर रात सौ किलोमीटर तक का सफ़र करते हैं.

वो कहते हैं कि इन इलाक़े के लोगों को सिर्फ़ चमगादड़ों से नज़दीकी संपर्क को लेकर ही नहीं बल्कि उन फलों को खाने को लेकर भी चिंतित होना चाहिए जिन्हें चमगादड़ों ने दूषित किया हो सकता है.

कंबोडिया और थाइलैंड के ग्रामीण इलाक़ों में चमगादड़ों की बीट से खाद भी बनाया जाता है जिसे स्थानीय भाषा में गुआनो कहा जाता है.

ये स्थानीय लोगों के लिए कमाई का एक महत्वपूर्ण ज़रिया भी है. डांग ने ऐसे कई इलाक़ों का पता लगाया है जहां स्थानीय लोग चमगादड़ों को अपने घरों के पास रहने के लिए आकर्षित करते हैं ताकि वो उनकी बीट को खाद के तौर पर बेच सकें.

लेकिन गुआनो बेचने वाले बहुत से लोगों को इससे जुड़े ख़तरों के बारे में कुछ पता नहीं है. डांग कहते हैं कि जिन लोगों को उन्होंने साक्षात्कार किए हैं उनमें से साठ प्रतिशत को नहीं पता है कि चमगादड़ों से बीमारियों हो सकती हैं और उनके संपर्क में आने से ख़तरा हो सकता है.

बाटमबैंग बाज़ार में बतख के अंडे बेच हरहीं सोपोर्ण डेयून से जब चमगादड़ों से जुड़े ख़तरों के बारे में पूछा गया तो उनका कहना था कि गांव के लोग इनकी कोई परवाह नहीं करते हैं, मैं कभी इनके संपर्क में आने से बीमार नहीं पड़ी हूं.

डांग कहते हैं कि स्थानीय लोगों को चमगादड़ों के बारे में जागरूक करने का अभियान चलाया जाना चाहिए.

बदलती हुई दुनिया

मानव इतिहास में ऐसा दौर भी रहा है जब चमगादड़ों से दूर रहना आसान था. लेकिन इंसान दुनिया को बदलता जा रहा है और जानवरों के रहने के ठिकाने नष्ट होते जा रहे हैं. ऐसा करने से नई बीमारियां भी इंसानों में फैल रही हैं.

जानवरों से इंसानों में फैलने वाली बीमारियों पर 2020 यूनिवर्सिटी ऑफ़ एक्सटर रिव्यू में प्रकाशित एक समीक्षा लेख में लेखिका रीबेका जे व्हाइट और ऑर्ली रेज़गौर ने लिखा था, 'ज़मीनों के इस्तेमाल में हो रहे बदलाव से जानवरों की बीमारियों के इंसानों में आने की दर बढ़ रही है. जंगल काटे जाने, शहरों का विस्तार होने और कृषि का इलाक़ा बढ़ना इसका कारण हैं.'

दुनिया की 60 प्रतिशत आबादी एशिया प्रशांत क्षेत्र में रहती हैं जहां अब भी बड़े पैमाने पर शहरीकरण हो रहहा है. विश्व बैंक के डाटा के मुताबिक साल 2000 से 2010 के बीच पूर्वी एशिया में बीस करोड़ लोग शहरों में आकर बसे.

चमगादड़ों के प्राकृतिक निवास स्थानों के नष्ट होने से पहले भी निपाह संक्रमण हो चुका है. साल 1998 में मलेशिया में हुए निपाह संक्रमण से 100 से ज़्यादा लोग मारे गए थे.

शोधकर्ता इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि जंगल काटे जाने और प्राकृतिक निवास स्थानों के नष्ट होने की वजह से चमगादड़ फलों के बाग़ानों की तरफ़ गए थे. इनमें सूअर भी पाले जा रहे थे. ये देखा गया है कि चमगादड़ जब तनाव में होते हैं तो वो वायरस छोड़ते हैं.

चमगादड़ों को अपनी जगह छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा और जिस नई जगह वो गए वहां उनका संपर्क ऐसे जानवर से हुआ जिसके संपर्क में आमतौर पर वो नहीं रहते थे. इन नई परिस्थितियों में वायरस चमगादड़ों से सूअर में आ गया और फिर सूअर से इंसानों में.

दुनिया भर के 15 प्रतिशत उष्णकटिबंधीय वन एशिया में है लेकिन इस इलाक़े में बड़े पैमाने पर जंगल भी काटे जा रहे हैं. दुनिया में जैव-विविधता को सबसे ज़्यादा नुकसान एशिया में ही हो रहा है. इसकी बड़ी वजह जंगलों को काटा जाना हैं. मलेशिया में ही नारियल की खेती के लिए बड़े पैमाने पर वन काटे जा रहे हैं.

