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भोपाल के नवाब जब पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने पहुँचे

पाकिस्तान की राजनीति का वो राज़ जो सालों तक सिर्फ़ तीन लोगों के बीच छिपा रह गया.

By फ़ारूक़ आदिल
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पाकिस्तान के पहले राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा
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पाकिस्तान के पहले राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा

1956 में जुलाई का महीना पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास में एक ख़ास महत्व रखता है. 'पाकिस्तान क्रॉनिकल'(संपादन अक़ील अब्बास जाफ़री) में 31 जुलाई की तारीख़ के संबंध में लिखा है कि उस दिन प्रधानमंत्री चौधरी मोहम्मद अली को उनके पद से हटाने के लिए साज़िशें ज़ोरों पर थीं और वो राजनीति में अकेले पड़ चुके थे.

प्रधानमंत्री जिस तरह की समस्याओं में घिरे चुके थे, वो अचानक नहीं हुआ था बल्कि उससे पहले 13 जुलाई को एक ऐसी घटना घटी थी, जिसकी वजह से प्रशासन पर सरकार का नियंत्रण ख़त्म हो गया था.

उस दिन कराची के कमिश्नर और गृह सचिव ने ख़ुफ़िया पुलिस के कार्यालय पर छापा मार कर मंत्रियों और सरकार के उच्च अधिकारीयों के टेलीफ़ोन रिकॉर्ड करने वाले उपकरण क़ब्ज़े में ले लिए थे.

इस घटना ने राजनीतिक स्थिरता को बुरी तरह प्रभावित किया. साथ ही देश के राजनीतिक नेतृत्व और ब्यूरोक्रेसी को सीढ़ी बना कर सत्ता में जगह बनाने वाले वर्ग के बीच पहले से मौजूद दरार को और बढ़ा दिया.

सत्ता में बने रहने के लिए नई-नई तरकीबें आज़माई जाने लगीं, उनमें से एक तरकीब चुनाव को स्थगित करना भी थी. जिसकी सबसे अधिक ज़रूरत पूर्व गृहमंत्री और तत्कालीन राष्ट्रपति मेजर जनरल (रिटायर्ड) इस्कंदर मिर्ज़ा को थी. इस्कंदर मिर्ज़ा ने वन यूनिट की वजह से बढ़ती बेचैनी की भावना को अपने मक़सद के लिए इस्तेमाल करने का फैसला किया था.

इस्कंदर मिर्ज़ा कुछ समय में चौधरी मोहम्मद अली के बाद उनके उत्तराधिकारी हुसैन शहीद सहरवर्दी को भी घर भेजने में कामयाब हो चुके थे. अब उनके सामने समस्या ये थी कि चुनाव के अलावा प्रधानमंत्री फ़िरोज़ ख़ान से कैसे बचा जाए. इस मक़सद के लिए सबसे पहले उन्होंने पूर्व रियासत क़लात के शासक मीर अहमद यार ख़ान को विश्वास में लिया.

"मैंने भोपाल के नवाब को बुला लिया है, वो प्रधानमन्त्री बन जाएँगे, मैं तो राष्ट्रपति हूँ ही, उसके बाद सब ठीक हो जाएगा."

मेजर जनरल (रिटायर्ड) इस्कंदर मिर्ज़ा ने ख़ान ऑफ़ क़लात मीर अहमद यार ख़ान के कान में आहिस्ता से कहा था.

"बस, तुम कोई ऐसा उपाय करो कि ये सब काम बिना किसी रुकावट के हो जाए."

और अगली ही सुबह नवाब ऑफ़ भोपाल सर हमीदुल्लाह ख़ान पाकिस्तान की राजधानी कराची में थे.

इस तरह इस मंसूबे के पूरा होने में इतनी ही देर बाक़ी रह गई, जिसके लिए ग़ालिब ने कहा था- "दो चार हाथ जबकि लब ए बाम रह गया."

इस्कंदर मिर्ज़ा की योजना की शुरूआत

ख़ान ऑफ़ क़लात की किताब 'इनसाइड बलोचिस्तान' के अनुसार उस ज़माने में पाकिस्तान के संस्थापक मोहम्मद अली जिन्ना की बहन फ़ातिमा जिन्ना, मुस्लिम लीग के अध्यक्ष ख़ान अब्दुल क़य्यूम ख़ान और एक साल पहले तक देश के प्रधानमंत्री और पूर्वी पाकिस्तान के क़द्दावर नेता हुसैन शहीद सहरवर्दी विपक्ष का नेतृत्व कर रहे थे.

