श्रीलंका: क्या महिंदा राजपक्षे मजबूरी में चीन की तरफ़ थे
महिंदा राजपक्षे के हवाले से वेंकट नारायण याद दिलाते हैं, ''पाकिस्तान और चीन से हथियार लेकर श्रीलंका में लिट्टे को हराया गया. हंबनटोटा या अन्य किसी भी प्रोजेक्ट के लिए श्रीलंका पहले भारत के पास गया, लेकिन भारत ने रुचि नहीं दिखाई जिसकी वजह से चीन की तरफ़ जाना पड़ा.''
''भारत में कई लोगों को ये लगता है कि राजपक्षे चीन की तरफ़ हैं जिससे भारत को नुकसान हो सकता है. लेकिन ये तबकी बात है जब भारत में गठबंधन की राजनीति थी और गठबंधन में तमिल पार्टियों की भूमिका थी.
''प्रधानमंत्री ऐसा हो, जिसे लोगों ने चुना हो. कोई एक या दो लोग चाहें जिसे, उसे प्रधानमंत्री नहीं बना सकते. उन्हें संसद का बहुमत जीतना होगा. राष्ट्रपति मैत्रीपाला सिरीसेना, हमें दुनिया की नज़रों में शर्मसार कर रहे हैं. दुनिया कहेगी कि हम एक मूर्ख देश हैं. संसद सर्वोच्च है. इन तमाम समस्याओं का समाधान संसद के ज़रिए किया जा सकता है. संसद में जो बहुमत साबित करेगा, वही प्रधानमंत्री बनेगा.''
ये शब्द श्रीलंका के लोगों की मिलीजुली आवाज़ है जो 26 अक्तूबर की शाम ढलने के बाद बढ़ते राजनीतिक तनाव के बीच राजधानी कोलंबों में सुनाई दे रहे थे.
श्रीलंका में इस समय एक राष्ट्रपति और 'दो प्रधानमंत्री' हैं. दोनों में से कौन 'असली' प्रधानमंत्री है, इसका फ़ैसला 16 नवंबर को होगा जब श्रीलंका की संसद में 'कुर्सी के दावेदार' अपना बहुमत साबित करेंगे.
श्रीलंका की राजनीति में फिलहाल तीन अहम किरदार हैं- मैत्रीपाला सिरीसेना, रानिल विक्रमसिंघे और महिंदा राजपक्षे.
मैत्रीपाला सिरीसेना इस समय राष्ट्रपति हैं. उन्होंने महिंदा राजपक्षे को श्रीलंका का नया प्रधानमंत्री नियुक्त किया है. तीसरे किरदार रानिल विक्रमसिंघे हैं जिन्हें राष्ट्रपति सिरीसेना ने 26 अक्तूबर को 'बर्ख़ास्त' कर दिया.
सत्ता का ये त्रिकोण श्रीलंका में कोई नया समीकरण नहीं है. लेकिन इन तीनों की भूमिकाएं ज़रूर बदल गई हैं.
महिंदा राजपक्षे श्रीलंका की राजनीति में पुराने और मज़बूत खिलाड़ी हैं. पृथकतावादी लिबरेशन टाइगर्स ऑफ़ तमिल ईलम (लिट्टे) की उखड़ती जड़ों के साथ राजपक्षे ने अपनी जड़ों को मज़बूत बनाया और वो साल 2005 से साल 2015 तक श्रीलंका के राष्ट्रपति रहे.
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साल 2015 के जनवरी महीने में राष्ट्रपति का चुनाव हुआ. इस बार राजपक्षे को चुनौती दी मैत्रीपाला सिरीसेना ने. दोनों की एक ही पार्टी थी- श्रीलंका फ्रीडम पार्टी, लेकिन धड़े अलग अलग थे. महिंदा राजपक्षे पर 'तानाशाह बनने' और 'भ्रष्टाचार' करने के आरोप थे. राष्ट्रपति चुनाव में सिरीसेना को अप्रत्याशित जीत मिली.