फ्रूट बैट्स आम तौर पर फलों से लदे घने जंगलों में रहते हैं जहां उनके पास खाने के लिए पर्याप्त फल होते हैं. जब उनके घर को नष्ट कर दिया जाता है तो वो अपना पेट भरने के नए तरीके निकालते हैं.

वो घरों में रहने लगते हैं या अंकोर वाट जैसी जगहों में बस जाते हैं.

डांग कहते हैं, जिन चमगादड़ों को हमने रोज़ाना सौ किलोमीटर से अधिक का सफर करते देखा है उनके ऐसा करने का एक कारण ये भी है कि उनके प्राकृतिक निवास स्थानों को नष्ट कर दिया गया.

अब हम ये जानते हैं कि चमगादड़ों में कई भयानक बीमारियों के वायरस होते हैं. जैसे कोविड-19, निपाह, सार्स और इबोला.

ऐसे में सवाल उठता है कि क्यों न चमगादड़ों से छुटकारा ही पा लिया जाए? लेकिन ऐसा करने से हालात और अधिक खराब ही होंगे.

वन हेल्थ इंस्टीट्यूट लैब से जुड़ीं और प्रेडिक्ट प्रोजेक्ट की लैब निदेशक ट्रेसी गोल्डस्टीन कहती हैं कि चमगादड़ों को मारने के परिणाम भयानक होंगे.

गोल्डस्टीन कहती हैं, 'परिस्थितिक तंत्र में चमगादड़ अहम भूमिका निभाते हैं. वो पांच सौ से अधिक प्रजाति के पेड़ों का पॉलीनेशन (परागण) करते हैं. वे कीड़े खाकर उनकी आबादी को भी नियंत्रित करते हैं. ये मलेरिया जैसी बीमारियों के नियंत्रण में बेहद अहम हैं.'

गोल्डस्टीन के मुताबिक चमगादड़ मानवों के स्वास्थ्य में भी अहम भूमिका निभाते हैं. वो कहती हैं कि यदि चमगादड़ों को मारा गया तो उन पर अपनी आबादी को बढ़ाने का और दबाव आ जाएगा और इससे इंसानों के लिए ख़तरा बढ़ेगा ही.

वो कहती हैं, 'जानवरों के मारने से ख़तरा बढ़ता ही है क्योंकि इससे वायरस छोड़ने वाले जानवरों की संख्या भी बढ़ जाती है.'

डांग की टीम सवालों के जवाब तलाशती है और फिर और सवाल खड़े हो जाते हैं जैसे अभी तक कंबोडिया में निपाह का कोई संक्रमण क्यों नहीं हुआ है? क्या ये सिर्फ़ समय की बात है या फिर कंबोडिया के चमगादड़ मलेशिया के चमगादड़ों से अलग हैं. या कंबोडिया में जो वायरस है वो मलेशिया से अलग है? या फिर जिस तरीके से दोनों देशों में इंसानों का चमगादड़ों से संपर्क है वो अलग है?

डांग की टीम इन सवालों के जवाब तलाशने पर काम कर रही है लेकिन उन्हें अभी जवाब नहीं पता हैं, और डांग की टीम इन सवालों के जवाब की तलाश में अकेले नहीं है. वायरस को पहचानना दुनिया का एक बड़ा साझा प्रयास है जिसमें दुनिया भर के वैज्ञानिक जुटे हैं. बीमारियों को पहचानने की इस कोशिश में सिर्फ़ वैज्ञानिक ही शामिल नहीं है बल्कि आम लोग भी अपनी भूमिका निभा रहे हैं.

जब डांग को किसी चमगादड़ के सैंपल में निपाह वायरस मिलता है तो वो उसे डेविड विलियम को भेजते हैं. विलियम ऑस्ट्रेलियन सेंटर फॉर डिसीज़ प्रीपेयर्डनेस में इमरजेंसी डिसीज़ लैब के प्रमुख हैं.

निपाह वायरस इतना ख़तरनाक है कि दुनियाभर की सरकारें इसे जैविक हथियार के तौर पर भी देखती हैं. दुनिया के कुछ ही देशों की लैब में इस वायरस को रखने और समझने की अनुमति है.

विलियम की लैब इनमें से एक है. उनकी टीम निपाह वायरस पर दुनिया के शीर्ष विशेषज्ञों में शामिल है. उनके पास ऐसे उपकरण हैं जो अधिकतर लैब में मौजूद नहीं हैं.

वो वायरस के सैंपल से और वायरस पैदा कर लेते हैं और फिर उन पर परीक्षण करके उसे समझते हैं. वो जानने की कोशिश करते हैं कि ये वायरस कैसे फैलता है और किस तरह लोगों को बीमार करता है.

विलियम अपनी लैब में प्राप्त नतीजों को डांग के साथ साझा करते हैं. मैंने विलियम से पूछा कि क्या उनके जैसे लैब का नेटवर्क विकसित करने से इस काम में तेज़ी आएगी तो वो कहते हैं, 'कंबोडिया जैसी जगहों में ऐसी लैब स्थापित करने से निश्चित तौर पर मदद मिलेगी लेकिन इन्हें बनाना और फिर चलाए रखना बहुत महंगा काम है और शायद इसी वजह से हमारी क्षमताएं सीमित हैं.'