जनता आने वाले चुनाव का इंतज़ार कर रही थी और राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा ख़तरा महसूस कर रहे थे कि इन बड़े नेताओं के मुक़ाबले में उनकी दाल आसानी से गलने वाली नहीं है.

इसी ख़तरे को भांपते हुए इस्कंदर मिर्ज़ा ने एक योजना बनाई, जिसमें एक किरदार नवाब ऑफ़ भोपाल को और एक ख़ान ऑफ़ क़लात को अदा करना था.

ये 1957 की गर्मियों की बात है, जब बलोचिस्तान के रेगिस्तान तांबे की तरह तप रहे थे. बिल्कुल इसी तरह बलोचिस्तान की पूर्व रियासत क़लात की जनता, प्रमुखों और बुज़ुर्गों के दिलों में बेचैनी की लहरें करवटें ले रही थीं.

वो ख़तरा महसूस कर रहे थे कि आने वाले दिनों में क़लात की स्थानीय परंपरा और बलोच संस्कृति की सिर्फ़ यादें रह जाएँगी. जिसकी सुरक्षा का लिखित आश्वासन खुद क़ायद-ए-आज़म ने इस क्षेत्र की जनता को दिया था.

इस ख़तरे या दूसरे शब्दों में कहें, तो इस सुरक्षा का आधार वन यूनिट का वो तरीक़ा था, जिसे ख़त्म करने के लिए सरकारी अधिकारी कभी-कभी कुछ ऐसा तरीक़ा इस्तेमाल करते, जिससे स्थानीय लोग चिंतित हो जाते थे.

कुछ समय बाद के सर्दी के मौसम की वो एक उदास सी शाम थी, जिसमें ख़ान ऑफ़ क़लात से क़ायद-ए-आज़म के एक जूनियर साथी मिर्ज़ा जवाद बेग की मुलाक़ात हुई. उन दिनों कराची में सर्दी खूब पड़ा करती थी, जिससे बचने के लिए लोग ओवर कोट भी पहन लिया करते थे.

उस शाम ख़ान ऑफ़ क़लात भी ओवर कोट में थे. उनके सिर पर टोपी थी, जो उन्होंने उतार कर एक तरफ़ रखी और दुख भरे लहजे में कहा "देख लेना मिर्ज़ा! चोर दरवाज़ों से आने वालों की सत्ता की हवस हमें कहीं का नहीं छोड़ेगी."

मिर्ज़ा जवाद बेग ने उन दिनों की याद को ताज़ा करते हुए बताया कि ये वही दिन थे, जब क़लात और बलोचिस्तान के कुछ दूसरे शहरों में स्थानीय बुज़ुर्गों और क़बायली मुखियाओं के बीच सलाह मशविरों का दौर ज़ोरों पर था और ख़ान ऑफ़ क़लात महसूस करने लगे थे कि बलोचिस्तान के लोगों की तसल्ली के लिए अगर जल्दी ही ठोस क़दम न उठाए गए, तो किसी बड़ी मुश्किल को टालना मुश्किल हो जाएगा.

दिन गुज़रते गए और बलोचिस्तान के रेगिस्तानों की झुलसा देने वाली गर्मी थोड़ी कम हुई.

ठीक उन्हीं दिनों में क़बायली बुज़ुर्गों के एक प्रतिनिधि मंडल ने क़लात में ख़ान से मुलाक़ात की और उन्हें अपनी सुरक्षा और शिकायत के बारे में छह बिंदुओं का मेमोरेंडम दिया.

इसमें उन्हें याद दिलाया गया कि 1948 में क़लात रियासत के पाकिस्तान में विलय के समय क़ायद-ए-आज़म ने आपको आश्वासन दिया था कि स्थानीय संस्कृति और परंपरा का सम्मान किया जाएगा और इसकी सुरक्षा की जाएगी, लेकिन बदक़िस्मती से अब स्थिति विपरीत है.

