तालिबान का समर्थन चीन क्यों कर रहा है और ये भारत के लिए काफी खतरनाक कैसे बन गया है?
चीन और तालिबान अपने अपने फायदे के लिए एक दूसरे का समर्थन करते हैं। तालिबान का समर्थन कर चीन नैतिक सिद्धांतों के सभी दायरे को तोड़ चुका है।
काबुल, सितंबर 14: तालिबान की वापसी को न केवल पाकिस्तान के लिए बल्कि चीन के लिए भी एक जीत के रूप में माना गया है। जबकि पाकिस्तान ने हमेशा तालिबान का समर्थन किया है, और चीन 2019 के आसपास तालिबान के लिए हमदर्द और दोस्त और एक बड़े भाई के तौर पर सामने आ गया। 2019 में तालिबान के एक प्रतिनिधिमंडल ने अफगानिस्तान को लेकर चीन के विशेष प्रतिनिधि देंग ज़िजुन से मिलने के लिए बीजिंग का दौरा किया था। जिसमें तालिबान और चीन ने संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ तालिबान की शांति वार्ता पर चर्चा की। लेकिन, अब तालिबान और चीन की ये दोस्ती भारत के लिए काफी खतरनाक साबित होती नजर आ रही है।
चीन-तालिबान का याराना
तालिबान के प्रवक्ता सुहैल शाहीन ने तब ट्विटर पर कहा था कि, चीन ने अमेरिका-तालिबान के बीच अभी तक होने वाले समझौते को "अफगान मुद्दे के शांतिपूर्ण समाधान के लिए एक अच्छा ढांचा" पाया है। शाहीन ने यह भी दावा किया कि "वे (चीन) इसका समर्थन करते हैं"। कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका के साथ वार्ता में तालिबान का नेतृत्व करने वाले मुल्ला बरादर उस तालिबानी प्रतिनिधिमंडल में शामिल था, जिसने चीन का दौरा किया था, इसकी पुष्टि चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता गेंग शुआंग ने की थी। अब, चीन ने अफगानिस्तान में तालिबान के साथ उलझने और तालिबान को मुख्यधारा में लाने के लिए दुनिया को प्रोत्साहित करने के लिए जो तेज गति से कदम उठाया है, और तालिबान का चीन को अपनी सरकार के उद्घाटन के लिए निमंत्रण देना साफ इशारा कर रहे हैं कि चीन और तालिबान अब एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हो चुके हैं।
तालिबान के लिए चीन की प्लानिंग
ऐसा लगता है कि पाकिस्तान और चीन दोनों ने अमेरिका-तालिबान सौदे में तालिबान की स्थिति और उसके बाद अफगानिस्तान के अधिग्रहण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। आतंकवाद को सहायता देने में पाकिस्तान के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए निकट भविष्य में तालिबान की अंतरराष्ट्रीय स्वीकृति मिलने की संभावना नहीं थी। जिसके बाद चीन ने अपनी स्वीकारोक्ति और अपनी शक्ति को भुनाने की कोशिश की है और जब रूस भी चीन के साथ ही है, तो ऐसा लग रहा है की चीन और रूस की मदद से तालिबान कुछ हद तक अंतर्राष्ट्रीय समर्थन हासिल कर सकता है।
लेकिन तालिबान के साथ क्यों है चीन?
कुछ चीनी विश्लेषकों ने चीन के तालिबान के समर्थन को राजनीतिक लाभ पाने की कोशिश और चीन का अपनी वैश्विक शक्ति के तौर पर दिखाने की बात को माना है। जिसमें तालिबान और चीन, दोनों को एक दूसरे की जरूरत है। चीन उइगर बहुल शिनजियांग क्षेत्र में आतंकवाद से चिंतित है। आपको बता दें कि ईस्ट तुर्कमेनिस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ETIM) एक उइगर इस्लामिक कट्टरपंथी संगठन है जो चीन-अफगानिस्तान सीमा क्षेत्रों से संचालित होता है। चीनी सेना द्वारा पकड़े जाने से बचने के लिए ईटीआईएम विद्रोही अफगानिस्तान भाग जाते हैं, जिसके बदख्शां प्रांत में अभी भी लगभग 400-700 लड़ाके हैं। तालिबान को अपने समर्थन के बदले में चीन ने उससे आश्वासन मांगा है कि वे ईटीआईएम को अफगानिस्तान से संचालित नहीं होने देंगे। तालिबान ने अब चीन से कहा है कि उसने ईटीआईएम के गुर्गों को चीन में धकेल दिया है, जहां उसके सुरक्षा बल विद्रोहियों से निपट सकते हैं।
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अफगानिस्तान में दुर्लभ खनिज संपदा
चीन को पता चल चुका है कि अफगानिस्तान की धरती के अंदर जो दुर्लभ खनिज संपदा है, उससे चीन को आने वाले वक्त में अनुमान से ज्यादा फायदा होने वाला है। चीन अपने आर्थिक विस्तार के लिए अफगानिस्तान के गर्भ में सुरक्षित रखे गये खनिज संसाधन का बुरी तरह से दोहन कर सकता है। वो तालिबान को थोड़ा बहुत पैसा देकर अपनी आर्थिक विकास काफी तेजी से कर सकता है। ऐसा अनुमान है कि अफगानिस्तान में करीब एक ट्रिलियन के खनिज छिपे हुए हैं, जिसे निकालने के लिए तालिबान ने चीन को ऑफर दिया है। चीन के पास उच्च ऊंचाई वाले ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों से खनिज निकालने की तकनीक है। तालिबान का लक्ष्य चीनी की मदद से राजस्व अर्जित करना है। तालिबान को अपनी सरकार चलाने के लिए राजस्व की आवश्यकता है। लिहाजा, तालिबान के लिए चीन का ऑफर मानने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
सिर्फ चीन ही क्यों?