श्रीलंका की राजनीति पर पैनी नज़र रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार वेंकट नारायण बताते हैं, ''सिरीसेना प्रधानमंत्री बनना चाहते थे. लेकिन राष्ट्रपति रहते महिंदा राजपक्षे ने ऐसा नहीं किया. इससे क्षुब्ध होकर श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के नेता सिरीसेना ने सिंघलियों की यूनाइटेड नेशनल पार्टी के नेता रानिल विक्रमसिंघे से हाथ मिलाया. दोनों ने मिलकर राजपक्षे के धड़े को हरा दिया. चुनाव के बाद सिरीसेना राष्ट्रपति बने और उन्होंने रानिल विक्रमसिंघे को प्रधानमंत्री बना दिया.''
इस चुनाव के साथ ही महिंदा राजपक्षे का ये भ्रम भी टूट गया कि वो एक सिंघला नेता हैं और सिंघला वोटों के बूते किसी को भी हरा सकते हैं. उन्होंने संविधान को भी बदला, जो श्रीलंका में किसी भी व्यक्ति को दो बार राष्ट्रपति बनने से रोकता है. सत्ता के लिए उनकी ये बेताबी लोगों को पसंद नहीं आई और तमाम गुटों ने मिलकर चुनाव में उन्हें पटखनी दी.
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राष्ट्रपति सिरीसेना और प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे ने शुरुआत तो अच्छी की लेकिन ये जुगलबंदी जल्द ही गड़बड़ाने लगी.
वरिष्ठ पत्रकार वेंकट नारायण बताते हैं, ''रानिल विक्रमसिंघे की छवि शहरी संभ्रांत वर्ग की है. कोलंबो और शहरी इलाके में उन्हें समर्थन हासिल है. इसके विपरीत सिरीसेना ग्रामीण पृष्ठभूमि से आते हैं. इन्होंने चुनाव में ये कहकर वोट बटोरे थे कि हम सत्ता में आने के बाद राजपक्षे के भ्रष्टाचार की पोल खोलेंगे, उन्हें सज़ा दिलवाएंगे. लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा कुछ नहीं कर पाए, क्योंकि दोनों में सहमति नहीं बनती थी, दोनों एक-दूसरे से चर्चा तक नहीं करते थे. ''
वेंकट नारायण बताते हैं कि लगभग 15 दिन पहले एक ऐसा वाक़या सामने आया जिसने सिरीसेना और रानिल विक्रमसिंघे के रास्ते जुदा कर दिए.
वेंकट नारायण बताते हैं, ''कैबिनेट की एक बैठक में सिरीसेना ने कहा कि एक भारतीय है जो रॉ का आदमी लगता है, वो मेरी और गोटाभाया राजपक्षे की हत्या करना चाहता है. सिरीसेना ने रानिल विक्रमसिंघे से इसकी जांच-पड़ताल कराने के लिए कहा, लेकिन उन्होंने इस बात पर बहुत अधिक ध्यान नहीं दिया. सिरीसेना को इस बात से भी शिकायत थी कि रानिल विक्रमसिंघे अपने करीबियों को अहम ओहदों पर रख रहे थे और इस बारे में उनसे चर्चा तक नहीं कर रहे थे.''
''दोनों में ग़लतफ़हमियां बढ़ने लगीं. कुछ दिन पहले जब रानिल विक्रमसिंघा भारत आए, प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात के बाद उन्होंने एक बयान जारी करके कहा कि सिरीसेना की वजह से भारत, श्रीलंका में निवेश नहीं कर रहा है. बयान में सिरीसेना का नाम नहीं लिया गया, लेकिन ठीकरा सिरीसेना के ही सिर पर फोड़ा गया था. यहां सिरीसेना को लगा कि अब बात नहीं बन सकती और रानिल विक्रमसिंघे को निकालना ही पड़ेगा. इसी वजह से 26 अक्तूबर की शाम राष्ट्रपति सिरीसेना ने विक्रमसिंघे को हटाकर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर महिंदा राजपक्षे को बैठा दिया.''
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सिरीसेना ने राजपक्षे को ही क्यों चुना
जानकार मानते हैं कि राष्ट्रपति सिरीसेना ने तय कर लिया था कि रानिल विक्रमसिंघा के साथ मिलकर देश को चलाना नामुमकिन है. अपनी ही पार्टी के पुराने सहयोगी महिंदा राजपक्षे विकल्प के तौर पर उनके सामने थे. लेकिन क्या सिर्फ यही वजह थी, या और भी कोई कारण था जिसकी वजह से राजपक्षे सिरीसेना की पहली पसंद बनें?