इस तरह की मुलाक़ातों का सिलसिला आने वाले दिनों में भी चलता रहा. यहाँ तक कि आठ अक्तूबर 1957 को बलोचिस्तान के 44 क़बायली प्रमुखों का एक प्रतिनिधि मंडल ख़ान ऑफ़ क़लात के नेतृत्व में राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा से मिला और उन्हें वो ज्ञापन सौंपा, जो कई माह पहले से तैयार किया जा रहा था.

इस्कंदर मिर्ज़ा ने उनकी मांगों पर सहानुभूति के साथ विचार करने का वादा किया और ख़ान ऑफ़ क़लात को कुछ बड़े क़दम उठाने के लिए क़ानूनी सलाह लेने का निर्देश दिया.

हुसैन शहीद सुहरावर्दी
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हुसैन शहीद सुहरावर्दी

ख़ान ऑफ़ क़लात और इस्कंदर मिर्ज़ा की वो मुलाक़ात

प्रतिनिधि मंडल उठ कर जाने लगा, तो राष्ट्रपति इस्कंदर मिर्ज़ा ने ख़ान ऑफ़ क़लात से कहा कि वो उनके निजी मेहमान के तौर पर उनके यहाँ रुकें. इस तरह ख़ान ऑफ़ क़लात आने वाले 15 दिनों तक यानी सात से 20 अक्टूबर 1957 तक उनके मेहमान के तौर पर राष्ट्रपति भवन में रहे.

यही वो 15 दिन हैं, जिनमें इस्कंदर मिर्ज़ा के दिमाग़ में चलने वाली योजनाओं के पूरा होने के स्पष्ट संकेत दिखने लगे थे.

इस्कंदर मिर्ज़ा ने अपनी बात की शुरुआत ख़ान ऑफ़ क़लात की दुखती रग यानी उनकी पूर्व रियासत और वन यूनिट के साथ उनके संबंध से की.

इस्कंदर मिर्ज़ा ने ख़ान ऑफ़ क़लात से ब्रिटेन के एक बड़े क़ानूनी जानकार मेक नायर का ज़िक्र किया और सलाह दी कि वो उनसे मुलाक़ात करें और सलाह लें कि पूर्व रियासत क़लात को वन यूनिट से अलग करने का तरीक़ा क्या हो सकता है?

ख़ान ऑफ़ क़लात को ये मशवरा ठीक लगा और वो लंदन जाने के लिए तैयार हो गए (इस यात्रा के लिए इस्कंदर मिर्ज़ा ने ख़ान को बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा भी दी)

इस्कंदर मिर्ज़ा ने जब महसूस किया कि ख़ान ऑफ़ क़लात अब शीशे में पूरी तरह उतर चुके हैं, तो उन्होंने बात आगे बढ़ाई.

ख़ान ऑफ़ क़लात की किताब 'इनसाइड बलोचिस्तान' में लिखा है कि इस्कंदर मिर्ज़ा ने कहा, "चुनाव सिर पर आ चुके हैं और जैसा कि आप जानते हैं कि मैं अगले कार्यकाल के लिए भी राष्ट्रपति बनने का इरादा रखता हूँ. लेकिन, चुनावी मुहिम चलाने के लिए जिस पूँजी की ज़रूरत है, वो मेरे पास नहीं है. इसके लिए अगर आप अपनी तरफ़ से 50 लाख रुपए का दान दें तो आसानी हो जाएगी."

इससे पहले कि ख़ान ऑफ़ क़लात कुछ जवाब देते इस्कंदर मिर्ज़ा ने अपने दिल की पूरी बात उनके सामने रख दी और कहा कि आप बहावलपुर और खैरपुर की पूर्व रियसतों के शासकों पर दबाव डाल कर उनसे भी क्रमशः 40 और 10 लाख रुपए उन्हें दिलवा दें.

इसके जवाब में वो राष्ट्रपति बनते ही उनकी रियासत (क़लात) के अलावा बहावल पुर और खैरपुर की रियासतों को भी वन यूनिट से अलग कर देंगे.

अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि इस मुलाक़ात में आने वाले दिनों में पूर्व रियासतों की क़ानूनी पोजीशन और आने वाले समय के चुनाव के संदर्भ में आने वाली संभावित मुश्किलों पर विस्तार से चर्चा की गई होगी.