चीन संभवत: दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है, जो फायदे के लिए मानवीय सिद्धांतों को भी ठंडे बस्ते में डाल देता है। संयुक्त राष्ट्र में आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर के खिलाफ प्रतिबंधों को रोकने का चीन का ट्रैक रिकॉर्ड है। तालिबान को अपने पाले में रखते हुए चीन, अफगानिस्तान के माध्यम से अपनी प्रमुख परियोजना, चीन पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) का विस्तार कर सकता है, जिससे वह मध्य और पश्चिम एशिया में गहरी पैठ और पहुंच प्रदान कर सके।
अमेरिका को पीछे छोड़ने की उत्सुकता
तालिबान का समर्थन करने के लिए चीन के पास सबसे बड़ी वजहों में से एक वजह थी अमेरिका को पीछे छोड़ने की चाहत। वह अपने प्रमुख भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी, अमेरिका को अफगानिस्तान से पीछे हटाना चाहता था, क्योंकि पिछले 20 सालों से अमेरिका लगातार चीन के पीछे खड़ा था। 20 साल बाद अफगानिस्तान से हटने के अपने फैसले के साथ अमेरिका द्वारा खाली किए गए भू-राजनीतिक स्थान पर चीन के लिए उसे कब्जा करना काफी आसान हो गया है। इससे चीन को एशिया पर अपना प्रभाव मजबूत करने में मदद मिलती है। चीन को दक्षिण एशिया में भारत के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है, लेकिन अफगानिस्तान में तालिबान की सत्ता होने के कारण, चीन मध्य और पश्चिम एशिया में समीकरणों को बदलने का लक्ष्य बना सकता है।
भारत के लिए क्यों है खतरा ?
अफगानिस्तान में मौजूद अमेरिका से भारत को सबसे बड़ा फायदा ये था कि अमेरिका के रहते हुए पाकिस्तान समर्थित आतंकियों का मुकाबला करना काफी आसान था और अमेरिका अफगानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार का समर्थन कर रही थी। और अफगानिस्तान की लोकतांत्रिक सरकार पाकिस्तान समर्थित आतंकियों के लिए काफी ज्यादा सख्त थी। यही कारण है कि भारत ने अपने निवेश से अफगानिस्तान में सॉफ्ट पावर बनाने की कोशिश की। अफगानिस्तान में अमेरिकी उपस्थिति भी अपने आप में या वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) और भारत के साथ सीमाओं पर पाकिस्तान के समर्थन में चीनी आक्रामक डिजाइन के लिए एक बड़ी बाधा थी। अमेरिका के अफगानिस्तान छोड़ने के तुरंत बाद चीन ने भारत के साथ सीमाओं और एलएसी के प्रभारी सहित कई सैन्य कमांडरों को बदल दिया है और माना जा रहा है कि कुछ महीने में एक बार फिर से चीन के साथ काफी तनाव बढ़ सकता है।
पाकिस्तान को फायदा
अफगानिस्तान के घटनाक्रम से पाकिस्तान को भी फायदा हुआ है। पाकिस्तान ने पिछले 20 सालों में अफगानिस्तान में भारत के निवेश का उपहास करते हुए, भारत पर ताना मारकर अपनी खुशी जताई है। पाकिस्तान ने वास्तव में भारत के खिलाफ एक डोजियर तैयार किया है, जिसमें अन्य बातों के अलावा, इस्लामिक स्टेट को आश्रय देने का आरोप लगाया है, जो एक इस्लामिक जिहादी संगठन है और जो तालिबान के खिलाफ है। केंद्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में अशांति फैलाने के लिए पाकिस्तान, तालिबान को जम्मू-कश्मीर की ओर खींचने का इच्छुक है। यदि चीन और पाकिस्तान तालिबान के साथ जम्मू-कश्मीर में बंदूकें चलाने के लिए हाथ मिलाते हैं, तो इसके परिणामस्वरूप भारत की सुरक्षा स्थिति गंभीर रूप से बदल सकती है।
पाकिस्तान-तालिबान का याराना
पाकिस्तान सेना की इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) अफगानिस्तान में तालिबान को साधने की पूरी कोशिश कर रही है और एक तरह से तालिबान पाकिस्तान का पिट्ठू बन भी चुका है। तालिबान से निपटने के लिए भारत के पास विकल्प व्यावहारिक रूप से सीमित हैं, खासकर तब...जब भारत ने चीन की तरह अपनी नैतिकता को छोड़ने से साफ मना कर दिया है। और भारत का यही सिद्धांत बताता है कि, भारत ने अफगानिस्तान में अपने दूतावास और वाणिज्य दूतावास क्यों बंद कर दिए। हालांकि, 1996-2001 के पिछले तालिबान शासन के विपरीत, भारत ने तालिबान के साथ बातचीत संचार का एक चैनल खुला रखा है। यही कारण है कि तालिबान ने स्पष्ट रूप से कहा कि पाकिस्तान और भारत को उन्हें अपने मामलों में नहीं घसीटना चाहिए। ऐसे में ऊंट किस करवट बैठने वाला है ये देखने वाली बात है।
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