इस सवाल पर वरिष्ठ पत्रकार वेंकट नारायण कहते हैं, ''साल 2015 के चुनाव के समय सिरीसेना कह रहे थे कि वो राजपक्षे को हटाने के लिए ही चुनाव लड़ रहे हैं, पद पर बने रहना उनकी प्राथमिकता नहीं है और एक कार्यकाल के बाद राष्ट्रपति का पद छोड़ दूंगा. लेकिन अब ऐसा लगता है कि सिरीसेना और महिंदा राजपक्षे में कोई समझौता हो गया है कि आप प्रधानमंत्री बनिए और राष्ट्रपति के लिए मेरे दूसरे कार्यकाल का समर्थन करिए.''
''राजपक्षे ये भी कह रहे हैं कि अगर बात नहीं बनती है तो चुनाव हो जाएं. वहां प्रांतीय चुनाव होने थे. लेकिन कई महीनों से नहीं हुए हैं. इसकी वजह ये है कि रानिल विक्रमसिंघा और सिरीसेना का जो गुट है, उन्हें चुनाव में हार का डर था. लेकिन कुछ प्रांतों में फरवरी में चुनाव हुए, नतीजे राजपक्षे के पक्ष में गए थे. राजपक्षे चाहते हैं कि बाकी प्रांतों में भी चुनाव हो जाएं, उसके बाद संसदीय चुनाव कराए जाएं. उन्हें लगता है कि उनके पास समर्थन है. लिट्टे को हराने की वजह से बौद्ध उन्हें नायक की तरह तो मानते ही हैं.''
राजपक्षे बनाम विक्रमसिंघे
श्रीलंका में अब सबकी नज़रें 16 नवंबर पर टिकी हुई हैं जब संसद में शक्ति परीक्षण होगा. रानिल विक्रमसिंघे दावा करते हैं कि वो अभी भी प्रधानमंत्री हैं और उन्हें संसद का बहुमत हासिल है.
बर्खास्त प्रधानमंत्री रानिल विक्रमासिंघे के समर्थक और डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता शरथ फोंसेका, राष्ट्रपति की शक्तियों पर सवाल उठाते हैं और इस फ़ैसले को लोकतंत्र के विरुद्ध बताते हैं.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, ''हमें संसद में अभी भी बहुमत हासिल है. श्रीलंका के संविधान के हिसाब से राष्ट्रपति के पास सरकार भंग करने या प्रधानमंत्री को हटाने की शक्ति नहीं है. राष्ट्रपति ने लोगों की इच्छा के खिलाफ़ जाकर प्रधानमंत्री को बदला है. इस फ़ैसले से लोगों के साथ-साथ लोकतंत्र भी प्रभावित हुआ है. प्रधानमंत्री को इस तरह बदलना, श्रीलंका के लोकतांत्रिक नियमों के विरुद्ध है.''
लेकिन श्रीलंका फ्रीडम पार्टी के सांसद अनुरा प्रियदर्शना यापा, राष्ट्रपति सिरीसेना के फ़ैसले को सही ठहराते हैं. वे कहते हैं, ''हमारी अर्थव्यवस्था गिर रही है लोग खुश नहीं हैं. प्रधानमंत्री रानिल विक्रमसिंघे की सरकार हालात को ठीक से समझ नहीं पा रही थी. आर्थिक हालात विक्रमसिंहे के काबू से बाहर हो रहे थे. मुझे लगता है कि राष्ट्रपति सिरीसेना ने सही फ़ैसला किया है. वरना श्रीलंका दिवालिया होने की कगार पर आ जाता. लोगों का विरोध सड़कों पर उतर सकता था.''
इसी तरह महिंदा राजपक्षे के प्रवक्ता केहलिया राम्बू कबिला दावा करते हैं कि महिंदा राजपक्षे अपनी योग्यता को बहुत पहले साबित कर चुके हैं. वो कहते हैं, ''श्रीलंका में कई मोर्चों पर संकट की स्थिति है. ख़ासतौर पर मुद्रा अभूतपूर्व तरीक़े से गिर रही है. वित्तीय और बैंकिंग सेक्टर में भी गिरावट है. मुझे लगता है कि राष्ट्रपति को लगा होगा कि लोगों का इस क़दर परेशान होना ठीक नहीं है. राष्ट्रपति सिरीसेना किसी ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं जिसने ख़ुद को साबित किया हो. साल 2005 के संकट के दौरान महिंदा राजपक्षे ने हालात सामान्य बनाकर ख़ुद को तब साबित किया था जब पूरे देश में व्यवधान था.''