ख़ान ऑफ़ क़लात ने लिखा है कि उनकी ये सोची समझी राय थी कि इस्कंदर मिर्ज़ा के लिए रष्ट्रपति पद का अगला कार्यकाल सिर्फ़ इसी सूरत में यक़ीनी बनाया जा सकता है, अगर वो देश के पसंदीदा राजनीतिज्ञों के साथ अपने संबंध को दोस्ती में बदल दें.

लेकिन, इस्कंदर मिर्ज़ा को ये सलाह पसंद नहीं आई, क्योंकि वो ठान चुके थे कि अगर चुनाव के नतीजे उनकी मर्ज़ी के अनुसार आने की संभावना न हुई, तो वो मार्शल लॉ लगाने से परहेज़ नहीं करेंगे.

सलाह मशवरों का ये सिलसिला लंबा चलता गया और इस विषय पर अकेले में होने वाली एक मुलाक़ात में इस्कंदर मिर्ज़ा ने बताया कि उन्होंने भोपाल के नवाब को पाकिस्तान आने का निमंत्रण दिया है और उन्हें प्रधानमंत्री का पद संभालने की पेशकश की है.

इस तरह वो खुद राष्ट्रपति बन जाएँगे और देश में मार्शल लॉ लगा दिया जाएगा, जो उस समय तक लागू रहेगा जब तक चुनाव के नतीजे उनकी मर्ज़ी के अनुसार नहीं आ जाते.

अलग हुए ख़ान ऑफ़ क़लात

ख़ान ऑफ़ क़लात ने लिखा है कि ये बात सुनकर वो बहुत ही हैरत में पड़ गए और उन्होंने सवाल किया कि क्या उन्होंने (इस्कंदर मिर्ज़ा) ने इस संबंध में कमांडर इन चीफ़ (उस समय फ़ौज के प्रमुख को चीफ़ ऑफ़ आर्मी स्टाफ़ नहीं कहा जाता था) को विश्वास में ले लिया है? क्योंकि फ़ौज का पूरा नियंत्रण तो उनके हाथ में है.

इस्कंदर मिर्ज़ा का जवाब पहले से भी ज़्यादा हैरान कर देने वाला था. उन्होंने कहा, "अगर अय्यूब ख़ान ने उनके रास्ते में आने की कोशिश की तो समय बर्बाद किए बिना उन्हें ख़त्म कर दिया जाएगा."

उस शाम ख़ान ऑफ़ क़लात की, किसी पार्टी में अय्यूब ख़ान से मुलाक़ात हुई, जिसमें उन्होंने उनसे पश्तो में बात की और इस्कंदर मिर्ज़ा के मंसूबे की तरफ़ इशारा किया. ख़ान के अनुसार ये सुनकर अय्यूब ख़ान का चेहरा लाल हो गया और उन्होंने कहा कि वो आख़िरी व्यक्ति होंगे, जो देश के राष्ट्रपति को ऐसा करने की सलाह देंगे.

अगले ही दिन भोपाल के नवाब सर हमीदुल्लाह ख़ान कराची में थे. यहाँ सवाल पैदा होता है कि विश्वास का वो कौन-सा रिश्ता था, जिसके आधार पर इस्कंदर मिर्ज़ा ने ख़ान ऑफ़ क़लात को अपना राज़दार बनाया और भोपाल के नवाब को देश का सबसे अहम पद सौंपने का फ़ैसला किया?

पाकिस्तान के पूर्व विदेश सचिव और नवाब साहब के नवासे शहरयार एम ख़ान की पत्नी बताती हैं कि उन दोनों परिवारों के बीच पुरानी दोस्ती का रिश्ता था.

नवाब साहब जब भी पाकिस्तान आए, वो इस्कंदर मिर्ज़ा के यहाँ ही रुके. इसी तरह इस्कंदर मिर्ज़ा भी आराम करने के लिए कराची के इलाक़े मलेर में स्थित नवाब साहब के फ़ॉर्म हाउस पर जाते, जो उन्होंने पाकिस्तान की स्थापना के समय ख़रीदा था.