हाल के सालों में डांग और सुपापोर्ण जैसे वैज्ञानिकों को काम करने के लिए पर्याप्त फंड भी नहीं मिल पा रहा है.

ट्रंप प्रशासन ने दस सालों के लिए चल रहे प्रेडिक्ट कार्यक्रम को समाप्त होने दिया. हालांकि जो बाइडेन ने इस कार्यक्रम के लिए फिर से फंड जारी करने का भरोसा दिया है.

इसी बीच सुपापोर्ण को एक नए प्रोजेक्ट के लिए फंड मिला है जिसका नाम है थाई वायरोम पोर्जेक्ट. इसके तहत वो सरकार के नेशनल पार्क, वन्यजीव और प्लांट कंज़रवेशन विभाग के साथ मिलकर काम कर रही हैं. इससे सुपापोर्ण बड़े पैमाने पर चमगादड़ों और अन्य जानवरों के सैंपल ले सकेंगी और पता लगा सकेंगी कि उनमें इंसान के लिए ख़तरा हो सकने वाले कौन-कौन से वायरस हैं.

डांग और उनकी टीम पैथोजेन की पहचान के लिए अगली ट्रिप के लिए फंड की तलाश में हैं. वो कंबोडिया में चमगादड़ों पर नज़र रखना जारी रखना चाहते हैं. वो पता लगाना चाहते हैं कि कंबोडिया में अभी तक निपाह संक्रमण का कोई मामला सामने क्यों नहीं आया है.

डांग और उनकी टीम को अभी पैसा नहीं मिला है. वो निपाह वायरस पर नज़रें बनाए रखना चाहते हैं लेकिन पैसों की कमी से इस काम में बाधा आ सकती है. और शायद वो महामारी के ख़तरे को समय रहते ना पहचान पाएं.

डांग कहते हैं, 'लंबे समय के निगरानी कार्यक्रम से हमें मदद मिलती है, हम प्रशासन को सही समय पर जानकारी दे पाते हैं ताकि निरोधात्मक क़दम उठाए जा सकें और बड़े संक्रमण को रोका जा सके.'

वो कहते हैं, बिना प्रशिक्षण के वैज्ञानिकों को नए वायरस की जल्दी पहचान करने में भी दिक्कतें आएंगी.

सुपापोर्ण ने थाइलैंड में कोविड-19 वायरस को बहुत जल्दी पहचान लिया था.

डांग और सुपापोर्ण जैसे वैज्ञानिक जो जानकारियां जुटाते हैं उससे वैक्सीन का काम शुरू करने में भी मदद मिलती है.

जब जून में एक वीडियो कॉल पर मैंने सुपापोर्ण से बात की थी और पूछा था कि क्या उन्हें अपने काम पर गर्व है तो उन्होंने कहा था कि उन्हें अपनी टीम के काम पर बहुत गर्व है.

वो कहती हैं, 'प्रेडिक्ट प्रोजेक्ट जंगली जानवरों में वायरसों की पहचान का एक अभ्यास था. जब मुझे और मेरी टीम को कोरोना वायरस पैथोजन का सैंपल मिला तो हम बहुत हैरान नहीं हुए. रिसर्च प्रोजेक्ट की वजह से हमारे पास पहले से ही पर्याप्त अनुभव था. इसने हमारी क्षमता को बढ़ा दिया था.'

डांग और सुपापोर्ण को उम्मीद है कि निपाह के ख़िलाफ़ लड़ाई में वो मिलकर काम करते रहेंगे. पूर्वी एशिया में निपाह वायरस पर नज़र रखने के लिए दोनों ने एक प्रोजेक्ट का ड्राफ्ट भी तैयार कर लिया है. वो इसे कोविड-19 संकट के बाद अमेरिका की डिफेंस थ्रेट रिडक्शन एजेंसी के समक्ष पेश करना चाहते हैं. अमेरिका की ये एजेंसी संक्रामक रोगों से होने वाले ख़तरों पर नज़र रखती है.

सितंबर 2020 में मैंने सुपापोर्ण से पूछा था कि क्या वो अगली महामारी को रोकने में कामयाब हो पाएंगी.

वो सफेद कोट पहने अपनी लैब में बैठी थीं. उन्होंने कोविड-19 के हज़ारों सैंपल का अध्ययन किया था, ये उनकी लैब की क्षमता से अधिक था. इस सबके बावजूद उनके चेहरे पर चौड़ी मुस्कान फैल गई थी.

उन्होंने हंसते हुए कहा था, 'हम कोशिश करेंगे.'

इस रिपोर्ट में कंबोडिया से मोरा पाइसेथ ने सहयोग किया है.

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English summary
will Nipah virus become the reason for next pandemic
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