'हिटलर जैसे नेता की ज़रूरत'
श्रीलंका के दैनिक अंग्रेजी अख़बार 'द आईलैंड' के इंडिया ब्यूरो चीफ़ वरिष्ठ पत्रकार वेंकट नारायण ख़राब होती आर्थिक स्थिति को श्रीलंका की मौजूदा राजनीतिक उथल-पुथल की एक वजह मानते हैं.
वो कहते हैं, ''श्रीलंका में हर चीज़ महंगी है, इसमें कोई शक नहीं है. मसलन एक अख़बार चालीस रुपये का मिलता है. रानिल विक्रमसिंघे और सिरीसेना जो काम मिलकर कर सकते थे, नहीं कर पा रहे हैं. इससे लोग गुस्से में हैं. कुछ लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि हालात पर काबू पाने के लिए हिटलर जैसे नेता की ज़रूरत है. उन्हें लगता है कि राजपक्षे के पास इन समस्याओं का समाधान है.''
इस साल फरवरी में जो प्रांतीय चुनाव हुए हैं, उनमें राजपक्षे की पार्टी ने विजय पताका फहराई है. इससे उनके समर्थकों को ये उम्मीद बंधी है कि संसदीय चुनावों में भी उनकी पार्टी विजयी होगी.
लेकिन क्या इस संभावित बदलाव से श्रीलंका की ज़मीनी हालत बदलेगी, जानकार इस पर हां की मोहर पक्के तौर पर नहीं लगाते.
भारत और चीन का पेंच
श्रीलंका में चीन ने बड़े पैमाने पर निवेश किया है. श्रीलंका चीन का कर्ज़दार भी है. भारत भी श्रीलंका के विकास में मददगार रहा है लेकिन श्रीलंका कभी भारत तो कभी चीन की ओर अधिक झुकता हुआ नज़र आया है.
जानकार तमिल राजनीति और राजधानी दिल्ली में उस राजनीति से जुड़ी मजबूरियों को इसकी वजह बताते हैं.
वरिष्ठ पत्रकार वेंकट नारायण एक उदाहरण देकर इसे समझाते हैं, ''महिंदा राजपक्षे ने एक बार कहा था कि भारत, श्रीलंका का भाई है और चीन उसका दोस्त. श्रीलंका में जब लिट्टे के ख़िलाफ़ लड़ाई जारी थी, भारत में कांग्रेस की गठबंधन सरकार थी. गठबंधन में कभी डीएमके तो कभी एआईएडीएमके की भूमिका रही. राजपक्षे ये कहते रहे हैं कि हम भारत से मदद लेना चाहते थे, लेकिन गठबंधन की राजनीति की वजह से बात उस तरह से बनती नहीं थी. लिट्टे को हराने के लिए हमें हथियार चाहिए थे लेकिन भारत तमिल राजनीति की वजह से ऐसा नहीं कर पा रहा था.''
महिंदा राजपक्षे के हवाले से वेंकट नारायण याद दिलाते हैं, ''पाकिस्तान और चीन से हथियार लेकर श्रीलंका में लिट्टे को हराया गया. हंबनटोटा या अन्य किसी भी प्रोजेक्ट के लिए श्रीलंका पहले भारत के पास गया, लेकिन भारत ने रुचि नहीं दिखाई जिसकी वजह से चीन की तरफ़ जाना पड़ा.''
''भारत में कई लोगों को ये लगता है कि राजपक्षे चीन की तरफ़ हैं जिससे भारत को नुकसान हो सकता है. लेकिन ये तबकी बात है जब भारत में गठबंधन की राजनीति थी और गठबंधन में तमिल पार्टियों की भूमिका थी. लेकिन मौजूदा मोदी सरकार में तमिल दलों की कोई भूमिका नहीं है. इसलिए मुझे लगता है कि राजपक्षे प्रधानमंत्री बनते हैं और अगला संसदीय चुनाव भी जीतते हैं तो कुछ ऐसा नहीं करेंगे जो भारत को नापसंद हो.''