जैसे ये संबंध भारत और पाकिस्तान की पूर्व रियासतों के शासक परिवारों (यानी भोपाल के नवाब हमीदुल्लाह ख़ान और मुर्शिदाबाद के शासकों के चश्मों चिराग़ इस्कंदर मिर्ज़ा) के बीच था, बिल्कुल इसी तरह ख़ान ऑफ़ क़लात भी दावा करते हैं कि उनके और भोपाल के नवाब के बीच पुराने दोस्ताना संबंध थे, बल्कि भाईचारे के संबंध थे, जिनमें कोई औपचारिकता की रुकावट नहीं थी.

ये तो सवाल ही पैदा नहीं होता कि मुर्शिदाबाद के पूर्व शासक परिवार से संबंध रखने वाले इस्कंदर मिर्ज़ा को भोपाल और क़लात के इन दो परिवारों के आपसी संबंध किस तरह के थे, इसके बारे में पता न हो. इसी वजह से उन्होंने अपने भविष्य के राजनीतिक मंसूबे में रंग भरने के लिए उन्हें भी विश्वास में ले लिया.

भोपल के नवाब हमीदुल्लाह ख़ान (दाएं)
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भोपल के नवाब हमीदुल्लाह ख़ान (दाएं)

कराची पहुँचे भोपाल के नवाब

यही वजह थी कि भोपाल के नवाब ने कराची पहुँचते ही ख़ान ऑफ़ क़लात से मुलाक़ात की और इस्कंदर मिर्ज़ा की तरफ़ से की जाने वाली पेशकश पर उनसे मशवरा किया. इस मुलाक़ात में ख़ान ऑफ़ क़लात और भोपाल के नवाब के बीच होने वाली बातचीत के बारे में भी 'इनसाइड बलोचिस्तान' में विस्तार से लिखा गया है.

किताब में लिखा है कि वो दोनों, समय बर्बाद किए बिना असल मुद्दे पर आ गए और मेहमान से उन्होंने उनके पाकिस्तान के दौरे की वजह के बारे में सवाल किया.

नवाब ऑफ़ भोपाल: "मेरे यहाँ आने का मक़सद वो स्कीम है, जिसमें मेरा नाम शामिल किया गया है. मैंने इस्कंदर मिर्ज़ा की पेशकश स्वीकार कर ली है और अब मैं चाहता हूँ कि इस स्कीम की विस्तार से जानकारी हासिल करूँ."

ख़ान ऑफ़ क़लात: "स्थिति अलग भी तो हो सकती है, क्योंकि (मेरी राय में) आपका नाम स्कीम में सिर्फ़ इसलिए शामिल किया गया है ताकि वो (इस्कंदर मिर्ज़ा) अपना फ़ायदा हासिल कर सकें." (नवाब इस पर हैरान रह गए).

नवाब ऑफ़ भोपाल : "अगर ये बात है तो फिर मेरा इस स्कीम से कोई संबंध नहीं, जो राष्ट्रपति के दिमाग़ में है."

ख़ान ऑफ़ क़लात ने लिखा है कि इस बातचीत के बाद मामलात साफ़ हो गए और मैंने विशवास में लेते हुए उन्हें बताया कि इस्कंदर मिर्ज़ा सत्ता से बाहर होने के डर की वजह से किस तरह के प्रशासनिक उपाय और साज़िशों में शामिल हैं.

ख़ान ऑफ़ क़लात ने उन्हें राजनैतिक पार्टियों की गुटबंदी के बारे में विस्तार से बताने के अलावा ये भी बताया कि सत्ता में इस्कंदर मिर्ज़ा के दिन अब गिने चुने हैं. वो बहुत जल्दी राष्ट्रपति के पद से हटाए जाने वाले हैं. वो ख़ुद को इस अंजाम से बचाने के लिए हम दोनों को बलि का बकरा बनाना चाहते हैं.

ये सब जानने के बाद नवाब साहब ने ख़ान ऑफ़ क़लात का शुक्रिया अदा किया और कहा, "अल्लाह का शुक्र है कि आपसे मेरी मुलाक़ात पहले हो गई और मुझे योजना के इस पहलू पर भी विचार करने का मौक़ा मिला."

पूर्व रियासतों के इन दोनों शासकों के बीच इस्कंदर मिर्ज़ा की योजना पर चर्चा के दौरान, नवाब ऑफ़ भोपाल को भारतीय सरकार की तरफ से मिलने वाले 20 लाख रुपए (वार्षिक) भत्ता, सम्मान, प्रुस्कार और विशेषाधिकार के अलावा ब्रिटेन में उनके बहुत बड़े कारोबार का भी ज़िक्र हुआ.

इसके अलावा, इस निश्चित संभावना पर भी चर्चा की गई कि इस्कंदर मिर्ज़ा की इस पेशकश को स्वीकार करने पर वो इन सभी चीजों को खो देंगे, जबकि इस्कंदर मिर्ज़ा की योजना की क़ामयाबी की भी कोई ख़ास संभावना नहीं है.

अगले दिन, नवाब ऑफ़ भोपाल इस्कंदर मिर्ज़ा से मिले, तो उन्होंने उस मौक़े पर ख़ान ऑफ क़लात से होने वाली बातचीत का कोई संदर्भ नहीं दिया.

अपनी सत्ता को बचाने के लिए रचे गए इस बचकाने खेल के लिए उन्होंने अपनी नाराजगी भी ज़ाहिर नहीं की, बल्कि इस्कंदर मिर्ज़ा से कहा कि वो उन्हें कुछ समय दें ताकि वो लंदन में अपने कारोबार और भारत में अपनी संपत्ति के मामलात को ठीक तरह से निपटा सकें.

नवाब ऑफ़ भोपाल के भारत आने के अगले दिन, ख़ान ऑफ़ क़लात और इस्कंदर मिर्ज़ा के बीच एक मुलाक़ात हुई, जो तीन से चार घंटे तक चली. इस मौक़े पर इस्कंदर मिर्ज़ा ने ख़ान को बताया कि नवाब उनसे अप्रैल 1958 में वापस आने का वादा करके गए हैं.

इस्कंदर मिर्ज़ा ने संदेह व्यक्त किया कि पता नहीं वो आएँगे भी या नहीं जिस पर ख़ान ऑफ़ क़लात ने उन्हें तसल्ली दी.

पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख अय्यूब ख़ान
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पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख अय्यूब ख़ान

किताब में खुला राज

पाकिस्तानी राजनीति की इस सनसनीखेज़ और नाटकीय कहानी की जानकारी ख़ान ऑफ़ क़लात ने अपनी किताब में दी, जो 1975 में प्रकाशित हुई थी. ये सभी घटनाएँ केवल तीन व्यक्तियों के बीच थीं, इसलिए इन घटनाओं पर चुप्पी का पर्दा पड़ा रहा.

नवाब ऑफ़ भोपाल ने तो इस्कंदर मिर्ज़ा की योजना से दूरी बना ली, लेकिन इस्कंदर मिर्ज़ा अपनी इच्छाओं पर क़ाबू पाने में नाकाम रहे. अपनी योजना के अनुसार, उन्होंने मार्शल लॉ भी लागू किया, लेकिन वो अपने ही बिछाए हुए जाल में फँस कर रह गए.

उसके बाद दुनिया ही बदल गई और नवाब साहब के परिवार ने पाकिस्तान में बड़े-बड़े पद हासिल किए. उनमें से एक शहरयार एम ख़ान भी हैं, जो पाकिस्तान के विदेश सचिव और पाकिस्तान क्रिकेट बोर्ड के प्रमुख बने.

बीबीसी ने जब उनसे इन दिलचस्प ऐतिहासिक घटनाओं के बारे में सवाल किया, तो उनके होंठो पर एक फींकी सी मुस्कान आ गई और उन्होंने पुष्टि की "जी हां, नवाब साहब को ये पेशकश की गई थी."

इसके बाद की कहानी ये है कि इस्कंदर मिर्ज़ा ने अपनी इस नाकामी का ग़ुस्सा ख़ान ऑफ़ क़लात पर उतारा. उन्हें लाहौर की एक जेल में बंद कर दिया गया.

ख़ान ऑफ़ क़लात पर आरोप था कि वो बलोचिस्तान को पाकिस्तान से अलग करने की साज़िश में शामिल थे.

डॉक्टर मोहम्मद वसीम अपनी किताब 'पॉलिटिक्स एंड द स्टेट इन पाकिस्तान' में इस्कंदर मिर्ज़ा के आरोपों को ख़ारिज करते हुए इन सभी घटनाओं को मार्शल लॉ लागू करने का बहाना बताते हैं.

BBC Hindi
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English summary
When the Nawabs of Bhopal arrived to become the Prime Minister of Pakistan
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